एक चीत्कार भरी आहट
जब भी सुनी उसने
कराह उठा था सीना उसका
बार-बार चटक रहा था
कुछ तो वहाँ पर
लिए हाथ में आरी-कुल्हाड़ी
छैनी-हथौड़ा अनेक हथियार
देखा बढ़े आ रहे थे
दुश्मन चार
टूट पड़े थे सब मिलकर
कुछ उसकी शाखाओं पर
शायद फिर भी
बुझ न सकी थी
उन हैवानों के मन की प्यास
अरे मानव !
क्यों बना रहा है
काट काट कर
इन हरे-भरे जंगल को
तू श्मशान
नही आयेंगे अब वो
रंगबिरंगे पंछी
जो चहंका करते थे
दिन-औ-रात
इन वृक्षों की शाखाओं पर
अरे …पंछियों के
घरौंदे तोड़ने वालों
समझ सके हो क्या तुम
उनके
रुदन-विलाप को..?
तुम निर्मोही, तुम निष्ठुर
तुम पाप के भागीदार हो
हाय …
पेट भरा नहीं जब उनका
अपने इन अत्याचारों से
थे शक्ल -अक़्ल में जो दानव
बढ़ने लगे थे आगे वो
पर्वत और पहाड़ों पर
लिए हाथ में छैनी -हथौड़ा
चढ़ सीने पर चट्टानों के
करने लगे थे वार पर वार वो
सुना नहीं था रुदन उनका
नहीं सुनी वेदना ह्रदय की
सिसक -सिसक कर
दरक रहे आज वो पहाड़
जो अपने लगते थे कभी
अरे ओ मानव !
क्यों निष्ठुर बनकर
कर रहा तू !
प्रकृति का दोहन
यूँ बार -बार
क्यों करता है प्रकृति से
इस तरह खिलवाड़ तू !
प्रकृति की ही कोख में
छिपे हुए हैं
वो राज-रहस्य सारे
जो तेरे जीने में
जीवन के आधार हैं
तू मिटा रहा है जिसको आज
वो मिटा देगी कल तुझको
सुन चीत्कार उसकी भी
थोड़ा सा तो कर विचार तू ….॥