Saturday, October 5, 2024
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असीमा भट्ट की कविता – उन्हें डर था

उन्हें डर था
एक दिन उनके लिए भोजन कम पड़ जाएगा
उन्होंने अनाज अपने गोदामों में ठूंस दिया
उन्हें ‌डर था
एक दिन वो बूढ़े हो जाएंगे
बीमारी और देखभाल में उनके बहुत रुपए ख़र्च होंगे
उन्होंने रुपए ठूंस दिए बैंकों और अपने घरों की तिजोरियों में
उन्हें अब यह भी डर है
कि एक दिन ऑक्सीजन कम पड़ जायेगी
सांस लेने के लिए
अब उन्होंने
उसकी कालाबाज़ारी शुरू कर दी
उन्होंने लाशों को जलाने के लिए
लकड़ियों की क़ीमत भी बढ़ा दी
बग़ैर यह जाने कि एक दिन वो भी मरेंगे
लाशों के ज़िंदा सौदागर
आप भी एक दिन मरोगे
तुम्हारे अनाज गोदामों में सड़ेंगे
और रुपयों को दीमक चाट जाएंगे
वक़्त पर काम नहीं आयेगा कुछ भी
क्योंकि इतिहास में उन सबकी भी मृत्यु हुई
जिन्होंने अपनी मृत्यु से पूर्व सुरक्षा के सारे पुख़्ता इंतजाम कर रखे थे….
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1 टिप्पणी

  1. ये कविता अपने आप में सब कुछ कह देती है, किन्तु मनुष्य की दुश्वारी यही है के वो ये सब न करे तो क्या करे! प्रकृति ने मनुष्य को ये अभिशाप दिया है के उसे समय की पहचान है और आने वाले समय की कल्पना करने का विवेक!

    तो बस जो कर रहें हैं करते रहें- जोड़ रहे हैं तो जोड़ते रहें बचा रहे हैं तो बचाते रहें!

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