पुस्तक : उस शहर में हमारा घर लेखक : प्रकाश मनु प्रकाशक : लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली
संस्करण : 2023 पृष्ठ : 191 मूल्य : 260 रुपए
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अभी हाल में ही वरिष्ठ साहित्यकार प्रकाश मनु की कहानियों का नया संग्रह प्रकाशित हुआ है, ‘उस शहर में हमारा घर’। वैसे तो मनु जी चाहे बच्चों का साहित्य लिखें या वयस्कों का, उनके लेखन में एक ऐसा यथार्थ होता है जिसे उन्होंने अपने गहन जीवनानुभवों से प्राप्त किया है। इसीलिए उनकी कहानियाँ कई बार आत्मकथा या संस्मरणों के भी निकट चली जाती हैं। पर इससे उनकी कहानियों में निजत्व की एक अलग छाप भी आ जाती है, और यह इस संग्रह की कहानियों में भी नजर आती है। ‘उस शहर में हमारा घर’ संग्रह में कुल ग्यारह कहानियाँ हैं जिन्हें पढ़ने के बाद हम किसी कल्पनालोक में जाने के बजाय, यथार्थ के धरातल पर नित नए द्वंद्व और तनावग्रस्त स्थितियों में अपने को खड़ा पाते हैं। मनु जी की हर कहानी में कोई समस्या होती है तो उसके समाधान का संकेत भी कहीं न कहीं वहाँ मिल जाता है।
संग्रह की पहली कहानी है ‘उस शहर में हमारा घर’, जो इस संग्रह की शीर्ष कहानी भी है। इसमें कथावस्तु संक्षिप्त सी है। विजय और अनु जिनका विवाह हुए थोड़ा ही अरसा हुआ है, जब एक जगह रहने के लिए मकान किराए पर लेते हैं तो आस-पड़ोस वाले उनके बारे में तरह-तरह की बातें करने लगते हैं। बिना किसी को अच्छी तरह समझे, लोग उस पर अपनी छिछली धारणाएँ थोपकर अपनी तरफ से ही एक चरित्र का निर्माण करने लगते हैं। विजय और अनु नव दंपति होने पर भी हमेशा कर्मलीन रहते हैं और बड़ी सादगी से जीते हैं। शायद इसीलिए पड़ोस की औरतें सिर्फ अपने मनोरंजन के लिए कभी पति तो कभी पत्नी की बेचारगी जाहिर करती हैं। इसी तरह का एक संवाद जरा देखें :
“चाय अकसर आदमी ही बनाता है—मिसेज वर्मा ने पड़ोस की औरतों को बताया, कभी-कभी तो जूठे बरतन भी साफ करता है। सच, मुझे तो बड़ा तरस आता है…!” 
विजय और अनु सारे दिन पढ़ाई-लिखाई करते हुए, अपने आप में लीन होकर जीते हैं, इससे भी लोगों को खासी चिढ़ और परेशानी है। कहानी में सबसे मजेदार प्रसंग वह है जहाँ ठाकुर ज्ञानसिंह कथानायक विजय से पूछते हैं, “आप….आप कौन जात हैं?” यह प्रश्न हमारे समाज में पता नहीं कब से उठ रहा है और लोगों के बीच एक दीवार खड़ा करता रहा है। विजय जात-पाँत नहीं मानता और बहुत सटीक उत्तर देता है, “तो हरिजन समझ लीजिए।” 
विजय के इतना कहते ही वहाँ उपस्थित लोगों के मुँह से सदियों की घृणा और अंधविश्वास से जनमा एक गर्हित विचार निकलकर सामने आता है, “नहीं साहब, ऐसा मत कहिए। हरिजन तो बहुत गंदे होते हैं।” 
विजय बड़ी खिन्नता से उनसे पूछता है कि यह नतीजा आपने कैसे निकाला, तो उनके पास उसके प्रश्न का उत्तर नहीं होता। और अंत तक आते-आते कहानी बिन कहे बहुत कुछ कह देती है, “वे इस आदमी से ऊपरी तौर पर असहमत थे, पर भीतर उसकी सच्चाई और सवालों का जवाब नहीं ढूँढ़ पा रहे थे।”
‘यात्रा’ अविनाश और शुभा की प्रेम कहानी है, पर बिल्कुल अलग ढंग की प्रेम कहानी। अविनाश विश्वविद्यालय में शोधकार्य करते हुए, जीविका के लिए नौकरी खोज रहा है और नौकरी न मिल पाने के कारण वह खासा निराश है। दूसरी ओर शुभा और अविनाश एक-दूसरे को प्यार करते हैं, परंतु परंपरावादी परिवार में इस बात का खुलासा होने से डरते हैं। बार-बार यह सवाल उनके मन में टकराता है कि प्यार और विवाह के प्रसंग में उन्हें उतनी स्वतंत्रता क्यों नहीं प्राप्त है, जिसके वे अधिकारी हैं। 
