Saturday, October 5, 2024
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गुलशन मधुर की कविताएँ (‛हम भी हैं (अमरीका के पुरुष कवि)’ पुस्तक से प्राप्त)

1- अनगढ़ बांस की बांसुरी
जाने क्यों कोई गीत नहीं बनता?
ज़िंदगी होठों से लग कर
कोई मिठास नहीं घोलती
अनगढ़ बांस की यह बांसुरी
कुछ नहीं बोलती।
अक्सर यों ही होता है
दर्द का विस्तार
जब सीमा से बढ़ जाता है
वह सिगरेट की राख की तरह
विस्मृति की ऐश ट्रे में झड़ जाता है
यह और बात है कि सांस धुआं-धुआं हो जाती है
और अंदर कहीं चुपके से उभरता कोई दाग
आपकी तिल-तिल घुलन का प्रतीक बन जाता है।
2 – मेरे गीतफूल
मेरे गीतफूल मुस्काना, कसम तुम्हें विश्वास की,
जीना जब तक प्राणों में, जलती हो बाती सांस की।
चाहे किसी लहर का झोंका तोड़े पिटी कगार को,
बगिया माली दे दे चाहे भटकी हुई बयार को।
पर इससे मानव मन का विश्वास कभी मरता नहीं, चाहे कितना छले बेबसी सांसों के व्यापार को।
कभी किसी से मत कहना तुम गाथा अपनी प्यास की,
मेरे गीतफूल मुस्काना कसम तुम्हें विश्वास की।
माना हर प्रभात के होठों पर फूलों का हास है,
और शाम के बोझिल मन का हर इक स्वप्न उदास है।
पर इस क्रम से सूरज की गति में अवरोध हुआ नहीं,
उसका काम सदा जलना है, जिसका धर्म प्रकाश है।
बीतेगा हर दिन, टूटेगी हर संध्या उच्छवास की,
मेरे गीतफूल मुस्काना, कसम तुम्हें विश्वास की।
दर्द बीज है, सिर्फ गीत का नहीं बल्कि उस आस का,
जिसकी हरियाली के सम्मुख झुके शीश मधुमास का।
जो अपनों को छोड़ चेतना के आंचल को थाम ले,
पलकों पर हर रुका अश्रु है साथी उस विश्वास का।
मेरे अंकुर उठो, बढ़ो छू लो सीमा आकाश की,
मेरे गीतफूल मुस्काना, कसम तुम्हें विश्वास की।
3 – मुलाकात
वह अब भी वही है
ज्यों की त्यों
सहज सस्मित, अनाहत
कथनी और करनी के अंतर से अनजान
दुनियादारी की मैल से अछूती
सौ-सौ सवालों के जवाब पूछती आंखों में
वही धुला उजाला
वही उत्सुक तलाश नई पगडंडियों की
जो कभी समतल हरियाली से
कभी कांटेदार झाड़-झंखाड़ से होती
किन्हीं स्वप्निल छोरों तक जाती हो ।
वह चेहरा
अब भी वही है
ज्यों का त्यों
सहज सस्मित, अनाहत
मौन का आश्वस्त
दिनों व महीनों और बरसों के पांवों के निशान
उस पर लकीरें नहीं बन गई हैं
न ही, व्यवहार की मलिनता ने
उसकी अमलता को छीना है।
बरसों की दूरी से
पल भर को नापता
दर्पण के उस पार से वह चेहरा
अपना हाथ बढ़ाता है
व्यवहार और दुनियादारी के अभिवादन की आदी
मेरी बोझिल उंगलियां
उठ नहीं पातीं
मैं दर्पण के आर-पार
स्वयं अपने से हाथ नहीं मिला पाता।

नाम – गुलशन मधुर
जन्म – फरवरी, 1941, पेशावर, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है।
शिक्षा – पंजाब विश्वविद्यालय, दिल्ली भारत
आप आरंभ में कुछ साल जबलपुर, मध्य प्रदेश में रहे। 1961 से आकाशवाणी, दिल्ली में उद्घोषक के पद पर 17 वर्ष काम किया। 1978 से ‘बॉयस ऑफ अमेरिका’, वॉशिंगटन, डी.सी. में प्रसारक और संपादक के रूप में कार्यरत रहे।
लेखनप्रकाशन – कविता से किशोरावस्था से ही आपको लगाव था। भारत और अमेरिका से प्रकाशित होने वाले पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताएं प्रकाशित होती रहती हैं। “होंठों पर चांदनी” काव्य संग्रह प्रकाशित है।
वॉशिंगटन में होने वाली साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों से आप सक्रिय रूप से जुड़े रहे।
संपर्क – गुलशन ‘मधुर’
4647 ब्रेंटलेघ कोर्ट एनांडेल, वर्जीनिया 22003 यूएसए
ईमेल – [email protected]
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2 टिप्पणी

