एक जिंदगी चाहिए दे सकोगे ? खुशी चाहिए, एक सुकून भरी जिंदगी, दे सकोगे ?
चलो छोड़ो, मात्र मन की अभिव्यक्ति ? आधिपत्य आज भी तुम्हारा ही है ! पर मात्र एक अस्तित्व का गुरूर चाहिए हां वही गुरुर जो तुम पूरे अदब से लिए फिरते हो
तुमने ही तो इस अस्तित्व को तराशने मुझे भेजा था स्कूल ताकि कोई मुझे दबा ना सके तो फिर मैं और तुम एक क्यों नहीं ?
अपने अस्तित्व पर क्यों नहीं कर सकती मैं गुरुर
खैर, बेअदब जब कहते हो मुझे, तो जान पड़ता है कुछ अब खलने लगी हूं उन आंखों को जिनमेंचमकती थी कभी मैं तारा बन
बेलिहाज़ जब सुनती हूं तो लगता है ठेस पहुंचा है एक अहम को जो मुझे ‘तुम‘ बनाए रखता था। बेअकल की जब बात आती है तो निःसंदेह दिमाग को याद आती है उस संकीर्णता की जो मुझे एक आदर्श का चित्र दिखाती रही है सदा ही।
2 – टूटन
कुछ टूटा…
बिन आवाज़ के बहुत जोर से टूटन के बाद सब गुम सब चुप
और रह गई सिर्फ खामोशी जो हर टूटन के बाद रहती है एक लंबे अरसे तक
ज़ोर से एक चीख निकलती है बिन आवाज़ के जैसे किसी अजीज के जाने की चुभन एक सन्नाटा सिर्फ सन्नाटा
एक दिल जो साफ था सदमे में है आज भी। एक दिल जिसे सन्नाटा खूब डराता है
चुप बैठा है सहमा सा न जाने किसके इंतजार में इंतजार में बैठे बैठे टूटने को है उसके सब्र का बांध संभालता है खुद को इससे पहले बिखरा हुआ और बिखर जाए।
अब उसमें चेतना जगी है अब शायद वो बड़ा हो गया उसकी आदत में शामिल है सालों से गुप–चुप रहना
पर अब परेशानी और है समाज में ख़ुद को स्थापित करने की क्योंकि उस अकेलेपन से वो आज तक संधि नहीं कर सका पर उसे लड़ना होगा अपने एक पक्षीय जीवन से
और उसकी पहचान एक अंधेरे से होगी उसे लगेगा ये दलदल तब उसकी पहचान फिर उस सन्नाटे से होगी पर शायद वो इसी नीरसता से दूर जाना चाहता था शायद वो खुश होना चाहता था ।
उत्कृष्ट कविता।
धन्यवाद रश्मि