1 – वे लोकतंत्र को कम जानते थे
वे बहुत पढ़ी-लिखी नहीं थीं
‘ताइवान’ में काम मिलने की ख़बर उन्हें सुना
उनके पैर छू रहा था जब मैं
मुझे आशीर्वाद देते हुए उन्होंने कहा-
“बेटा, संभल कर रहना ‘तालिबान’ में!”
जो पढ़े-लिखे मिलते थे
खोज-ख़बर लेते थे
कुछ कुंठित होते थे
कुछ ‘तालिबान’ पर अटक जाते थे
सैनी किस्मत लाल की ठेली पर खड़े
गोलगप्पा गड़पते हुए
और ग़लती सुधारे जाने पर बेशर्मी से कहते—
“तो काईं बड़ी बात होगी?”
किताबों, अख़बारों,
निरक्षरों और शिक्षित बड़बोलों
सबके बीच
तूती बोलती थी
एक फ़सादी शैतान की
एक शांतिप्रिय लोकतंत्र को
लोग दरकिनार किए रहते थे!
2 – उम्मीद, पखेरु का घर
रोहित ठाकुर जब लगाते हैं
अपनी कविताओं के साथ
प्रयाग शुक्ल के बनाए चित्र
तब आभास होता है सहसा
कि शब्दों का ढांचा
चित्र में खड़ा है
इमारत, झाड़फानूस या किसी और तरतीब-सा
और जो पसरा है कैनवास पर
वही कविता बनकर बह निकला है
मसलन, एक बंद दुनिया के कोटरों में
कोने लांघने की मायूस कोशिश करते लोग
उम्मीद, एक पखेरु का घर
हर चित्र में
बहने को आतुर
एक कविता होती है
कहीं होता है कोई चित्र
कविता की आत्मा को दर्शाता
बहुत कम चित्रों को मिल पाता है उनका कवि
बहुत कम कविताओं का उनका चितेरा
सबके नसीब में कहाॅं होता है सोलमेट?
3 – होंठ
यह मुझसे कहा था एक लड़की ने—
गुलाबी और लाल के बीच
एक रंग पोशीदा
तुम्हारे होंठ हैं
देर तक चूमने लायक
न कम, न ज़्यादा,
बिल्कुल ठीक मोटाई के
तुम्हारा चुंबन एक मिठास है
ऐन, मेरे स्वादानुसार!
नाक के नीचे और ठोड़ी के ऊपर
मैं उसका चाय का प्याला था
जिसमें मलाई की पपड़ी जमती छोड़कर
वह चली गई, नमक की गुफ़ा में।
बहुत सुंदर रचनाएँ।
हार्दिक बधाई आदरणीय।