दीवारों पर पड़ी ये चित्तियाँ!
विविध आकृतियों में
किसी मनमौजी चित्रकार के कलात्मकता का प्रतीक!
मनु बड़े बेढंगी
आकृतियों के रूप में
बड़ी सादगी, सहजता के साथ,
कोमल भावनाओं की कुची से
गाढ़े-हल्के रंगों का
ये उतार-चढ़ाव।
किसकी कल्पना का ये मूर्त रूप है?
जो सदैव मुझे आकर्षित करता रहा है;
अरे वाह!
क्या ख़ूब है!
ये फूल है!
ये बेल-बूटे !
अरे ये नाक-नक्श!
किसी मानवी कलाकृति का रूप सा,
ये नदियाँ-सागर!
चांँद-सितारे !
अरे वाह!
प्रकृति का विविध रूप ही तो
जीवंत प्रतीत हो रहा।
अल्हड़ कूची ने जिसको गढ़ दिया ।
बिना नाम-परिचय के ही
किसी ने अज्ञात रहस्यमय सा
यहाँ मढ़ दिया ।
बालपन की भावनाओं की पवित्रता,
विगत याद दिलाती रही है।
यौवन की पटुता में भी
आज भी वही
बाल-सुलभ जिज्ञासा रही है।
जो मुझे विस्मित पूछने को
बाध्य करता है-
“किसके नाम लिखूँ?
ये कृति?
बादल,
वर्षा,
दीवाल,
पक्की-कच्ची ईंटें?
किनका कसूर?
किसकी विवशता?
किसके मन का आनन्द?
कौन सा दस्तूर? ”
खैर जो भी रहा हो
क्या पैमाना है?
मेरे मन के अबोध बच्चे ने
उस चित्रकारिता को देखा-समझा और जाना है।
कहीं हल्की,कहीं गहरी;
ये मटमैली-सलेटी रंग की चित्ति!
पपड़ियों के रूप में भला
झड़ रहा क्या उसका अवसाद?
या विविध परतों के नीचे
छिपे रंगों का विद्रोही शंखनाद!
समय की मार पड़ी या
अपनों की लापरवाही ?
आर्थिक विपन्नता या
अनुपस्थित आवा-जाही?
दिखा-दिखा कर आप-बीती ,
अभी हँसती गंभीर मुस्कान;
बरसात में जो रोई भित्ति!
कहीं टहक कहीं उजड़ा श्वेत-श्याम!
मनमाने आकृतियों का आयाम!
क्या समझा तुमने है पिद्दी?
लाख मिटाओं ढाप-पोत दो;
नहीं मिटने दूँगी ये निशान।
यही है मेरी पहचान!
देती स्वीकृति…!
ठान लिया है ये बड़ी जिद्दी!
ये मटमैली-सलेटी रंग की चित्ति!
पाण्डेय सरिता
2 – स्त्रीगत अनुभव
सौंदर्य…!
पुरुष दृष्टि क्या ढूँढ़ती है?
निहारती है?
वासना?
साधना?
जगत का बाह्य चकाचौंध?
आंतरिक संरचना ?
कलात्मकता?
जो भी हो
ये तो वही जाने।
पर मैंने सुना है,
जो थोड़ा-बहुत जाना है।
वह आंतरिक साधना पर भी
मुग्ध हुआ है।
कभी-कभी ही सही;
कहीं-कहीं ही रही।
जब वह जीवन की सार्थकता के प्रति
ईमानदार प्रयास करता हुआ,
रंग-रूप यौवन के बाहरी
प्रदर्शन पर नहीं
लज्जा,शील-संकोच जैसे
स्त्रीगत दायरे में बँधा है।
खैर इसकी यथार्थता का
शत-प्रतिशत दावा तो न करूँगी।
ना मेरा कोई शोध इस विषय पर है।
पर, जो भी हो
असंतुष्टि हर जगह उभरी है।
एक-दूजे के प्रति,
प्रेम के साथ क्रोध
भी है।
दूर के ढोल सुहावने
वाकई लगते हैं।
कल्पना के फूल की कोमलता पर,
यथार्थवादी काँटे अवश्य चुभते हैं।
सपनों का राजकुमार आएगा।
चाँदनी के रथ पर सवार,
चांद-तारे माँग में भरकर,
साथ अपने ले जाएगा।
खुशियाँ ही खुशियाँ आँचल में भर कर,
सुंदर सी दुनिया
संग उसके सजाएगा।
मन की अपनी रानी बनाकर,
रखेगा उसे अपनी आँखों में;
बसाएगा अपनी साँसों में।
इसके लिए वह क्या नहीं करती?
अपना अस्तित्व अपनी पहचान!
भूलकर अपना घर-परिवार!
नाते-रिश्ते और संसार!
त्याग अपना सब आधार!
चली आती है।
उस एक रंग में समरसता की रंग जाती है।
पर उन आँखों की
भावुक,कोमल,कल्पना तो न छिनो।
उलझ जाए जिसमें
हर क्षण,हर पल की खुशियाँ ऐसे मकड़जाल तो न बिनो।
झुलस जाए सारी आकांक्षाएँ!
सपने देखने की सजा न दो ऐसी;
कि कोई स्वप्न ही न बचे।
मन के किसी कोने में
कोई आशा ही न जगे।
पाण्डेय सरिता
3 – उलझन-सुलझन
रूठी हूँ…।
किसलिए…?
