Saturday, July 27, 2024
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सरोजिनी पाण्डेय की कविता – फलों का स्वाद.

अपने बालकपन में हम तो ,छोटे शहरों में रहते थे
‘ठंडे गोदाम ‘बने ना थे, घर में भी फ्रिज ना होते थे,
केवल मौसम के सब्ज़ी-फल, मंडी में आकर बिकते थे,
सब ‘लोकल’ माल ही मिलता था, ‘ग्लोबल’ का नाम न सुनते थे,
पैसे देकर जो फल आते, वे कम ही अच्छे लगते थे,
अपने ‘कर्मों’ से जो  पाते, वे अमृत के सम लगते थे।

‘किनमोड़े’ 1की झाड़ियां हमें तो, कांटे खूब चुभाती थीं,
पर जितने भी फल मिल जाएं, ‘रसना’ की तृप्ति हो जाती थी ,
‘हिंस्सर’2 की बेल कंटीली जब, पीले फल से लद जाती थी
उंगली, बाहों को छेद-छेद  कर वह हमको मजा़ चखाती थी,
थी कांटों की परवाह किसे? हम ‘वीर शिवा’ बन जाते थे,
तन हो जाए कितना घायल, पर फल का लुत्फ़ उठाते थे।

शहतूत और जामुन के फल ,ऊंचाई पर जा लगते थे,
ढेलेऔर कंकड़ मार- मार ,हम उनको तोड़ा करते थे,
शाला को जाते रस्ते में ,कुछ बड़े गाछ इमली के थे,
ढेले और डंडी फेंक-फेंक, हम  वे फल तोड़ा करते थे,
टेढ़े-मेढ़े ,कच्चे-पक्के ,ये फल हमको ललचाते थे,
कुछ फल यदि हमने झाड़ लिए ,’वीरता पदक’ पा जाते थे,
अमरूदों की छोटी बगिया ,अक्सर ही हमें बुलाती थी,
फल नीचे भी तो लगते थे !,इसलिए बहुत भरमाती थी,
पेड़ों पर चढ़ जाने खातिर,माली की आँख बचाते थे,
टूटी जो  कच्ची डाल  कभी,  उसके झापड़ भी खाते थे,
आमों के बागों का माली, हरदम चौकन्ना रहता था,
बच्चों का झुंड निकट हो तो ,ऊंची आवाज लगाता था,
चतुराई से उसको छलना,अक्सर मंहगा पड़ जाता था,
जो हुई शरारत छोटी भी, घर तक उसको पंहुचाता था।

जाड़ों में झरबेरी पकती, हम  झाड़ी में घुस जाते थे,
कांटो में अगर  कपड़े उलझें, तो कभी-कभी फट जाते थे,
वह दिन होता था बहुत विषम, मां हमें देख गुस्साती थी,
हाथों पे खून, कपड़ों की चीर लख,घूँसे कई जमाती थी,
माता  से जो भी मिलता था, वह पुरस्कार ही लगता था,
इनके कारण बेरी का स्वाद, कुछ दिन जिह्वा पर रहता था,
कच्चे आड़ू,पक्के नींबू सब चोरी करके लाते थे,
चोरी करने की ‘शौर्य -कथा’ मित्रों के बीच सुनाते थे,
इस ‘विजय- मान’ के संग मिलकर,फल का पोषण बढ़ जाता था,
सर्दी में चिटके गालों पर, सुर्ख़ी बनकर छा जाता था।

अब महानगर में रहने पर फल बहुतायत से मिलते हैं,
मौसम -बेमौसम की छोड़ो ,देसी-परदेसी  मिलते  हैं,
पर अब न ‘पराक्रम’ बचपन का, ना रसना में उतना रस है,
‘नित फल खाना’ कुछ और नहीं ,बस एक डॉक्टरी  नुस्ख़ा है।

नोट: 1, किन्मोड़ा; 2. हिंस्सर पहाड़ी स्थानों के जंगली फल हैं।
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