रोटियां बनाती हुं
और उन्ही के साथ
सपने उफान मार कर
फुल जाते हैं लेकिन
अगले ही पल
रोटियां पिचक जाती हैं
और सपने धरातल पर
दुबक जाते हैं।
सब्जी काटने के साथ ही
काट देती हूं वो सारी जड़ें
जिनसे मैं कभी बंधी हुई थी
और बेलों की तरह
एक अनजान का सहारा
लेती हूं, यह जान कर भी
कि जड़ से जुदा होकर
आखिर एक बेल
कितने दिन जी सकेगी

1 टिप्पणी

  1. पत्रिका को पढ़ा। इसकी सामग्री स्तरीय है।तेजेंद्र जी का हिंदी साहित्य प्रेम उसे इस स्तर पर ले आया है। स्तरीय पत्रिका के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!।

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