क्योंकि, कुछ बात
जो चुभनेवाली
किसी ने कहे।
मन-मस्तिष्क को लगता है-
सामनेवाले को इन भावनाओं,चाहत,आकांक्षाओं के कद्र ही न रहें।
लगता है ज्यों,
वह एक ही झटके से
नीवँ ही हिला देता है।
जिसपर ये
आस्था और विश्वास टिका है।
रिश्ते की भावनात्मक गहराई जुड़ी है ।
भावनाओं की उग्रता,
शब्दों की कठोरता
प्रतीत हुई है
नहीं जानती उसमें
भाव था क्या ?
मेरी उपेक्षा?
अवमानना?
अवहेलना?
जो कुछ गलत ही प्रतीत हुआ
हक-अधिकार की बात को लें;
तो कुछ अनुचित-उचित है क्या?
बड़ी मुश्किल और आसान है क्या?
विचित्र द्वंद्व घिरा है।
सोचती हूँ कई बार
छोटी-छोटी बातों की तुच्छताओं में बँधकर
नहीं करना व्यर्थ की उलझन।
जो भी है जैसा,
जिस रूप में ही सही।
रहने दो,
क्या करना है?
रूठना ये मनाना क्या?
कुछ ऐसा-वैसा जताना क्या?
मुझको तो प्यारी,
अपनी सुलझन।
पाण्डेय सरिता
4 – उचटी नींद
नींद भी कभी-कभी
इन आँखों से इस कदर रूठती है;
कोई, कुछ नहीं जानता
कब पक्ष से विपक्ष में जा बैठती है?
यथासमय ही इसको बुलाया
मान-सत्कार करके पलकों पर बिठाया।
पर न जाने क्यों ?
अकारण रूठी प्रिया जा बैठी दूर छिटक कर।
दूर भी बैठती तो कोई बात न थी;
मना लेना तो चुटकियों की तरह
मेरे हाथ थी।
निशीथ के घोर अंधेरे में,
विचारों का ताँता लगा।
मस्तिष्क खोया इस ताने-बाने में
जाने कहाँ से कहाँ तक?
कब तक दर-दर भटकता रहा?
करवटें बदलती रही;
ऊबा मन पल-पल सँजोता रहा।
घड़ी की सुइयाँ टिक-टिक कर
रात्रि की नीरवता बढ़ाती रहीं।
रहता रहा जाने किस पल का दाह?
देखता रहा किसी प्रिय स्वजन अतिथि का राह।
पाण्डेय सरिता
5 – मोबाइल और व्यक्तित्व
था कभी पहले की दुनिया में
किसी का व्यक्तित्व!
परिचायक संगी-साथी, इष्ट मित्र!
वर्तमान समय में
जो पहचानना हो चरित्र!
पासवर्ड, बिना पासवर्ड वाला
मोबाइल में
जो उपलब्ध जानकारियाँ ही
सम्पूर्ण प्रमाण पत्र!
संगी-साथी और परिवार से भी बड़ा,
परिचायक उसका मोबाइल है!
कौन,कितना पारिवारिक
सामाजिक प्रेरक!
सुख-दुख में एकाकी या सहायक-सहभागी है?
सांसारी या वैरागी है?
पपिष्ट या पवित्र…?
देख लो गूगल सर्च…!
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लिंक्डइन, वीचैट,वाइबर,
मैसेंजर,ट्वीटर,यूट्यूब पर
उपलब्ध पसंद-नापसंद और टिप्पणियाँ!
पढ़ लो बस
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काले-उजले इतिहास
की झलकियाँ!
आइने से भी
ज़्यादा कारगर है
उपलब्ध इनपर मस्तियाँ!
है दुर्गंधित या सुगन्धित मन-मस्तिष्क रूपी इत्र!
एक ज़िन्दगी में है खुश
या अनेक दुनिया में?
कौन,कितना बहक रहा?
छिटक रहा?
भटक रहा?
गली-गली डाल-डाल अटक रहा?
मटक रहा?
पेट भर रहा उसका
घर के भोजन से या
है फोन गैलरी में पटा नग्न-अर्धनग्न छाया-चित्र।
खुली यहाँ सारी औकात,
बची कितनी बिसात?
मामले में व्यक्तित्व कौन,कितना अमीर या दरिद्र है?
भद्र या अभद्र है?
गुढ़-सरल जीवन का प्रश्न-पत्र है?
है किसके साथ ज़्यादा समय बिताता?
काम-काजी बाहरी दुनिया,
घर-परिवार
सगा-संबंधी, स्त्री,पुत्री-पुत्र?
हाहाकार घमासन मचा
खींच-तान मचा
समस्या और
एक मात्र विकल्प यहाँ
उत्तर -प्रत्युत्तर का,
विद्यमान आज
अत्र-तत्र-सर्वत्र है।
पाण्डेय सरिता
सन् 2020 में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘रेत पर नदी’ है। सन् 2022 में प्रकाशित द्वितीय काव्य संग्रह ‘रे मन मथनियाँ’ है। सन् 2022 में ही तीसरी प्रकाशित पुस्तक प्रथम गद्य संग्रह रूप में ‘स्पर्शन : कुछ अपना-बेगाना सा’ है। पहला संस्मरणात्मक उपन्यास – ‘रमक : नन्हा बचपन’ साहित्य कुञ्ज. नेट पर उपलब्ध है। अन्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित असंख्य रचनाएँ हैं।