आज घर,परिवार और समाज के माहौल में परिवर्तन आने से रिश्तों की परिभाषाओं में परिवर्तन आया है। नित नई दुविधाओं और समस्याओं का सामना करने वाला व्यक्ति असमंजस की स्थिति में है। अच्छी सोच के साथ अगर किसी प्रकार के जतन किये जाते हैं तो भी जरूरी नहीं कि परिणाम मनोनुकूल ही हो। बदली हुई स्थितियों और परिस्थितियों ने विभिन्न सामाजिक-पारिवारिक असंतुलनों को भी जन्म दिया है जो चिंतन और मनन करने पर बाध्य करता है। जहाँ कभी मूल्य और संस्कार वात्सल्य,स्नेह,त्याग और विश्वास जैसे गुण सांस्कृतिक विरासत का उदाहरण बनते थे, वहीं कभी-कभी ऐसे प्रश्न आकर खड़े हो जाते हैं, जिनके उत्तर अधरझूल रहते हैं।
पारिवारिक-सामाजिक विघटन के इस तनावपूर्ण दौर में सुधा जुगरान जी का कहानी संग्रह “मेरे हिस्से का आकाश” वर्तमान की कुछ समस्याओं को न सिर्फ़ अपनी बारह कहानियों के कथानक के माध्यम से उठाता है बल्कि सकारात्मक समाधान खोज़ने की भी कोशिश करता हैं।
संग्रह की अधिकांश कहानियों के मूल में पति-पत्नी का रिश्ता, उनकी नोंक-झोंक, प्रेम का इसरार-इनकार,समझाइश,जीवंतता और रिश्तों को निभाने की कला दृश्य होती है। लेखिका ने कहानियों का सृजन स्त्री या पुरुष लेखक बनकर नहीं किया यह बात संग्रह की पहली कहानी से ही सिद्द हो जाती है।
कहानी विवाहित पुरुष की बेबसी और लाचारी को उन परिस्थितियों में खोलती है जहाँ पत्नियाँ घरेलू हो या कामकाजी, घर के काम करना अपनी हेठी समझती हैं। साथ ही वे नौकरी करके भी इतना नहीं कमा पाती हैं कि उनकी कमाई से पूरा घर चल सके। उस पर कामकाज़ी पत्नी हूँ जैसा अहम उनके सिर पर हरदम बैठा रहता है। ऐसी पत्नियाँ अपने कमाए रुपये पर न सिर्फ़ अपना अधिकार समझती हैं बल्कि पति के रुपयों को भी अपना मानती हैं। पुरुष पर पड़ने वाली दोहरी मार से जुड़ी उसकी मजबूरियों की कहानी एक और कड़वा सच खोलती है कि ऐसी युवा बालायें बच्चे भी पैदा नही करना चाहती क्योंकि बच्चे उनकी स्वच्छंदता में बाधा हैं। कहानी का शीर्षक वास्तव में उथली मानसिकता को आईना’ दिखाता है।
“यह अच्छा है आजकल की लड़कियों का…पैसा कमाओ और सब कुछ ऑर्डर कर दो… यहाँ तक कि बच्चा भी…”
‘पीहू अकेली है’ और‘आने से उसके आए बहार’ये ऐसी दो कहानियाँ हैं जिनमें घर के इकलौते बच्चे के अकेलेपन की पीड़ा है। जहाँ अपने ही अपनी संतान की इच्छाओं के बारे में सोचना नहीं चाहते कि उनकी खुशियाँ किन बातों में है।
पीहू के माँ-बाप नौकरीपेशा हैं उनके लिये एक बच्चा पैदा करना ही काफ़ी है। जब वह बड़ी होती है उसे बड़े मकान की खामोश दीवारें अच्छी नही लगती बल्कि उसे बड़े परिवार का जीवन और उसकी जीवंत चहल-पहल प्रभावित करती है। एक बड़े परिवार से जब उसके लिये रिश्ता आता है; वह खुश हो जाती है। उसके मां-बाप जब नये परिवार के सदस्यों के साथ उसका सामंजस्य देखते हैं; असुरक्षित-सा महसूस करते हैं कहीं उनकी बेटी उन्हें ही नहीं भूल जाये। तभी तो लेखिका कहती है…
“श्वेता समझ नहीं पा रही थी कि क्या पीहू वाकई शादी करना चाहती है या फिर अपने इकलौतेपन से त्रस्त होकर मानसी के परिवार की भीड़ का हिस्सा बनना चाहती है।…”
दूसरी कहानी का नन्हा पात्र शुभम अपने अकेलेपन का साथी एक कुत्ते के बच्चे को बनाना चाहता है। बच्चे की माँ उसकी पीड़ा समझती है मगर पिता समझना नहीं चाहता।
