Saturday, July 27, 2024
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कुसुम पालीवाल की कविता – छिपकली

पर्दे पर रेंगती छिपकली सोच रही है
कब सामने बैठे पतंगें को
अपनी लिजलिजी जिह्वा से पकड़ूँ
और निगल जाऊँ उदर के भीतर ज़िंदा
या फड़फड़ाने दूँ
कीट को
दम तोड़ने तक ,

या उस जगह पर जाऊँ
जिस जगह पर
भीड़ मची है उन पतंगों की
जिन्होंने अपनी जान गँवाई थी
जगमगाते प्रकाश के नीचे ,

या किसी घर में जलते हुए
उस दिए की लौ के नीचे
जिसके घर में रोटी नहीं थी
पर प्रेम था ,

प्रेम टूटे झप्पर पर चूल्हे की कालिक में था
टूटे पलंग पर उसके बुढ़ापे में था
चरमराई हड्डियों में मेहनत से था
पिचके गालों में भूख का था
आँखों की नींद में गरीबी का था
और मुझे पूरी उम्मीद है कि
बूढ़ी पत्नी के तकिए के नीचे रखे
चंद सपनों में भी था ,

छिपकली बहुत डरी हुई
या सहमी हुई है
प्रेम के इस उदात्त रूप को
देख कर
और भविष्य की कुछ चिंताओं को लेकर ….।।

कुसुम पालीवाल
कुसुम पालीवाल
शिक्षा - एम. ए. प्रकाशित पुस्तकें— चार काव्य संग्रह, दो कहानी संग्रह. संपर्क - [email protected]
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