विष्णु भगवान चिंतित बैठे थे…
नारद ने प्रवेश किया। क्या बात है प्रभु आज किस चिंता में हैं?
“क्या बताऊँ नारद आज फिर बहुत सारे गरीब पागल हो गए” 
“दिखाइए प्रभु “
प्रभु ने नारद को अन्तर्दृष्टि से दिखा दिया
“आप गलत समझ रहे हैं प्रभु ये पागल नहीं हैं कवि हैं।”
“नहीं नारद ये पागल ही हो गए हैं ।”
“आपकी बात भी सही है प्रभु पागल ही कवि बनते हैं ।
आपको इनके बारे में सोचना चाहिये प्रभु”
“क्या सोचूँ इनकी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है। लेखन की अब जरूरत नहीं रही इन्हें समझ नहीं आता। बच्चे बड़े और ये खुद अब उसे एन्जॉय नहीं करते  मगर कागज बटोरते और  गाते फिर रहे हैं मेरा उत्तम, इसका उत्तम, उसका उत्तम बाकी जिस चीज का कोई ग्राहक नहीं रहा उसका निर्माण क्यों किया जाये। इन्हें नहीं पता ये एक बेकार वस्तु का निर्माण कर रहे हैं।”
नारद बोले “क्योंकि इन्हें  उसके अलावा कुछ करने में मजा नहीं आ रहा प्रभु। जैसे टीवी सीरियल देखने के लती, बीड़ी पीने के लती, शराब पीने के लती या कुछ भी करने के लती करते हैं। लेखन अब एक लत ही समझिये।”
विष्णु जी बोले, वही तो…  जबरदस्ती स्वयं को अपग्रेड करवाने, किसी को  करने के अलावा कुछ नहीं कर रहे  हैं। वह भी केवल अपनी पसंद के लोगों को अपग्रेड करना है। कागज पैसा और समय वेस्ट कर रहे हैं । 
मगर ये ऐसा कर क्यों रहे हैं नारद? 
पुरस्कार की चाहत इनसे सब करवा रही है प्रभु। महिलाएँ भी बहुत दुखी हैं प्रभु? वे इसलिए दुखी उन्हें साहित्य में  अगर पति  प्रेमी मित्र  नहीं कोई नहीं पूछता। चाहे जितना बेहतरीन लिखें कोई संज्ञान नहीं ले रहा।”
मगर जिनके पति प्रेमी उन्हें उबार ले गए वे भी काबिल लेखन को  तरजीह  नहीं दे रही हैं ।
“अब नारद जिनके पैर न फटी बिवाई सो क्या जानें पीर पराई ।”
प्रभु ! लेखक कहता है मुझे दस प्रतियाँ मिली थी मुझे पाँच प्रतियाँ मिली थी, अमेजन से खरीद लो। कोई खरीदता नहीं।बधाई देकर चलते बनते हैं। केवल वही  दस – पाँच किसी विशेष की खरीदते हैं जिन्हें पढ़कर  उसे ओब्लाइज करना है। उसे खुद की पुस्तक खुद ही खरीदकर समीक्षा वालों को देनी पड़ती हैं । उसी की रॉयल्टी प्रकाशक भेजता है। ताकि कुछ उसका भी नाम हो प्रभु।” 
नारद प्रकाशक को पागल कुत्ते ने नहीं  काटा जो वह घाटा उठायेगा । वह बीस तीस बनाता है  फालतू बनाता ही नहीं। ऑर्डर आता है तभी बनाता है। लेखक को लगता है। कहीं तो जायेंगी जबकि वह कहीं नहीं जाती। उसे लगता है  वह दुनिया में छा गया है। उसमें खाली पीली  हवा भरने लगती है। ये अधिकतर गुब्बारे उसी हवा से भरे हुए तैर रहे हैं। कोई कहता है उसके जाने के बाद उसे पढ़ा जायेगा। कोई उन्हें नहीं समझाता भाइयो- बहनो, मित्रो  जाने के बाद पढ़े नहीं जाओगे, डंप हो जाओगे। अगर कहीं किसी कोने में बच गए तो नए लेखक बनने के शौकीन लोग  बैठकर  ऐसे या वैसे उसे  टीपकर लेखक बनेंगे। पीडीएफ लो और सबको बांट दो ताकि कोई पढ़े तो सही।