अविनाश अपने प्यार को अपने जीवन का जरूरी अंश मानता है, परंतु वह पुराने, परंपरावादी विचारों वाले अपने माता-पिता का भी बहुत सम्मान करता है। इस कारण वह माँ को यह बताने में झिझकता है कि शुभा और वे विवाह करके एक साथ जीवन बिताना चाहते हैं। इस स्थिति में अविनाश को भीतर-भीतर बहुत कुछ झेलना पड़ता है। उसका बहुत कुछ टूट-टूटकर बिखर रहा है, पर यह शुभा का प्रेम ही है, जो कल की उम्मीद और आस्था बनकर उसे जोड़े हुए है। कहानी में अविनाश के अंतर्द्वंद्व को बहुत बारीकी से दर्शाया गया है।
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‘अंकल को विश नहीं करोगे’ संग्रह की सर्वाधिक प्रभावशाली कहानी है, जो पाठक के अंदर धँसती चली जाती है। कहानी एक ऐसे चरित्र को हमारे सामने प्रस्तुत करती है, जो देश, समाज, परिवार और आपसी संबंधों के बदलते आयाम पर सोचने को बाध्य कर देता है। एक अलग सोच वाला डॉक्टर अकेले परंपरा और आधुनिकता की सभी तरह की विसंगतियों से हमारा सामना करवा देता है। एक डॉक्टर की छवि आज ऐसी बन गई है जो मरीजों की भलाई के लिए नहीं, बल्कि केवल अपने लाभ के लिए काम करता है। कथावाचक कहता है, “…डॉक्टरों के बारे में मेरा अनुभव यह है कि उनमें से आधे से ज्यादा तो खुद बीमार होते हैं। चिड़चिड़े, घमंडी और एक किस्म के तानाशाह….!”   
सच तो यही है कि डाक्टरों के इसी लोभ, अहंकार और स्वार्थलिप्सा के कारण कभी भगवान की तरह माने जाने वाले डॉक्टरों को लोग अब धंधेबाज की तरह देखने लगे हैं। लेकिन इस कहानी का डॉक्टर कदम अलग किस्म का है। वह पैसा कमाने की अंधी दौड़ में शामिल नहीं है, बल्कि वह ऐसा डॉक्टर है जो बच्चों से प्यार करता है, पर उसके अपने बच्चे उससे घृणा करते हैं। उसकी पत्नी भी उसे नाकारा समझकर अपमानित करती रहती है। कथावाचक की पत्नी बताती है, “….लड़के बड़ा अपमान करते हैं बाप का। और माँ की पूरी शह रहती है। खुद रोज लिपिस्टिक-पाउडर बैठी रहती है दुकान पर। पति की कोई परवाह ही नहीं। मुझे लगता है, सब मिलकर उपेक्षा करते हैं जान-बूझकर…!”
ऐसा नहीं है कि डॉक्टर अपने इर्द-गिर्द की परिस्थितियों को समझता नहीं है। इसीलिए उसकी सीधी-सादी, बेलाग बातें पाठकों के मर्म को छू लेती हैं :
“अब लड़के आजकल के अपनी लिमिटेशंस तो देखते नहीं, एंबीशंस बहुत हैं। बड़ा वाला कहता है, कार ले दो। अब पी.एफ. का पैसा तो मैं कार में लगाने से रहा। मैंने कह दिया कि ‘काम फैलाओ। बचत करो। कार लायक पैसे हो जाएँ तो जरूर खरीदो। मगर यह भी देख लेना, पेट्रोल का खर्चा भी निकलता है कि नहीं…? क्यों साहब, लड़कों को स्वतंत्रता चाहिए तो अपने बाप की स्वतंत्रता पर हमला करके ही वे इसे हासिल करेंगे?”
अपने इन्हीं विचारों और कुछ अलग सी धुन के कारण परिवार के लिए डॉक्टर एक तरह से बेकार की चीज बनकर रह जाता है। परिवार की उपेक्षा के शिकार डॉक्टर को देश और समाज की चिंता भी सताती है :
“यह देश, यह कंट्री कैसे चलेगा…बताइए, आप जरा? जब लोगों की नैतिकता का यह हाल है। ये जो नेता हैं, चोर हैं ससुरे! ये मरवा देंगे सबको, मैं आपसे ठीक कहता हूँ। यह देखिए, एक ओर सरकार ने योजना बनाई है कि जो डॉक्टर अपना नर्सिंग होम खोलना चाहे, उसे दस लाख तक का अनुदान मिल सकता है। दूसरी ओर ये नेता! मैं आपको बताता हूँ मनु जी, कि आजकल तो मंत्री तक सीधे-सीधे रिश्वत माँग रहे हैं, कैन यू इमेजिन?”
