1-अधर में लटके हुए
तलाशती ,अपने-अपने घोंसले
हर ज़िंदगी
चारमीनारों से लेकर
धरती की रेतीली
भुरभुरी जमीन के कणों से
झाँकती,सहमी सी
कुछ न कह पाने –और
कुछ न सह पाने को
ओढ़ते-बिछाते
गीत के तरन्नुम सी
गुनगुनाते ,कभी कसमसाते
कभी खुद से भी छिपते-छिपाते
उड़ान के परों पर चुपके से बैठ
मन के आँगन में
संध्या-काल में
उतरती लालिमा सी तो
कभी उगते सूरज सी
कभी धुंध के गहरे साये में
कभी सूरजमुखी सी खिली
नम आँखों में मुस्कान समेटे
स्वयं से करती रहती है
बेईमानी —–
अधर में लटकता एक साया
दिल के हिंडोले में
झुलाता रहता ,इठलाता रहता
जैसे पेड़ के दो छोरों के बीच
पुरानी साड़ी के झूले में
झूलता है ,वह शिशु
जिसके माँ-बाप
कर रहे हैं जुगाड़
दो समय की सूखी रोटी का !!
2-इस प्रहर
इस प्रहर में
अँधेरी गुफ़ा से
पुकारते कुछ शब्दों ने
नींद के झँगले खटोले से
टूलते क्षणों को
उठाकर, अचानक ही
बैठा दिया है….
स्वप्न नहीं आते हैं
स्वप्नों की छाया भर
रहती है टहलती
अर्धनिद्रा से अधखुली आँखों में
बहुत बार खींचा है
किया है प्रयास
लाई हूँ खींच खींचकर छाया
बनाने के लिए एक पूरा स्वप्न
जिससे हो सकूँ आनंदित
अपने सिर को धरे
नरम सिरहाने पर….
मुस्कुरा सकूँ
सतरंगे सपने में
मस्तिष्क की नसों को
सुना पाऊँ लोरी…..
धड़कनों को उठने,गिरने दूँ
मद्धम गति से
छू पाऊँ पूरे स्वप्न को
लरजते अहसासों से
मुग्ध हो सकूँ उन पर
प्रातः काल के झुरमुट में
नव लजाती वधू सा
उठा घुँघटा,भर सकूँ
एक गहरी श्वाँस…..
रह सकूँ पूरे दिन तरोताज़ा
प्रेम रँगों को उँडेल सकूँ
मस्तिष्क की नसों में….
किंतु नहीं हो पाता ऐसा
बोझिल क्षणों से झाँकते हुए
कुछ झटोके करने लगते हैं बंद
कवायद कराते हुए फिर से
झँगोले खटोले में
ला पटकते हैं…..
एक पूरे स्वप्न से
आनंदित हो
चैन से सोने का स्वप्न
लटकता है
एक पूरी,ख़ुशनुमा
प्यारी, मुस्कुराती
सहर की प्रतीक्षा में
आँखों में मुँदे कुछ
धारदार प्रश्न
अटके रह जाते हैं….
लो,एक प्रहर और
बीतता जा रहा है..||..
3-एक शब्द भर ज़िंदगी
उन्होंने कहा था
ओखली में सिर डाल ही दिया
तो डरना क्या है मूसल से ?
विगत इतिहास के पन्नों को
पलटते हुए उसका पूरा शरीर
जाता है थर्रा
रोम-रोम में
कस जाती हैं नसें
विक्षुब्ध मन की तन्हाई
पलट देती है जैसे सारा
इतिहास,भूगोल
उसकी बंद आँखों के समक्ष
बदलता रहा है चोला
अनन्त बार
बदरंगी सलवटें
बनाती रहती हैं उसे
गांधारी
उसने ताउम्र कोसा है
उन लम्हों को जब
चढ़ा लिया था नकाब यूँ ही
एक समर्पिता सी वह
नाटक की बन पात्र
चढ़ा रही है ,तेवर अपने
एक शब्द भर के लिए
नन्हा सा शब्द ‘ज़िंदगी’
जो उसे कभी मिला ही नहीं
यद्धपि कितने प्रयत्न कर
वह आ खड़ी हुई थी
उसी आँगन में
जिसमें अचानक महसूसा था
उसने ज़िंदगी को —-
4 – बाजियाँ
लो,यह भी हो गया पूरा
सामने के ऊँचे से टीले से
दिखाई देता
मन का बीहड़
कल्पना के पंखों पर
उड़ने की करता कोशिश
उम्र की इस कगार पर
आकर लटक गया है
त्रिशंकु सा —
इतने सारे खेल खेलता
दिखाता पतले से तार पर
अपने करतबों को
उदर से लेकर मुख और
मुख से उदर की सीमाओं में
कैद कितने तमाशों से
रहा है जूझता
ज़िंदगी –क्या कम तमाशा थी
जो तमाशे में तमाशा करने का
काम थमा दिया गया उसे !
अश्वत्थामा हत:
उच्चारते हुए
कितनी बार
उसके होंठों पर
जम गई है पपड़ी
हवा का रुख ही गर्म है
कितनी बाजियाँ खेली होंगी भला
इस उम्र तक आते-आते
आवरण में लिपटे ,अंधों में
काणे राजा सी
उसकी बाज़ी ,रही राह ताकती
नहीं समझ पाया
वह तो पपड़ियाए होंठों को
नोचते ,उनमें भीनापन महसूसते
कब की हार चुका था
बाजियाँ अपनी
क्यों बेबात खड़ा है प्रतीक्षारत
जीवन के दोराहे पर—-!!
वाह क्या बात है। चारों कविताएं मन के अंदर देर तक स्पंदित होने वाली हैं। बहुत बहुत बधाई।
अधर में लटकता एक साया
दिल के हिंडोले में
झुलाता रहता ,इठलाता रहता
जैसे पेड़ के दो छोरों के बीच
पुरानी साड़ी के झूले में
झूलता है ,वह शिशु
जिसके माँ-बाप
कर रहे हैं जुगाड़
दो समय की सूखी रोटी का !!
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एक समर्पिता सी वह
नाटक की बन पात्र
चढ़ा रही है ,तेवर अपने
एक शब्द भर के लिए
नन्हा सा शब्द ‘ज़िंदगी’
जो उसे कभी मिला ही नहीं
यद्धपि कितने प्रयत्न कर
वह आ खड़ी हुई थी
उसी आँगन में
जिसमें अचानक महसूसा था
उसने ज़िंदगी को —- ****
बहुत गहन अभिव्यक्ति के साथ रचित रचनाएँ…. अभिनंदन….