मनीष बादल की ग़ज़लें
उन्हीं के सिर पे नगीनों के ताज होते हैं
ख़ुशी वहीं पे ठिकाना बना के रहती है
किसी के सामने जिनको कभी नहीं खोलें
अगर दो-चार क़दम उनसे ‘लीड’ ले लें हम
सबब तनाव का ये ‘मूल ऋण’ नहीं होता
हँसी-ख़ुशी से जहाँ माँ-पिता रहें ‘बादल’
किसी की आँख है सूखी किसी में पानी है
हमारे दिल में रहेगा ये घाव मरने तक
हम उसको खींच, ज़मी पर उतार लाते हैं
सलाम करिए सभी टूटते सितारों को
तेरा निज़ाम है तू लूट ले ज़माने को
चुरा रहा है मोबाइल पवित्र बचपन को
हम इसलिए तो किसी को समझ नहीं आते
हमें तभी तो वो ‘बादल’ पसन्द है इतना
उदासी और हरदम की ग़मी अच्छी नहीं लगती
तुम आँसू आँख में रखना छुपा ज़ालिम ज़माने से
तुम्हारा ख़ैरमक़दम है अगर दो साथ जीवन भर
जो बिछड़े राह में तुमसे भुलाना तुम नहीं उनको
तुम्हारी रूठने की ये अदा सीमा में अच्छी है
ख़मोशी ये न हो “बादल” किसी तूफ़ाँ के पहले की
पहुँचा तो है मेरी वो कहानी के आस-पास
हर एक बात पर जो क़सम खा रहे हैं वो
ऐलान उसने कर दिया जब साठ का हुआ
राजा तो हमको दोस्तो लाचार-सा लगा
गीता के ज्ञान पढ़ के हमें बस यही लगा
भटका करे है मन तो बुढ़ापे में बस यहीं
हर एक शे’र में यूँ ‘तग़ज़्ज़ुल’ न खोजिए
‘बादल’ को रोकिए, वो ग़लत राह चल रहा
चारागर भी दिखता है वो और कभी बेचारा भी
दौरे-हाज़िर में पढ़-लिख कर, घर में ख़ाली बैठा है
कब उसको है चैन मिला, वो कब ऐशो-आराम किया
सोच हमारी तय करती है, इसको हम कहते हैं क्या
अपनी कमियाँ सोच-समझकर दुनिया के आगे रखना
क्या कहिए उसकी हस्ती को, एक पहेली है “बादल”
मनीष बादल
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मनीष जी आपकी सभी गजल बहुत अच्छी लगीं।
वैसे तो पहली गजल पूरी ही बहुत अच्छी है, पर फिर भी
कुछ शेर जो बहुत अच्छे लगे-
1-
किसी के सामने जिनको कभी नहीं खोलें
हर एक दिल में कुछ ऐसे दराज होते हैं
यह भी सही।
अगर दो-चार क़दम उनसे ‘लीड’ ले लें हम
चिढ़े-चिढ़े से कई लोग आज होते हैं
यह सच्चाई है।
सबब तनाव का ये ‘मूल ऋण’ नहीं होता
हाँ, ख़ुदकुशी की वजह बढ़ते ब्याज होते हैं
यह बड़ा सच है और जानलेवा भी।
हँसी-ख़ुशी से जहाँ माँ-पिता रहें ‘बादल’
उन्हीं घरों में भरे ख़ूब अनाज होते हैं।
यह बड़ा प्यारा सच लगा।
2-
किसी की आँख है सूखी किसी में पानी है
युगों-युगों से ज़माने की ये कहानी है
बड़ा मार्मिक है और सच भी।
हमारे दिल में रहेगा ये घाव मरने तक
हमें किसी ने दिया घाव ये ज़ुबानी है
शब्दों के घाव कभी नहीं भरते।
तेरा निज़ाम है तू लूट ले ज़माने को
इसीलिए ही तुझे दी ये राजधानी है
यही धोखा तकलीफ देता है।
चुरा रहा है मोबाइल पवित्र बचपन को
अभी से बच्चों पे चढ़ने लगी जवानी है
आज का सबसे बड़ा दुख किंतु सच भी।
हम इसलिए तो किसी को समझ नहीं आते
हमारी सोच नई है, कहीं पुरानी है
वही तो।
3-वैसे तो यह गजल अच्छी लगी लेकिन फिर भी कुछ शेर –
उदासी और हरदम की ग़मी अच्छी नहीं लगती
ज़माने में मुहब्बत की कमी अच्छी नहीं लगती
यह तो सच है।
तुम आँसू आँख में रखना छुपा ज़ालिम ज़माने से
जहाँ इज़्ज़त न इनकी हो, नमी अच्छी नहीं लगती
सही बात।
जो बिछड़े राह में तुमसे भुलाना तुम नहीं उनको
कभी भी धूल यादों में जमी अच्छी नहीं लगती
यह याद रखने वाली बात है।
4-
गीता के ज्ञान पढ़ के हमें बस यही लगा
प्यासा पहुँच गया है ज्यों पानी के आसपास
सही जगह पहुंचे।
5-आपकी यह गजल श्रेष्ठ लगी।मार्मिक भी।
दौरे-हाज़िर में पढ़-लिख कर, घर में ख़ाली बैठा है
वो आँखों में चुभता भी है, वो आँखों का तारा भी
सबसे बड़ी पीड़ा।
कब उसको है चैन मिला, वो कब ऐशो-आराम किया
अपनों से वो जब-जब जीता, अंदर-अंदर हारा भी
यह एक नम्बर है।
सोच हमारी तय करती है, इसको हम कहते हैं क्या
आँसू ख़ुशियों का है मीठा, मानो तो है ख़ारा भी
क्या बात है!
अपनी कमियाँ सोच-समझकर दुनिया के आगे रखना
हमने कुछ पर्दे में रक्खीं, कुछ को है स्वीकारा भी
यह ध्यान देने योग्य बात है।
बेहतरीन गजलों के लिए आपका शुक्रिया बादल जी!