यह कहानी हमारे सामने यह बात रखती है कि आज के भौतिकवादी युग में किसी रिश्ते का कोई महत्त्व नहीं है, बल्कि पैसा सबसे बड़ी चीज हो चुकी है। पी.एफ. के पैसों के लिए पत्नी और बच्चे डॉक्टर की पिटाई कर देते हैं और उसे बेहोशी का इंजेक्शन देकर घर से बाहर निकलना ही बंद कर देते हैं। डॉक्टर को जानने वाले भी यह अच्छी तरह समझते हैं कि घर वाले उसके पी.एफ. का पैसा लेने के बाद क्या करेंगे :
“खबरदार डॉक्टर! पी.एफ. का पैसा नहीं देना। जो इस समय तेरे साथ जानवर की तरह पेश आ रहे हैं, वे बाद में तो…! तब तू भिखारी हो चुका होगा डॉक्टर। और भिखारी को कौन पूछता है, चाहे वह पिता हो, पति हो, कोई भी!” 
यह कहानी आज के समाज के एक कड़वे सच को ऐसे ढंग से प्रस्तुत करती है कि हमारा दिमाग सुन्न हो जाता है और हम अपने और अपने संबंधों के बारे में गहराई से सोचने लगते हैं। 
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‘आखिरी सलाम’ इस संग्रह की ऐसी मार्मिक कहानी है जो कहने को तो एक कुत्ते के बारे में है, परंतु यह कहानी हमें यह बताती है कि कोई जरूरी नहीं कि आदमी का गहरा संबंध आदमी से ही हो। पहले भी ऐसी कहानियाँ लिखी गई हैं जो मनुष्य और पशु-पक्षियों के आपसी संबंधों पर आधारित हैं, पर यह कहानी कुछ लीक से हटकर है। 
हुआ यह कि पति-पत्नी को एक दिन लावारिस और घायलावस्था में एक पिल्ला मिलता है जिसकी जान खतरे में है। पत्नी उस पिल्ले को बचाकर अपने घर ले आती है। उस पिल्ले का नाम रखा जाता है, ‘कुनु’। यह कुनु धीरे-धीरे पति-पत्नी के जीवन का हिस्सा बन जाता है। जैसे घर में एक बच्चे की उपस्थिति से तरह-तरह की घटनाएँ घटती हैं और उसकी क्रीड़ाओं से घर भर जाता है, वैसे ही कुनु के रहते स्थितियाँ बनती-बिगड़ती हैं। प्यार करना, रूठ जाना, मान-मनौवल, गुस्से के बाद का पश्चात्ताप आदि सारी स्थितियाँ और भावनाएँ कहानी में तरह-तरह से उभरती हैं और कहानी को गति देती हैं। कुनु इस कहानी का नायक है और वही उन सबके केंद्र में हैं।
कुनु यदि जीवित रहता तो शायद कहानी किसी और रास्ते पर ले जाती, पर कुनु अचानक बीमार हो जाता है और धीरे-धीरे मृत्यु की ओर बढ़ते कुनु को देखकर कथावाचक के भीतर जो तड़प उठती है, वह इस कहानी को बहुत मर्मांतक बना देती है। उसका लगाव उस छोटे से नटखट कुत्ते कुनु से कितना गहरा है, इसका पता लगता है उसके मरने के बाद घर में चारों तरफ से उठती इस शोकधुन से :  
“संगीत फिर उठ रहा है। दिशा-दिशा मे फैलता धीमा मगर भर्राया हुआ संगीत। और उसमें एक बाप का अपने बेटे को खो चुके अभागे बाप का रोना भी शामिल है!” 
कहना न होगा कि इस कहानी को पढ़ने के बाद पाठक का मन भी उसी तरह विकल होकर तड़पता है, जैसे कि उस कुनु के अभागे बाप का करुणार्द्र मन!
‘जादू’ भी कुछ ऐसी ही कहानी है जो मनुष्य और पक्षियों के संबंधों को हमारे सामने उजागर करती है। बहुत से पशु-पक्षी हमारे आसपास रहते हैं परंतु उनके जीवन-मरण, खुशी, आनंद-किल्लोल और क्रंदन पर हमारा ध्यान शायद ही जाता हो। पर ‘जादू’ कहानी का छोटा सा बच्चा नंदू अपने घर में बने चिड़ियों के घोंसले के साथ-साथ चिड़ियों के सुख-दुख और उत्सुकता भरे संसार के बारे में बहुत कुछ सोचता रहता है। चिड़िया कहाँ जाती है, कैसे खाती-पीती है, कैसे अपने लिए घोंसला बनाती हैं, उनके बच्चे कैसे पलते हैं, कैसे वे अपनी और अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए हर पल विकल और चिंतित रहती हैं, यह सब नंदू की नजरों में रहता है। 
