1- नई पीढ़ी
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सुबह से शाम तक
यंत्रवत्त
कम्प्यूटरों में दिए सिर
जिंदगी की मृगमरीचिका में
भटकते रहते हैं
यश और धन की चाह में
आज के नवयुवक
दर्द के सरोवर में
एक एक अंग से निकलती है
अतृप्त इच्छाएं
की-बोर्ड और माउस से
करती रहती जो अटखेलियां
जीवन संग्राम के लिए
दर्द तो जागता रहता है
अंधेरी रात में
उल्लुओं की तरह
लेपटॉप, मोबाइल पर फिसलती
अंगुलियां बुनती हर पल
कोई सुनहरा ख्वाब
स्क्रीन पर आंखें गड़ाए
रचाई गई इस छद्म दुनिया में
तैरता – उतराता
आहत, चिंतित होता
साइबर दुनिया ने लील लिय्या
इस युग की
नई पीढ़ी को!
2-नये युग की वसीयत
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मुर्दों की भीड़ में
अचानक
हलचल हो गई
एक उठकर चिल्ला पड़ा-
‘बिके हुए ईमान
न्याय पथ से डिगा हुआ धर्म
जहां रक्षक ही भक्षक बने
परीक्षक बिकाऊ
रिश्तों की पावनता पर
लग गई नज़र
खो गया है सत्य कहीं
समय हुआ बहरा’
किससे कहता अपनी व्यथा
फैल रही इन विद्रूपताओं
और
कर्जदारों के डर से
मैंने अपने आप को
मुर्दा घोषित कर दिया
हाँ, मैं मुर्दा नही हूँ
मैं जिंदा हूँ
मैंने सिर्फ एक ढोंग रचा था
नये युग की इस वसीयत से
बचने के लिए
ओ दुनिया वालों
क्या तुम्हें मालूम नहीं था
जैसे तुम भी
जिंदगी से लाचार
मुर्दा होने के बावजुद
जीने का रचते हो ढोंग??
यह अर्थयुग का है चमत्कार
जहाँ कर्ज़ सिर पर
हाथ गिरवी
पांव घायल
सांस रोगी
मन मरा -सा
आंख व्याकुल बन गई
धोखा यहां परम्परा
झूठा गढ़ा इतिहास ही अब
हमारी संपदा है
क्या मान्यताओं की
झूठी लक्ष्मणरेखा
अब टूटेगी
मुक्त होंगे इनकी कैद से हम
उग रहा है नया सूरज
नया प्रकाश फैलाने को!
3-पीड़ा
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तुम्हारे प्यार की आँच में
सीधे- सीधे ही
पूर्णता पा लेना चाहता था
पूनम के चाँद- सा
वक्त से आये फासले
नहीं भूले हथेलियों की गरमाहट
खामोशियों में ही
जिंदगी बसर होती रही हमारी
कभी कभी
जज्बात के ताने- बाने समेट कर
नर्म, रेशमी, मुलायम चाँद जैसे
सपने बुनता
तो कभी
समय की उधेड़बुन में
अपने लिए स्वयं ही चुनता दर्द
कुछ दर्द बहते नहीं
दिल से
रिसते रहते हैं किरच- किरच
समझनी पड़ती है
उम्मीदें और परेशानियां भी
किसी असम्भव को
संभव करने की
किसी हमदम की ख्वाहिश
पूरी करने के लिए
टूटना, बिखरना भी अच्छा लगता है
तुम औरत थी
औरत ही बनी रही
मैं पुरुष था
पुरुष ही रहा
न तुमने कदम बढ़ाया
न मैंने रेखा पर की
देह का अभिमान
और मन का दरकना
प्रतीक्षा अन्तहीन
भोग रहा पीड़ा
समय की!
4-बाढ़
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टूटी हुई खिड़कियां
हवा की हर आहट पर
शोर मचाती है
बेशर्मी के साथ खड़ा
नँगा दरवाजा
मेरे अभावों का उड़ाता है
मज़ाक
अभावों की रेत और
गरीबी की मार
कभी भी
घायल कर सकती है मुझे
क्योंकि प्रकृति ने भी
मेरे साथ धोखा किया है
दुःख के झंझावात में
जलती रहती है अंतड़ियां
परत दर परत
अंधेरे को घूरती है भूख
उस काली रात
आये तूफान व बाढ़ ने
उजाड़ दी
मेरी जिंदगी की झोंपड़ी
और फैला दी है
मेरे आस- पास
आँसुओं की बाढ़
अब मैं मजबूर हूँ डूबने को
मन की अथाह पीड़ा को सहते
घने अंधेरे के बाद
सुबह सूरज की रौशनी
जीने का हौसला
फिर बढ़ा देती है
एक नन्हीं चिड़िया
अपनी चोंच में
छोटा-सा दाना दबाए
आंगन में फुदकती
सुबह की शुभकामना देती है
डूबते हताश मन को
एक नया हौसला मिलता है
जिजीविषा
फिर जाग उठती है।
हमारी रचनाओ को प्रकाशित करने हेतु पुरवाई टीम का हृदय से आभार
●राजकुमार जैन राजन
श्री राज कुमार राजन जी की कविताएं पढ़ी।उत्कृष्ट रचना।जीवन की सच्चाई को बयां कर रहीं हैं।
उत्कृष्ट रचनाएं, दिल को छूने वाली। हार्दिक बधाई।
हर कविता ज़िंदगी की सच्चाई से रूबरू करवाती हुई। नई पीढ़ी समेत सभी कविताएं बेहद उत्कृष्ट। राजकुमार राजन जी और पुरवाई टीम को हार्दिक बधाई
यथार्थ को बताती दिल छू लेनेवाली सच्चाई बयां की है आपने
राजकुमार राजन की चार कविताए पढ़ी, उनकी कविताए कुछ न कुछ संदेश देकर जाती है,
नई पीढ़ी की बात करते हुए चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि ये मीडिया के कारण आज का युवा मार्ग बदल दिया है
नए युग में इंसान की विडंबना को बताते हैं कि एक दिन उसमे से बाहर निकल कर आयेंगे नए सूरज की तरह
प्यार की पीड़ा केसी होती है उसका जिक्र किया गया है,
बाढ़ आते ही सब कुछ बह जाता है, इंसान उम्मीद छोड़ देता है उस वक़्त एक चिड़िया अपनी दांत से एक दाना लेकर आती है और उसी उदाहरण एक उम्दा संदेश है
राज कुमार जी को ह्रदय से हार्दिक बधाई
उत्कृष्ट रचनाएें
बहुत बहुत बढ़िया प्रस्तुति सर
बहुत-बहुत बधाई सर