पीडीएफ जिन्हें नहीं खरीदनी पढनी हैं सब पढ़ लेंगे। ऐसे बहुत हैं जिन्हें पढ़ना तो है खरीदनी नहीं है। कुछ ही हैं जो खरीदकर पढ़ते हैं। जो खरीदते हैं वे फेमस लेखक की खरीदते हैं या  फिर उसकी जो  मैनेज करने का तरीका जानता हो। नाम कमा गया हो। कई बार  बहुत अच्छी पुस्तक बहुत बड़े लेखक की भी डंप हो जाती है। यह भी एक उत्पाद है बेचनी हैं तो बाजार का हर नियम इस पर भी लागू है।”
सही कह रहे हैं प्रभु एक विमोचन में पहुंचा था। लेखक ने मंच वालों को प्रतियाँ दी थीं। बाकी अनेक मेरे हाथों में छह किताबें देख इधर- उधर भागे फिर रहे थे। किताब नहीं मिली, किताब नहीं मिली। बड़े लेखक का रूप धरकर गया था मुझे कुछ अन्य ने भी अपनी दे दी थीं। अतिथियों को  भी दे देते हैं।
बाहर  खाने के पंडाल के पास तख्त पर प्रतियाँ बिक्री हेतु रखी थीं। खरीदी एक ने नहीं वहाँ इस नज़र से  देख जरूर  रहे थे फ्री में मिल जाती तो पढ़ लेते पैसे कौन खर्च करे  ।सगाई, शादी ,जन्मदिन, होटल में भी तो पैसे देते हैं। वहाँ से खा-खा कर चुपके से खिसक लिये। खाने की कीमत समझकर ही  पुस्तक ले जाते जबकि डेढ़ सौ रुपये की ही थी। अपनी लेकर बैठकर रोते हैं कोई खरीद नहीं  रहा । नहीं सोचते जैसे हम हैं सब ऐसे ही तो हैं। उसने मेरी नहीं खरीदी उसकी क्यों ख़रीदूँ।”
“किसी भी बात का अदला बदला थोड़े है नारद । “
प्रभु ऐसे कई सीन देख चुका  हूँ। जबकि वहाँ  पुस्तक उत्कृष्ट भी थी , बड़े राइटर की ही थी। रेत की समाधि का अगर पीडीएफ होता जाने कितने पढ़ चुके होते। कोई टिप्पणी  तक नहीं कर  रहा मतलब कुछ तो गड़बड़ है। गड़बड़ एक सही रैंकिंग  ग्रुप वाले ने कुछ बड़े लेखक लेकर सभी उत्कृष्ट लेखकों का पत्ता साफ कर दिया है। अपने ग्रुप के नाम टॉप पर पहुंचाने हेतु ये सब लिस्ट निकाल रहे हैं। 
कुछ लेखक तो सब के पीडीएफ लेकर बाँट रहे हैं कहते हैं  कल को ऊपर वाले के दूत आकर बोले चल तेरा टाइम हो गया तो क्या कर लेंगे? प्रकाशक उन्हें  बोला हमारे खिलाफ काम कर रहे हो जब पहले ही पीडीएफ बांट  देते हो कौन खरीदेगा? भला पुस्तक पढ़ने के लिए बनवाई है डंप करवाने के लिये नहीं।