यहाँ तक कि वह अपने दोस्तों के साथ भी बहुत उत्साहित होकर इसकी चर्चा करता है। दोस्त नंदू के व्यवहार में आए इस बदलाव को लेकर उसका मजाक भी उड़ाते हैं। पर नंदू क्या करे? वह अपने आँगन में घोंसला बनाने वाली चिड़िया और उसके बच्चों के बारे में सोचे बगैर रह ही नहीं सकता। यहाँ तक कि वह मम्मी से इस बात के लिए डाँट भी खाता रहता है, पर सोते-जागते चिड़िया और उसकी नन्ही सी भोली दुनिया ही उसकी आँखों में झिलमिलाती सी रहती है।
फिर कुछ दिन बाद जब चिड़िया का एक बिल्कुल छोटा सा बच्चा घोंसले से नीचे गिर जाता है तो नंदू उसकी जान बचाने के लिए सुबह से शाम तक बिना कुछ खाए-पिए क्या-क्या जतन करता है, और किस कदर विकल होकर उसकी हर बात की चिंता करता है, देखकर पाठक भी विभोर हो उठता है। यहाँ तक कि नंदू की मम्मी जब दफ्तर से आती हैं, और उन्हें इस बात का पता चलता है, तो वे न सिर्फ उस छोटे से चिड़िया के बच्चे को बड़ी नरमाई से हथेली पर उठाकर उसके घोंसले में रख देती है, बल्कि उन पलों में किसी जादू के जोर से नंदू की तरह ही एकदम अपने बचपन में जा पहुँचती हैं। 
तब उन्हें वह चिड़िया का बच्चा मस्ती से पंख खोलकर आसमान में उड़ता हुआ नजर आता है, जो नजरों से दूर होते हुए बड़े कृतज्ञ स्वर में बोलता है, ‘थैंक्यू नंदू, थैंक्यू मम्मी!’ कहानी का यह भावनात्मक दृश्य हृदय को छू जाता है। 
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संग्रह की एक ओर महत्त्वपूर्ण कहानी है ‘जोशी सर’, जो गुरु-शिष्य के संबंधों के नए आयाम खोलती है। इस कहानी का कथावाचक परेश एक आदर्शवादी युवक है और जोशी सर एक योग्य और सिद्धांतों पर चलने वाले शिक्षक। जोशी सर परेश को बहुत प्यार करते हैं और परेश के मन में भी जोशी सर के लिए बड़ा आदर और सम्मान है। पत्रकारिता की नौकरी कर रहे परेश को अचानक बरसों बाद जोशी सर के निधन का समाचार मिलता है तो वह उनके साथ बिताए पलों की याद में खो जाता है। सच तो यह है कि जोशी सर ने परेश के जीवन पर बहुत गहरा असर डाला है। उनके कहे हुए शब्द और मार्मिक बातें वह कभी नहीं भूल पाया। उसे याद है कि जब जोशी सर को पता चला कि परेश ने पत्रकारिता में जाने का निर्णय किया है, तो उन्होंने पत्र में उसे ये शब्द लिख भेजे थे : 
“देखो भाई, हमेशा जो लीक छोड़कर चलते हैं, वे ही जिंदगी में कुछ कर पाते हैं। पर हाँ परेश, एक बात जरूर ध्यान रखना। लीक छोड़कर उसी को चलना चाहिए, जिसमें नई लीक बनाने का हौसला और उसके लिए बड़ी से बड़ी तकलीफें झेलने का माद्दा हो।”
कहानी का सबसे रोचक प्रसंग वह है जिसमें जोशी सर एक छोटी सी गलती के लिए कक्षा के सभी बच्चों को दंड देने के लिए मुर्गा बनने को कहते हैं। लेकिन परेश अपने सर्वाधिक  प्रिय शिक्षक से इस बात को लेकर भिड़ जाता है। उसे लगता है कि मुर्गा बन जाने का आदेश सही नहीं है और वह किसी भी हालत में मुर्गा नहीं बनेगा। वह जोशी सर से कहता है कि “आप मुझे मार लीजिए, पर मैं मुर्गा नहीं बनूँगा।” जोशी सर इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं, पर परेश भी झुकने को तैयार नहीं होता।
अंत में जोशी सर एक रास्ता निकालते हैं कि यदि कक्षा के सब बच्चे कह दें कि परेश को छोड़ दीजिए, तो वे छोड़ देंगे। और यह सुनते ही कक्षा के सभी बच्चे परेश का साथ देते हुए एक साथ चिल्ला पड़ते हैं कि “छोड़ दीजिए सर, छोड़ दीजिए….छोड़ दीजिए।” 
परेश के लिए यह बहुत भावाकुल कर देने वाला क्षण है। वह सोचता है कि उसकी जीत तो हुई है, पर यह जीत उस अध्यापक पर हुई है जिसे वह जी-जान से चाहता है। कहानी में जोशी सर के और भी बहुत से प्रसंग है, जिनसे पता चलता है कि अपने शिष्यों की भलाई के लिए वे अपना सब कुछ लुटा देना चाहते हैं। उनका पढ़ाना गजब का था, और गुस्सा भी। पर फिर भी उनकी आँखों से बच्चों के लिए हर क्षण प्यार झरता था। कहानी में जोशी सर के अंतिम दिनों के प्रसंग भावुक कर देने वाले हैं।
