प्रेम-पाश
हां!
मैं
कठपुतली हूं ,
मृदंग के बोल पर नाचती कठपुतली ..
मेरे हर अंग में
प्रेम का आवेग
पर्वतीय सरिता की तरह
तब तक बढ़ता जाता है
जब तक कि मैं,
उसकी गहराई में
आकंठ तक डूब नहीं जाती
मैं प्रेम के सर्वोच्च शिखर को
अपने आलिंगन में
बटोरना चाहती हूं
विडम्बनाएं ऐसी कि
डोर दूसरे के हाथों में
होते हुए भी
मुझे, मेरे पैरों में
संतुलन बनाये रखना आता है
अपनी हर परिस्थिति पर
मेरी पकड़ मजबूत है
संशय और अनिश्चय के
हर भाव को
शारद के सूखे पत्तों की तरह
झाड़ना आता है मुझे
उलाहना, राग और विराग के
छोटे-छोटे भंवर में डूबे
मेरे मन की सांकल को
जिसने भी खटखटाना चाहा
सांकल टूट कर
उसी के हाथ आ गई
मेरे अंदर की नदी में
इतना उफान
इतना तूफान
इतनी खुशी
इतनी उदासी और
इतनी छटपटाहट है
कि काश!!
इन सबके पार जाने के लिए भी
कोई डोर होती
मुक्ति की डोर….
हां ! मैं,
डोर के प्रेम-पाश में बंधी
कठपुतली हूं….!
यायावर
देखा है मैंने !
अक्सर, प्रेम में पुरुषों को यायावर बनते
नारी स्वभाव की एक-एक जटिल पगडंडियों से उसका परिचित होना…
उसे अपनी यात्रा
कब और कहां से शुरू करना है
कहां रुकना है
किस मोड़ से मुड़ना है, और कहां पहुंचना है
उसे सब पता होता है
वह जानता है कि
कब उसे सूनसान किनारे पर
भटकी हुई हवा संग चलना है और कब कल-कल बहती हुई
नदी के बीच उतरना है
उसे बखूबी पता होता है कि
प्रेम के नाटकीय आवेश को
कब पर्वतीय सरिता की तरह
धीमे-धीमे बहाना है
और कब
समुद्र की उफनती हुई ढेप बन
सबकुछ साथ बहा ले जाना है
उसका हर जगह
जंगली झाड़ बन कर उग आना और
अमरबेल की तरह
धीरे- धीरे अपने आस-पास की
खूबसूरत दुनियां को अपनी लपेटे में लेकर पेंच को तब तक कसते चले जाना
जब तक कि
सारी खुशियों को अपने मन-पसंद के प्याले में घोंट कर
पी नहीं लेता है
बाद उसके सारे बंधन को
ऐसे तोड़ मरोड़ कर जाता है
जैसे,
जूते के लेस में गांठ पड़ने पर, उसे तोड़ कर फेंक दिया जाता है
फिर अंदर उठते हिचकोले में, स्वयं को संभलते हुए
अपनी विजय-कामना का जश्न मनाते हुए निकल पड़ता है
किसी नए रास्ते की तलाश में……!
वैपरीत्य का समीकरण
तुम तो प्यार करने आये थे न!
फिर हत्या क्यों कर डाली
क्यों बेखबर हो गए
अपने कर्तव्यों और उसके फल से
कब, क्यों और कैसे भूल गए
प्रेम के सिद्धांत को
तुम्हें तो पता था,
नदी का बर्फ बनने की दहशत  से गुजरना और
सालों से पल रहे यकीन का
अचानक आंधी में उड़ जाना
कितना कष्टकर होता है
क्या तुम नहीं जानते थे
कि,शोर मचाते शहर के बीच
चुप्पियों का बसना
कितना मुश्किल होता है…
तुम तो फूल,सपने और बहार लेकर आने वाले थे
फिर क्यों
लेकर आ गए
वैपरीत्य का समीकरण
प्रेम से हत्या तक की
इस यात्रा में
तुम्हारे भावशून्य हाथों में
अपने हाथों को देते हुए
नहीं सोच सकी
कि तुम उसे
विदा जैसे शब्दों से पुरस्कृत करोगे
अब संत्रास में डूब रहा
मरघटी सन्नाटों के बीच
परमार्थ की पीड़ा सहती
मेरी आत्मा को
किसी का इंतजार नहीं…..!
मृगनयनी
याद नहीं
कि, उस पर
लिखा हो मैनें
कभी कोई कविता
पर हां!
अंदर एक इच्छा जरूर उभरती है कि
काश! मैं लिख पाता उस पर एक कविता या
कह पाता  कोई कथा
कुछ मुस्कुराहट और कुछ शब्दों का लेकर सहारा
कर पाता स्वयं को प्रकट उसके सामने
कि,
मेरी चाहना यथार्थ में होकर भी कल्पना पर अधिक आरूढ़ थी
ये उसको पता था
उस पर लिखना
एक लुभावना स्वप्न ही तो था
जो खुद में रह-रह कर
करवटें लेता रहता था
मैं जाने-अनजाने पढ़ने लगा था
उसकी आत्मा के अक्षर
मेरी डायरी का हर पन्ना
अब खुलने लगा था
उसके नाम से
मांगल्य से भरा
पूरे चेहरे का ज्वलंत आभूषण
उसकी आंखों को अपनी स्मृतियों में कैद कर
रख लेना चाहता था
हमेशा के लिए
आज शब्दों की भीड़ के बीच
व्यक्त करने कीअसमर्थता
और झर जाने की व्याकुलता में
कितने सारे प्रश्नों की तरंगें
उसकी आँखों से निकल
मेरी आँखों से टकराकर टूट गईं
अब मेरी पलकों के चिलमन का
हर किनारा मृगनयनी में डूबा हुआ था….!
एकल कविता संग्रह "बस कह देना कि आऊंगा", 35 साझा संग्रह में कविताओं का प्रकाशन, साहित्यिक पत्रिका- कादम्बिनी, कथादेश, पाखी, आजकल, माटी, विभोम-स्वर,आधुनिक-साहित्य, विश्वगाथा, ककसाड़, किस्सा-कोताह, प्रणाम-पर्यटन, सृजन-सरोकार, उड़ान(झारखंड विधान सभा की पत्रिका), गर्भनाल, रचना-उत्सव, हिंदी चेतना आदि में कविताओं का प्रकाशन। संपर्क - nandapandey002@gmail.com

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