Saturday, July 27, 2024
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डॉ. मुक्ति शर्मा की दो कविताएं

1 – पिता ज़िन्दगी है
पिता शब्द इन्सान की ज़िन्दगी को सुनहरी बना देता है
पिता ख़ुद भूखे रहकर बच्चों को खिला देता है।
पिता बच्चों को हैवान से इंसान बना देता है
पिता निर्जीव जीवन में जीने की लौ देता है।
पिता बच्चों को मुसकुराता देख खुद मुसकुरा देता है
पिता बच्चों की खुशी के लिए खुद को मिटा देता है।
पिता अपनी जवानी बच्चों पर न्योछावर कर देता है
खुश किस्मत हैं वह लोग जिनके
सिर पर पिता का हाथ होता है।
बदकिस्मत हैं वे लोग जिनके पास
सिर्फ पिता शब्द का एहसास होता है
पिता का ना होना जिंदगी को बदरंग बना देता है।
आंखें तो खुली रहती हैं आंसुओं का निकलना आम बना देता है।
पिता बच्चों की जिंदगी में लौ जगा देता है
पिता डूबती हुई किश्ती को पार लगा देता है।
पिता शब्द इन्सान की ज़िन्दगी को सुनहरी बना देता है।
2 – हाय रे बुढ़ापा
जिंदगी का पड़ाव ऐसा आया
मैं ख़ुद उठकर नहा भी नहीं पाता हूं।
अब बच्चों के सहारे जिया करता हूं
सामने लाए रोटी पानी तो पिया करता हूं।
अगर दो बातें प्यार से करें तो मुसकुरा दिया करता हूं
टूटा चश्मा ठीक करवा दे तो कभी-कभी किताबें भी पढ़ लिया करता हूं।
अगर प्यार से बेटा गले लगाए तो रोम-रोम से दुआ दिया करता हूं
अगर बहुत साफ़-सुथरे कपड़े पहनाए तो गुणगान किया करता हूं।
पोता अगर सहारा दे तो तन मन न्योछावर भर कर दिया करता हूं।
मेहमान आए घर में मेरे खुद को खुशनसीब मान लिया करता हूं।
फिर मैं भी उनसे थोड़ा सा बतिया लिया करता हूं।
अब तो दूसरों के सहारे जीते-जीते जिंदगी बसर कर लिया करता हूं।
ज़िंदगी का पड़ाव ऐसा आया मैं ख़ुद उठकर भी न नहा पाता हूं।
डॉ. मुक्ति शर्मा
डॉ. मुक्ति शर्मा
संपर्क - 9797780901
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