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संग्रह की सबसे अलग, बल्कि विलक्षण और बड़ी नाटकीय सी कहानी है, ‘एक सुबह का महाभारत’। यह एक लेखक के मन में अपनी रचना को लेकर चल रहे गहरे अंतर्द्वंद्व की कहानी है, जो साथ ही साथ उसके दांपत्य के खटमिट्ठे अनुभवों की कहानी भी बन जाती है। लगता है मनु जी ने इस कहानी में हलकी सी गंभीरता की ओट में एक लेखक के जीवन की बड़ी ही व्यंग्यात्मक स्थितियों को उकेरा है। 
होता यह है कि लेखक महाशय के मन में कोई नई कहानी चल रही है, मगर सामने उपस्थित रोजमर्रा के काम भी उन्हें करने ही हैं, वरना घर कैसे चलेगा? लिहाजा पति-पत्नी के बीच खासा प्रेम होते हुए भी छोटी-छोटी बातों में खटपट-सी होती रहती है। एक लेखक के मन में जब कुछ रचने की ललक पैदा होती है, तो वह थोड़ी देर के लिए अपने आसपास की दुनिया को भूल जाता है और उस संभावित रचना को मन ही मन बुनता हुआ, उसी के खयालों में डूब जाता है। चंद्रकांत और सुधा इस रचना-कर्म से उपजे महाभारत के पात्र बन जाते हैं और बड़ी विचित्र तूतू-मैंमैं की रचना होने लगती है। गुस्से के मारे पैर पटकता चंद्रकांत जब सुधा के सामने आता है, तो उसका गुस्सा यकदम गायब हो जाता है और वह मान लेता है कि सुधा के आगे उसकी एक नहीं चल सकती। इसलिए कि यह घर तो आखिर सुधा की बदौलत ही चल रहा है।
इसी तरह गुस्से से चंद्रकांत जब साइकिल लेकर बाहर निकलता है और सुधा उसे बार-बार पुकारती है तो वह अनसुनी कर देता है, परंतु थोड़ी देर बाद ही उसका गुस्सा गायब और वह घर के अंदर होता है। सुधा अपने पति की रग-रग को पहचानती है और कहती है, “मुझे पता था, मुझे पता था कि तुम आओगे।” 
कहानी के अंत में बिना कुछ कहे रूठने-मनाने के इस खेल में दांपत्य प्रेम की कुछ ऐसी सरस बूँदें चू पड़ती हैं, जो पाठकों के मन और आँखों को भी भिगो देती हैं।
संग्रह की कहानी ‘उस कस्बे की अचरज कथा’ में एक बिल्कुल भिन्न दुनिया है। इसमें विद्यालयों में पढाई-लिखाई के नाम पर चल रहा एक विचित्र गोरखधंधा है, जिसने शिक्षा को मजाक बना दिया है। विद्यार्थियों के साथ तो यह धोखा है ही, जिन्हें कॉलेज में पढ़ने के साथ-साथ ट्यूशन के लिए भी बाध्य किया जाता है, जिसमें पैसे और वक्त की बेहिसाब बर्बादी होती है। कहानी शिक्षकों का ऐसा विरूप हमारे सामने प्रस्तुत करती है, जिसमें न कहीं कोई आदर्श है और न अपने कर्तव्य पालन की जिम्मेदारी। कहानी में जिस कसबे का चित्रण किया गया है, उसमें प्रियरंजन, प्रशांत गोडबोले जैसे बहुत सारे शिक्षक केवल दिखावे के लिए विद्यालयों में नौकरी करते हैं और उस पद का उपयोग करके लड़कों को अपने-अपने घर पर ट्यूशन पढ़ाकर मोटी कमाई करते हैं। लालच के इस गोरखधंधे में वे इस कदर खोए हुए हैं कि आगे-पीछे कुछ और सोच ही नहीं पाते। 
मजेदार बात यह है कि इस धंधे में सब के सब शामिल हैं। अध्यापक से लेकर प्रधानाध्यापक तक सभी शिक्षा-जगत की इस कुरीति के भागीदार हैं। यदि कोई शिक्षक इस ट्यूशन पढ़ाने वाली बात का विरोध करता है तो उसका मुँह बंद कर दिया जाता है। एक शिक्षक कहता है, “मगर नैतिकता, फर्ज…..? आखिर कुछ तो….?” उसको उत्तर मिलता है, “सब बातें हैं यार, सिर्फ तुम्हारे जैसे चुगद लोगों को बहकाने के लिए।” 
यही नहीं जब वह शिक्षक विद्या के मंदिर में चल रहे इस अनैतिक कार्य के विषय में पूछता है, “एक बात बताइए, प्राचार्य जी कोई ऐतराज नहीं करते?” तो उसे उत्तर मिलता है, “जनाब, आप किस दुनिया में रहते हैं? उनका हिस्सा बँधा-बँधाया है। साल के आखिर में पहुँच जाता है। वे भला क्यों ऐतराज करेंगे?” 