  1. गुलशन जी की पहली कविता “अनगढ़ बाँस की बाँसुरी” अवसाद की कविता लगी आस्था जी को पढ़कर उनके बारे में जितना जाना है ,वे बेहद संवेदनशील लगे।
    इस कविता को पढ़कर समझ में आ रहा है कि कितना दर्द उनके अंतर में हैं।
    “अक्सर यों ही होता है
    दर्द का विस्तार
    जब सीमा से बढ़ जाता है
    सिगरेट की राख की तरह
    विस्मृति की ऐश ट्रे में झड़ जाता है।”
    पर कविता में बस दर्द का ही जिक्र है उस कारण का पता नहीं चला जो तिल-तिल कर दुख में डुबोकर नासूर की तरह पनपता रहा। वह अपना भी हो सकता है और प्राणी मात्र के लिये भी।कहते हैं कि सुख बाँटने से बढ़ता है और दुख बाँटने से कम होता है।

    रहीम कवि कहते हैं कि-

    रहिमन निज मन की व्यथा,
    मन ही राखो गोय ।
    सुनि हँसि लैंहैं लोग सब,
    बाँटि न लैहैं कोय।
    पर यह भी सही है कि कोई एक ऐसा मित्र जरूर होना चाहिए जिससे दिल की बात कह दो तो दिल हल्का हो जाये। अंतर की घुटन क्लेश देती है।
    गुलशन जी की दूसरी रचना गीत है। शीर्षक है- “मेरे गीतफूल”

    यह सिर्फ विश्वास का नहीं आशा और हौसले का गीत है।
    हमें ऐसा लगा कि पहली कविता के अनुरूप नकारात्मकता के अवसाद से बाहर लाने हेतु, आत्मविश्वास को जाग्रत करते हुए यह आत्मबोध, आशा और हौसले का गीत है।
    सूर्योदय !फूलों का हास है और शाम टूटे सपनों की उदासी की तरह, पर सूर्य के किसी कार्य में बाधा उत्पन्न नहीं होती। सूर्य का काम प्रकाश देना है। वह निरंतर गतिमान रहता है।इन सबसे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।कोई गतिरोध भी उत्पन्न नहीं होता।
    बहुत ही सुन्दर तरीके से आत्मविश्वास को जाग्रत किया है।
    मन तो है कि एक-एक पंक्ति की व्याख्या करें,लेकिन बहुत लंबा हो जाएगा फिर भी प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से हर निराश और उदासी से घिरे हुए व्यक्तित्व को हौसला देकर जगाने की कवि- मन की बेचैनी का रूपक है यह गीत।
    हमें ऐसे गीत बहुत प्रिय हैं। ऐसे गीत या रचनाएँ शैक्षिक दृष्टि से पाठ्यक्रम में सम्मिलित रहें ऐसी अनुशंसा रहती है हमारी। वर्तमान में तो इनकी बहुत जरूरत है।

    गुलशन जी की तीसरी कविता “मुलाकात” है इस कविता ने हमको बहुत उलझाया! हमने इस कविता को कई-कई बार पढ़ा। ऐसा नहीं है की कविता कठिन है, या शब्द संयोजन को समझने का संकट है ।बस कविता किसके प्रति संबोधित है इस संशय में ही हम अभी तक उलझे रहे। एक पल ऐसा लगता है कि शायद कोई कल्पना हो या फिर कोई अपना हो जो चला गया है और यादों में…..या फिर अपना आत्मालाप अपने स्वंय के प्रति संबोधन।
    “वह अब भी वही है ”
    यह स्त्रीलिंग के प्रति संबोधन है।
    “मैं दर्पण के आर-पार
    स्वयं अपने से हाथ नहीं मिला पाता।”
    ये पंक्तियाँ स्वयं की ओर इशारा करती हैं।
    काव्य कला में निपुण कविगण या तेजेन्द्र जी से इसके समाधान की अपेक्षा रखते हैं।
    इसमें कोई दो मत नहीं कि गुलशन जी एक बहुत मंजे हुए और सधे हुए बेहद संवेदनशील कवि रहे।
    इन कविताओं को पढ़वाने के लिए तेजेंद्र जी! आपका बहुत-बहुत शुक्रिया!
    वैसे आपने सही कहा था। हम गुलशन जी को नहीं जानते थे। पर अब काफी जान गए।

  2. सभी कवितायें अंतर्द्वंद्व को उजागर करती हैं। जैसा नीलम जी ने भी लिखा की अंतिम कविता में दिखती छवि स्त्री लिंग है। यदि वह लेखक की अपनी छवि है तो पुल्लिंग का प्रयोग अधिक उपयुक्त होता।

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