उसने  धूल में लथपथ विजय को देखा और उसाँस भर कर रह गई ।
भोला भाला  सा चेहरा मासूमियत से भरपूर। इस समय अपने आसपास से बेखबर विजय लीन है कांकरों  के घर बनाने में ।जो चुने गए हैं सड़क से  कई घंटों की मेहनत के बाद । वह बार बार पत्थर जमाने की कोशिश कर रहा था और पत्थर एक बार लगता है कि जम गया लेकिन थोड़ी देर बाद ही बिखर कर दूर चले जाते ।
मन नहीं हुआ उसका  खेल बिगाड़ने का.  कितनी ही देर वह सुध बुध खोकर  अविचल खड़ी रही 
बन्टू की रोटी की रट से उसकी तन्द्रा टूटी ।
नहीं कोई चारा नहीं है  । उसने खुद को समझाया और झपट कर खेलते विजय की बाजू पकड़ लगभग घसीटती हुई अपनी झुग्गी में ले आयी  । रोते विजय को हैरानी हुई । आज मां ने थप्पड़ नहीं मारा । वह मां का चेहरा देखता सिसकियाँ लेता रहा ।
” चल जल्दी ! तुझे नहला दूँ.।”
बिनता ने आज अच्छे से रगड़ रगड़ कर विजय को नहलाया  । कड़वा तेल लगाकर बाल बनाए । काजल लगाया ।  फिर गठरी खोल कर सबसे बढ़िया कपड़े निकाले।  अभी पहना ही रही थी कि होटल के नौकर ने आवाज दी, – ” भाभी! विजय को भेज” ।
” आई ।”
बिनता ने झटपट विजय को बाहर ला खड़ा कर दिया ।
उस आदमी ने ऊपर से नीचे तक विजय को देखा – ” ठीक है । लेजा रहा हूँ । पैसे हजार रुपये मिलेंगे ।  चाय नाश्ता अलग से। सुबह पांच बजे से आना है.। रात को ग्राहक निपटने तक काम करना पड़ेगा।  ठीक है ।”
” जी “
इससे ज्यादा बिनता से बोला न गया। थोड़ी देर बाद विजय मोटर साइकिल पर बैठा होटल जा रहा था बिल्कुल उस बकरे की तरह जिसे कुर्बानी के लिए ले जाया जा रहा है।
लेखिका कहानी, लघुकथा, कविता आदि लिखती हैं. पुरवाई की नियमित पाठक हैं. बठिंडा में रहती हैं.

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