बेशक सपने सच होने दो, घर आंगन गुंजन रहने दो।
सजे सजाएं घर में जैसे, नहीं भावनाएं रहती हैं,
मनचाहा तो नहीं मिलेगा, केवल कामनाएं बचती हैं,
खुशियों का मौसम रहने दो, घर आंगन गुंजन रहने दो।
जीवन धारा में बहती सी, यादें बिखरी हर कोने में,
मन के आंसू, सच्चे सपने, साथ रहे, या बिछुडे़ अपने,
इनको भी संग संग चलने दो, घर आंगन गुंजन रहने दो।
नन्हे कदमों की आहट से, गूँजा था इस घर का आंगन,
स्नेह पगी, तुतली आवाजें, गेंद, साईकिल, खेल खिलौना,
इनमें ही जीवन ढलने दो, घर आंगन गुंजन रहने दो।
इनमें ही बचपन जिंदा है, इनमें ही आगत के सपने,
उम्र पिघलती रही यहीं पर, एक सफ़र जारी,
इस घर में इतना ही संचय करने दो, घर आंगन गुंजन रहने दो।
दीवारें तो सज जाएंगी, शोभित होगा जब हर कोना,
फिर नकली वैभव की छाया, जगमग ये संसार सलोना,
पर वो यादें खो जाएंगी, उन आंखों का कोमल सपना,
उस बचपन को, इस पचपन तक अवशेषों में ही सजने दो,
घर आंगन गुंजन रहने दो।
सुख, सुविधाओं के साधन से, केवल राजमहल बनते हैं,
घर आंगन की शोभा वाले, बेशक शीशमहल ढलते हैं,
पर बूंद बूंद में सिमटी खुशियां, सुख दुख के बंधन रहने दो
घर आंगन गुंजन रहने दो,
अच्छी कविता है आपकी पदमा जी! गूंजता हुआ घर आंगन ही अच्छा लगता है। सबके साथ रहने में सुख बढ़ता है,आनंद दुगना हो जाता है ।अकेले-अकेले रहने में खुशियां महसूस नहीं होती और दुख बढ़ जाता है।
शादी के 10 साल बाद जब संयुक्त परिवार का बंटवारा हो रहा था तो घर के पुरुष सबसे ज्यादा दुखी थे हमें याद है कि हमारे जेठ खाने बैठे थे,पर वह बिना खाए ही रोते हुए उठकर ऑफिस चले गए थे। हमारे ससुर भी कई दिनों तक ठीक से खाना नहीं खा सके, वह कहते थे अब कुलिया में गुड़ फोड़ते रहो।
पर कहते हैं ना कि एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है बस कुछ इसी तरह ही होता है कि परिवार में किसी एक की जिद के कारण पूरा परिवार बिखर जाता है।
कविता के लिए आपको बधाई