इसके बाद कुछ और कहने की गंजाइश नहीं रह जाती। हाँ, मनु जी की इस कथाशैली की जरूर तारीफ करनी होगी, कि वे सीधे-सीधे कुछ नहीं कहते, बल्कि छोटी-बड़ी हर बात को किस्सागोई के रंग में ढाल देते हैं। कहानी के पात्र भी ऐसे हैं कि उनकी भंगिमाएँ बिना कुछ कहे, सब कह देती हैं।
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संग्रह में दो लंबी कहानियाँ हैं, ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ और ‘मिसेज मजूमदार’। ये दोनों ही अपने दिलचस्प चरित्रों के कारण याद रह जाती हैं। इनमें ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ यूनिवर्सिटी के एक चपरासी लीलाराम को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानी है। पर लीलाराम के चरित्र में इतना आकर्षण और ऊँचाई है कि अच्छे-अच्छे चरितनायक भी उसका मुकाबला नहीं कर सकते। यह कहानी कथानायक भास्कर को लगभग तीन दशक पूर्व बिताए कठिन संघर्ष और गर्दिन के दिनों की ओर लौटाकर ले जाती है। वर्षों पूर्व विश्वविद्यालय में शोध करते समय एक चपरासी लीलाराम से भास्कर और उसकी पत्नी सुप्रिया की बड़ी आत्मीयता हो जाती है। लीलाराम का बेटा महिपाल उस समय बहुत छोटी उम्र का था, और पढ़ाई में उसे बहुत मुश्किल आ रही थी। क्लास में रोज अध्यापकों की डाँट पड़ती। ऊपर से फेल हो जाने का डर भी। ऐसे में भास्कर तथा सुप्रिया उसकी पढाई में बहुत सहायता करते हैं। समय आगे सरकता जाता है और कोई तीस साल बाद महिपाल भास्कर से मिलने आता है और अपना परिचय देता है तो यादों का एक बड़ा सा पिटारा खुल जाता है। लीलाराम की याद से विह्वल भास्कर मानो इसके साथ ही अतीत के समंदर में गोते लगाने लगता है। ऐसे में लीलाराम की इतनी अद्भुत स्मृतियाँ उसके मन में तैरने लगती हैं, कि लगता है, मानो लीलाराम के उदात्त चरित्र पर हम कोई संजीदा फिल्म देख रहे हों। कोई मामूली समझा जाने वाला आदमी भी जीवन में कितनी बड़ी भूमिका निभा सकता है, इसे यह फिल्म देखकर समझा जा सकता है।
‘मिसेज मजूमदार’ कहानी की नायिका पूर्णिमा मजूमदार कहीं अधिक जटिल शख्सियत हैं, जिनकी मर्मव्यथा धीरे-धीरे खुलती है और अंत तक आते-आते एक शोकाकुल कर देने वाले करुण संगीत में बदल जाती है। शुरू में मिसेज मजूमदार एक ऐसी कठोर और कर्कश महिला के रूप में सामने आती हैं जिसकी छवि बहुत खराब और अप्रिय है। आसपड़ोस के लोग उसके व्यवहार से इतना तंग हो जाते हैं कि उसका नाम ही ‘ताड़का माई’ रख देते हैं। मिसेज मजूमदार सबसे लड़ती रहती हैं और बच्चों तक को मार-पीट देती हैं। इस कारण उससे सभी लोग दूर ही रहना चाहते हैं। यहाँ तक कि मिसेज मजूमदार को उनके अपनी परिवार में भी एक खलनायिका की तरह ही देखा जाता है। ऐसे में जब एक दिन श्यामला अपने पति अक्षय को बताती है कि मिसेज मजूमदार उतनी बुरी नहीं हैं जैसी उसकी छवि बनी हुई है, तो अक्षय आश्चर्यचकित रह जाता है।
कहानी के उत्तरार्ध में श्यामला गहन संवेदना और सहानुभूति से भरकर मिसेज मजूमदार को देखने-समझने की कोशिश करती है, तो उसे समझ में आता है कि मिसेज मजूमदार तो अंदर से टूटी हुई एक नितांत अकेली स्त्री हैं, जो घर हो या बाहर, बस थोड़े से प्यार के लिए तरस रही हैं और अनजाने ही और-और अकेली और जर्जर होती जाती हैं। कहानी के अंत में मिसेज मजूमदार मानो देखते ही देखते एक दुःस्वप्न में बदल जाती हैं। वे दूर-दूर तक गरम जलती रेत और बियाबानों से घिर गई है और कातर होकर पुकारती हैं—‘पानी. पानी…!’ और मानो इसी आकुल प्यास के साथ वे एक दिन इस दुनिया से विदा लेती हैं।
संग्रह की अंतिम कहानी है, ‘एक बूढे़ आदमी के खिलौने’। अपने जीवन के उत्तरार्ध में जी रहे रमाकांत सहाय के अकेलेपन और परिजनों की उपेक्षा के बीच से गुजरती है यह कहानी, और धीरे-धीरे एक उदास धुन में बदलती जाती है। सब कुछ होते हुए भी जब आदमी अंत में अकेला रह जाता है तो उसके मन की पीड़ा समझने वाला शायद ही कोई होता है। यों ऐसा भी नहीं है कि रमाकांत सहाय के बुढ़ापे में उनका साथ देने वाला कोई और न हो। उनका छोटा बेटा उन्हें अपने साथ लेकर जाना चाहता है, परंतु रमाकांत सहाय का मन घर छोड़ने को तैयार नहीं होता। वे कथावाचक से इस प्रसंग की चर्चा करते हुए कहते हैं :
“मैने पल भर सोचा भी, पर नहीं, बाबू जी, मेरा मन नहीं हुआ। जिस शहर में अपनी जड़ें हैं, उसे छोड़कर जाना?…आप देखो, यहीं खेला-कूदा, बचपन गुजारा। शादी हुई, बच्चे हुए। उन्हें पढ़ाया-लिखाया, बड़ा किया। फिर यहीं घरवाली की यादें हैं साहब, घर के चप्पे-चप्पे में!…नहीं बाबू जी, नहीं!” 
