Saturday, July 27, 2024
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हरदीप सबरवाल की दो कविताएँ

1. इमोजी

झुरमुट से लगे हैं युवाओं के,

होटलों सरीखे परीक्षा केंद्रों के बाहर

एक भाषा के टेस्ट में कुछ बड़े बैंड हासिल करने को,

जो देगा उन्हें एक मौका,

विदेश में पढ़ने और बसने का,

एक अच्छी आजीविका को हासिल करने की ललक,

और सुव्यवस्थित नियमों कानूनों के बीच रहने की चाह,

उनकी आंखों में आशा की चमक बिखेरती,

और जो पढ़ लिख ना सके ज्यादा,

या जिनके मां बाप की जेब में इतनी ताकत नहीं,

वह दूर से देख कोसते अपनी किस्मत को,

जिनके कागजों पर लग गया ठप्पा

उनके माता-पिता के चेहरे पर विजेता के भाव उभर आए,

जो रह गए उनके माता-पिता किसे पराजित से अपना मुंह छुपाते फिर रहे,

कितने अलग-अलग इमोजी बने हुए हैं हमारी व्यवस्था के चेहरे पर…….

2. फर्श

दीवारें कितनी भी मजबूत हो,

या छत कितनी ही ऊंची,

पर अगर घर का फर्श,

नहीं हो, साफ सुथरा और चमकदार,

कहां अच्छा लगता है वह घर!

और उंगलियां उठ जाती हैं तमाम,

उस घर के कर्ता-धर्ता पर,

एक देश भी कितनी ही सफलता

के परचम लहरा दे आर्थिक मोर्चे पर,

या फिर अंतरिक्ष में असंख्य उपलब्धियां हासिल कर ले,

फिर भी उस देश का फर्श तो

उसमें रहने वाली आम जनता ही होती है,

और जब तक वह जनता नहीं नजर आएगी चमकदार,

या रहेगी फटे हाल,

तमाम उंगलियां उठती रहेंगी उस देश के कर्ता-धर्ता पर……

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