पब्लिसिटी करना तो प्रकाशक का काम है अगर लाभ लेना है तो प्रचार प्रसार करे। जिनका प्रचार प्रसार करता है जरूरी तो नहीं उन्हें  कोई पढ़ता हो? हर आदमी की उम्र लंबी तो  नहीं होती “प्रभु,  एक बोला आजकल तो किसी का जवान  एक पल का भरोसा नहीं  जीने को कोई सौ साल भी जी जाये। सो हम तो खुद को समेट- निपटा रहे हैं। हमारे बच्चे कमा रहे हैं। काबिल हैं। अति व्यस्त भी हैं। वे हमारे बाद कुछ भी मैनेज नहीं करेंगे जानते हैं ।”  
यह  मेरी कानों सुनी- देखी बात है। करोडों किताबें बन रही  हैं मगर फेसबुक के अलावा  दिख कहीं नहीं रहीं हैं…  कहीं हैं भी नहीं  पुस्तक मेले में भी जो बिकी नहीं  थोड़ी बहुत बन चुकी  वही दिखती हैं  प्रभु ।”
गलतफहमियों का कोई इलाज नहीं है  नारद। आजकल डिजिटल प्रिंटिंग से तुरंत बन जाती हैं। जितनी डिमांड उतनी प्रतियाँ।”
प्रभु ! मेरे पास आई लगभग हर किताब पढ़ता  हूँ। अगर वे न आयीं होतीं  तो न पढ़ पाता। आई-साइट वीक वाले पीडीएफ मोबाइल पर नहीं पढ़ पाते।बा की जो ठीक हैं लेपटॉप यूज करते हैं, जिन्हें पढ़नी  पढ़ लेते हैं।
 वसे भी कुछ  किताबें तो  खण्डकाव्यों के अतिरिक्त पहले थोड़ी-थोड़ी  छपती जाती हैं फिर उन्हें बटोरकर किताब बनवाते हैं  या किताब बनने के बाद थोड़ी-थोड़ी छप जाती हैं। जो नहीं छप पाती वे कोई पढ़ना चाहे तो  पीडीएफ में पढ़ी जा सकती हैं। 
लेखन में तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी के अलावा  कोई सहयोगी नहीं है। कुछ कहीं आ-जाकर कुछ मैनेज नहीं कर पाते हैं लिखते उत्कृष्ट हैं वे बेचारे पीछे धकेल दिए जाते हैं । “ऊपर एक गेंग बन गया वह सारे पुरस्कार मैनेज कर रहा हैं । शरीफ महिलाएँ बेचारी उत्कृष्ट लिखने के बाद भी घाटे में हैं कैसे परिचय बढ़ाएं।जो पहले से किसी पद स्तर पर वे तो  संबंधों का लाभ झटक  ले गई हैं।
“प्रभु! इनका कुछ करो पुरस्कार सम्मान के लोभ में ये खरपतवार की तरह उग रहे हैं हर तीसरा व्यक्ति लेखक बन गया है।”
नारद बेरोजगारी भी इसका मुख्य कारण है  खाली बैठा फ्रस्टेटड व्यक्ति,  रिटायर व्यक्ति, जबरदस्ती हाउसवाइफ बना दी गई औरतें, शाही असफल पुरुष औरतें इस काम पर लग जाते हैं”
प्रभु ! शाही असफल क्या होता है?
नारद जो व्यक्ति कुछ जीवन में विशेष चाहा कर नहीं पाता  वह  सोचता है वह बहुत काबिल है उसे समाज ने,  परिवार ने कुछ करने नहीं दिया। वह लिखने लगता है। यहाँ  सरकारी पुरस्कार नहीं मिल पाते तो वह कुंठित हो जाता है।
नारद ! “सरकारी बड़े पुरस्कार बढ़िया लिखने से ही नहीं मिलते परिचय  संबंध  भी हों तब  मिलते हैं।” 
मगर उपाय क्या प्रभु?
उपाय कुछ नहीं इंसान को कोई सुधार नहीं सकता। इंसान बनाकर मैं खुद परेशान हूँ मैंने कितना शातिर धूर्त फ्राड जीव बना दिया है।
प्रभु फिर चिंता में डूब गए।

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