समस्या यह भी तो है कि बच्चे जब दूर-दूराज के शहरों में नौकरी करने लगते हैं तो बार-बार अपने माता-पिता से मिलने जाने या उनके लिए कुछ कर पाने का पर्याप्त समय भी उन्हें नहीं मिल पाता। ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि रमाकांत सहाय घोर अकेलेपन में अपने पोते द्वारा दिए गए खिलौनों से खेलकर मन बहलाते हैं। भले ही देखने वालों को यह अटपटा या हास्यास्पद लगे, पर उनके लिए तो यही जीने का बहाना है, जिसके सहारे वे जैसे अपने बचपन में पहुँच जाते हैं, और पुरानी स्मृतियों के सहारे फिर से जिंदगी के सपने बुनने लगते हैं।
इस कथा-संग्रह की लगभग सभी कहानियाँ वर्तमान में रहकर अतीत से टकराती हैं। हर पात्र अपने बीते दिनों की यादों में रह-रहकर यात्रा करता है और उन दिनों के सुख-दुख में खोया हुआ, फिर से नए-नए रूपों में उस अतीत की पुनर्रचना करने की कोशिश करता है।
इसके साथ ही इन कहानियों में पारिवारिकता और आपसी संबंधों की बड़ी मीठी सुवास है, जो पाठक को भी रिझाती हुई, आत्मीयता के एक सुखद घेरे में ले लेती है। सबको एक साथ जोड़कर रखने वाले एक पतले से धागे की उपस्थिति मनु जी की प्रायः सभी कहानियों में है, भले ही समय की चोटें झेलते हुए वह कितना ही छीज क्यों न गया हो। एक भावुक और सहृदय सर्जक के रूप में वे आज के जमाने के साथ-साथ शायद गुजरे जमाने को भी साथ लेकर चलना चाहते हैं। यही कारण है कि उनकी कहानियों की दुनिया में भी नए के साथ-साथ बहुत सा पुराने जमाने का राग-अनुराग भी है, जिसे वे कतई छोड़ना नहीं चाहते। इसीलिए उनकी कहानियों में एक अलग सा तनाव भी है, और बहुत कुछ ऐसा भी, जिसे भावुकता, रोमानियत या अतीत मोह कहकर पिंड छुड़ा लिया जाता है, पर जीवन शायद इसके बिना पूरा नहीं होता। ये कहानियाँ वर्तमान की चुनौतियों का मुकाबला करती हैं, पर केवल वर्तमान की चौहद्दी में रह पाना उन्हें गवारा नहीं।
शायद इसीलिए मनु जी का कथाकार औरों से अलग है, और उनकी कहानियाँ भी। पर यह उनकी कहानियों की एक अलग शख्सियत या पहचान है, कमजोरी नहीं। इसीलिए पाठक उनके पात्रों के सुख-दुख से बँधे उनकी कहानियों के साथ बहते चले जाते हैं। इतना ही नहीं, संग्रह को पढ़ लेने के बाद भी प्रकाश मनु जी की कहानियाँ और उनके पात्र लंबे अरसे तक हमारे भीतर दस्तक देते रहेते हैं। यही शायद इन कहानियों की सफलता भी है।

सुरेश्वर त्रिपाठी
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एक जुलाई सन् 1956 को गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) के एक गाँव बाने में जनमे सुरेश्वर का पठन-पाठन वाराणसी में हुआ। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए., पी एच-डी तथा मास्टर आफ जर्नलिज्म।
यायावरी वृत्ति के चिंतक, कवि, कथाकार, प्रखर पत्रकार, छायाकार। अपनी पत्रकारिता और लेखन के साथ ही अत्यंत प्रकृति-प्रेमी और पक्षियों के छायाकार के रूप में प्रसिद्धि। 1980 के आसपास वाराणसी के दैनिक ‘आज’ से पत्रकारिता जीवन की शुरुआत। बाद में ‘दैनिक जागरण’, ‘राष्ट्रीय सहारा’ से भी जुड़े। दिल्ली की एक हिंदी पत्रिका का संपादन भी किया (1990)। पत्रकारिता में व्याप्त भ्रष्टाचार की अनदेखी के कारण 1993 में वाराणसी से भ्रष्ट पत्रकारों के खिलाफ आंदोलन के रूप में ‘काशी प्रतिमान’ नामक पाक्षिक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। इस आंदोलन के समर्थन में डॉक्टर रामविलास शर्मा, कमलेश्वर, प्रकाश मनु जैसे अनेक बड़े लोगों का सहयोग मिला। ‘काशी प्रतिमान’ के पाँच साहित्यिक विशेषांकों का संपादन। धूमिल विशेषांक के अतिथि संपादक कमलेश्वर रहे।
