Saturday, July 27, 2024
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रश्मि विभा त्रिपाठी की कविता – मेरा छोटा-सा घर

यह मेरा छोटा-सा घर
मेरा मन्दिर
यहाँ पर हुई है प्राण- प्रतिष्ठा
पिता की भव्य मूर्ति की
नियम-धरम से
नीराजन करती हूँ
नित्य दीप
देहरी पर धरती हूँ
यह मेरा घर
घर नहीं
मेरी पूजा का पवित्र स्थान है
मेरे लिए सबसे महान है

यह मेरे सपनों का महल
मेरी यादों का गाँव
मेरे बचपन की बस्ती
राजकुमारी- सी
मैं यहाँ पली
यहीं से होकर गई है
एक गली
आँगन की इस खुरदरी जमीन से
पिता की मखमली गोद तक-
जहाँ मैं खूब
खेेली- कूदी- उछली
इलाके में
इसी से मेरा परिचय
ये घर ही मेरी पहचान है
मेरी कुण्डली-
ग्रहों का मिलान है
इसके पाँँचों कमरों के
चारों कोनों में
झरने हैं
जिनके मुहाने से
झर-झर झर रही है आज भी
पिता के प्यार की
सहस्रधारा
इस धारा में जिसका जीवन
मैं वही मछली

मेरी जिद पे बसा है
यहाँ एक बहुत बड़ा बाजार
दुनियाभर का पिता ने लगाया
इस हाट में अम्बार
उनके काँधे पे उचककर
झोला भर- भरकर
खरीदे हैं मैंने
खेल- खिलौने, पैन- पेन्सिल
नये झिंगोले, बेली, टोपी
रसमलाई, पेेठा,
गजक और काजू कतली

यह संग्रहालय है
मेरे पिता की सारी चीजें
इसी जगह
सँभालकर रखी हैं मैंने सलीके से
उनका चश्मा,घड़ी,
रूमाल, छड़ी,
बेहद खास
उनके कपड़ों की क्रीज में
लिपटा उनका कोमल अहसास
मैंने सुरक्षित रखा है
यहीं पर पिता का स्वर्णिम इतिहास
और भी लम्बी लिस्ट है
जिसका सिजरा बड़ा ही क्लिष्ट है

यूँ समझो कि
कोहिनूर से भी ज्यादा कीमती
ये सामान है
मेरी धन- दौलत असली

मेरे कमरे की दीवार के फ्रेम में
आरामकक्ष है
वहीं विराजमान हैं
पिता
मेरे सुख- दुख के गवाह
दुआ की लेई से
चिपकाते
मेरे चेहरे पर गाढ़ी मुस्कान
उपाटकर मेरी आह
तसल्ली पाते
फिर
डोपामाइन के रेशे
मेरे होंठों पर फैल जाते हैं
वे अचानक हर्ष से चिल्लाते हैं
वाह! बिटिया वाह!

यहीं पर समाधि है
मेरे पिता की
मैं रोज उनकी पुण्यतिथि मनाती हूँ
श्रद्धा के फूल
उनके चरणों में चढ़ाती हूँ

तुुम चाहते हो
तो लो!
मैं दरवाजे से हट जाती हूँ
आओ!
इस घर को तोड़ दो
मगर फिर
मेरी मानो तो अपने आप को
भगवान के भरोसे पर तुम छोड़ दो।

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