“हाँ मैं तो तब भी समझदार थी जब तुमने शुभम को बिना कारण अकेला रखा। अकेले बच्चे को साथ के लिये मैंने किलसते देखा है…”
‘मेरे हिस्से का आकाश’ उत्कृष्ट प्रेम कथा है; जहाँ सदियों से चली आ रही पुरुषों की मानसिकता रिश्ते की टूटन का कारण बनती है। पुरुष अगर सच्चा प्रेमी है तो कभी न कभी उसका अहम सशक्त स्त्री के प्रेम के आगे झुकता है। वह कहता है… “परंपरागत पुरुष के खोल से बाहर आ गया हूँ। अपनी प्रज्ञा के साथ उसकी आकांक्षाओं का आकाश समेटने के लिये। अब कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगा।… मैं आज तुम्हें तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं,सपनों, उम्मीदों और तुम्हारे हिस्से के आकाश के साथ समेटना चाहता हूँ प्रज्ञा”। ऐसे में स्त्री ससम्मान उसे अपनी बाहों में जगह देती है।
‘आम्रपाली’ रूपए, पैसे और प्रॉपर्टी हथियाने से जुड़ी संग्रह की सबसे अलग पारिवारिक जासूसी, रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी है।
बहुधा हम छोटी-छोटी बातों पर अपने करीबी रिश्तो की नाप-तौल करने लगते हैं। ऐसी बातें हमारे आसपास सैकड़ों दुख-दर्द इकट्ठे कर देती हैं। ऐसी नकारात्मकता न हमें खुश रहने देती है न भरपूर जीवन जीने देती है। क्षणिक स्वार्थों की पूर्ति के लिये जब हम रिश्तों को दांव पर लगा देते हैं तब वक़्त की हल्की-सी थपकी भी हमारी सोई चेतना को जागृत करने की क्षमता रखती हैं। ‘मूंग की खिचड़ी’ चालीस पार युवाओं की मानसिकता से जुड़ी ऐसी ही कहानी है।
रिटायरमेंट के बाद जीवन जितना अधिक व्यवस्थित होगा, उतना ही बुढ़ापा सुगमता से निकल जाता है। ऐसे में पति या पत्नी में से एक अगर आलसी हो जाए तो दूसरा उसे कैसे चुस्त रहने के लिए उत्साहित कर सकता है; कुछ ऐसी ही हल्की-फुल्की कहानी है ‘लव इन सिसिटीज़’।
घरेलू औरत के कामों को अगर मान-सम्मान दिया जाए तो वह ताउम्र संबंधों को प्रेम से निभाती हैं मगर कोई उसके महत्व को अगर हर वक्त कम आंकें तो वह बिखर जाती है। स्त्री मन की व्यथा है ‘आप तो ऐसे ना थे’।
एक उम्र के बाद प्रेम का स्वरूप इतना विशाल और व्यापक हो जाता है कि उस में आने वाले हर रिश्ते के प्रति भाव अद्भुत हो जाते हैं। जिन्हें परिभाषित करना आसान नहीं होता। सच्चा प्यार सिर्फ़ देना जानता है। वहाँ मित्र की पीड़ा हरने का ख्याल हरदम रहता है। तभी तो पति-पत्नी ही आपस में वैलेंटाइन नहीं होते बल्कि मित्र भी होते हैं। ‘हैप्पी वैलेंटाइन डे’ सुंदर प्रेम कथा है।
जीवन में हुए हादसों पर किसी का जोर नहीं चलता मगर हर व्यक्ति को खुश रहने का अधिकार है। ‘हमसफर’ कहानी की नायिका पति के असमय जाने से अकेलापन महसूस करती है। बच्चे बाहर सेटल्ड हैं मगर माँ के हर फैसले में साथ हैं। ऐसे में वह अपनी मित्र के भाई का विवाह-प्रस्ताव आने पर संबंध को स्वीकार कर लेती है। ‘कुछ हमारी सुनो’ अच्छी कहानी है।
कहानियों के शीर्षक न सिर्फ़ फिल्मों के नामों की याद दिलाते हैं बल्कि उनमें लयात्मक प्रवाह भी है।
लेखिका जीवन को सुगम, सरल और सकारात्मक बनाने की बातें करती हैं। समाज में बढ़ती हुई जटिलताओं को सुलझाने में ऐसे सृजन की महती भूमिका होती है।
पुस्तक इडिंया नेटबुक्स से प्रकाशित है।
समीक्षक – प्रगति गुप्ता
लेखक व सोशल-मेडिकल पैशन्ट काउन्सलर

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