ज़िंदगी और मेरे
तालुक़्क़ात का हिसाब
करना मुश्किल है,
क्या कहूँ क्या न कहूँ
इस बात का जवाब
मुश्किल है,
ज़िंदगी मुझे झेलती है
या मैं जिंदगी को,
कौन किस के रुवाब मे है
कहना मुश्किल है।
जब कभी मैंने उसे
नन्हें हाथों से पकड़ना चाहा,
तो वह मुस्कुरा कर आगे
चली गई।
जब कभी मैंने उसे
फूलों से सजाना चाहा,
तो वह ख़ार बन कर
चुभ गई।
जब कभी उसने मुझे
हाथ बढ़ा कर गले
लगाना चाहा,
तो मेरी कोई ज़ंजीर
मुझे बांध गई।
जब कभी उस ने
नई राह दिखाई,
तो मुझे जीने की आदत
छूट गई।
क्या कहूँ क्या न कहूँ,
इस बात का जवाब
मुश्किल है।
जैसा तसव्वुर किया था
मैंने ज़िंदगी का,
वैसी ये ज़िंदगी
बिल्कुल नहीं और
ज़िंदगी चाहती होगी
जैसा मुझे,
वैसी तो मै भी नहीं ।
पर ऐ ज़िंदगी तू मुझे
कभी ख़ली नहीं और
तू भी न कह सकेगी कि
मैं तेरे हर रंग में
ढली नहीं।
इसलिए
ज़िंदगी और मेरे
तालुक़्क़ात का हिसाब
करना मुश्किल है,
कौन किस के रुवाब मे है
कहना मुश्किल है।।