1980 के बाद से ही देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न विषयों पर निरंतर लेख प्रकाशित। साथ में कविताएँ और कहानियों भी। देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में छायाचित्रों का भी प्रकाशन। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी भवन में ‘कैमरे के गाँव में’ छायाचित्र प्रदर्शनी शुरू की गई, जो कई अन्य प्रमुख स्थानों पर भी लगाई गई। अपने ग्रामीण चित्रों के कारण यह प्रदर्शनी-शृंखला बहुत लोकप्रिय हुई। 
विश्व भोजपुरी सम्मेलन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में छायाचित्र प्रदर्शनी का मावलंकर सभागार, नयी दिल्ली में आयोजन, जिसका उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल शर्मा ने किया (1997)। साहित्य अकादेमी नयी दिल्ली के सभागार में डा. रामविलास शर्मा के चित्रों की प्रदर्शनी, जिसका उद्घाटन प्रसिद्ध साहित्यकार भीष्म साहनी ने किया। 2015 में वाराणसी में लगाई गई ‘परिंदों की उड़ान’ छायाचित्र प्रदर्शनी को भी बहुत सराहा गया। छायांकन प्रतियोगिताओं मे अनेक बार पुरस्कृत। कई महत्वपूर्ण साहित्यकारों पर आधारित वीडियो फिल्मों का निर्माण, इनमें डॉ रामविलास शर्मा और डॉ शिवप्रसाद सिंह पर बनाई गई वीडियो फिल्में विशेष चर्चित।
कृतियाँ : तीन कथा संग्रह, कविता संग्रह, यात्रा संस्मरण, धूमिल के लोग, प्रगतिशीलता के अग्रदूत-निराला, भ्रष्टाचार की शिकार हिंदी पत्रकारिता एवं कई आलोचनात्मक पुस्तकों का संपादन। ‘बालवाटिका’ के लिए निरंतर लेखन।
विशेष : पिछले चार दशकों से पक्षियों के छायांकन, उनके संरक्षण, शिकार रोकने, उनके आशियानों पर मँड़राते खतरे आदि के लिये देश भर में यायावरी। इस संबंध में प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लेखों का प्रकाशन।
संपर्क – 281, सेक्टर 19, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121002, 
मो. 09871469579

3 टिप्पणी

  1. प्रकाश मनु जी के कहानी संग्रह की आपने बहुत अच्छी समीक्षा की है त्रिपाठी जी!पूरी समीक्षा नहीं आपकी समीक्षा को पढ़ लेने के बाद कहानियों का मर्म महसूस हुआ।
    पहली ही कहानी के विषय में थोड़ा मर्माहत किया।
    कभी-कभी ऐसा लगता है जातियों के बंधन को हटाकर सिर्फ नाम से ही काम चलाना चाहिए और एक ही सरनेम सब का होना चाहिए ‘भारतीय’ ।
    ‘जोशी सर’ कहानी भी अच्छी लगी।
    हमें भी अपने जीवन के अध्यापन काल के के कुछ प्रसंग याद आ गए। 10th क्लास के एक स्टूडेंट ने एक दिन हमसे क्लास में कहा-( हम क्लास टीचर थे) मैडम! सर लोग ट्यूशन के लिए फोर्स करते हैं,लेकिन मैं आपको बताना चाहता हूँ कि मैं बिल्कुल ट्यूशन नहीं पढ़ुँगा और मुझे जो भी समझ में नहीं आएगा मुझे शिक्षकों को समझाना होगा। यह ख्याल आप जरूर रखें।हमने उससे वादा किया।
    दरअसल वह गाँव से आता था।उसे आने-जाने में ही बहुत वक्त लगता था। इतना टाइम ही नहीं था कि वह ट्यूशन पढ़ सकता और गाँव में इसकी सुविधा नहीं थी।
    फिर वह आर्थिक दृष्टि से भी समर्थ नहीं था।
    हमने बराबर उसका ध्यान रखा।हमने हर ऐसे सब्जेक्ट के टीचर से व्यक्तिगत रूप से यह बात कही जो बच्चों की दृष्टि में कठिन थे। हम सीनियर थे इसलिए सभी ने हमारी बात मानी और जब भी उसे जो भी समझ में नहीं आया ,उसने हमें बताया और हमने उसे विषय से संबंधित टीचर से बात करके उसे स्कूल में ही वह टॉपिक समझवाया।
    काश! सभी शिक्षक वास्तव में भी शिक्षक बन पाएँ।
    शेष कहानियाँ भी सामयिक हैं।
    अच्छी समीक्षा। बधाई आपको।

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