1 – नया चलन
महानगरों में रोज उगती
ये नई -नई बस्तियां ,
पलक झपकते ही
आबाद हो जाती हैं ,
सुखद ,नागरीय जीवन की चाह में
अपने गांव -खेत, घर -खलिहान
पीछे छोड़ आई
एकल पारिवारिक इकाइयां
इनमें पनाह पाती हैं,
इन बस्तियों में सुबह-शाम
दिखलाई पड़ती है
चहल-पहल ,हलचल
युवतियों की हंसी ,
बच्चों की किलकारियां ,
कारों के हॉर्न ,
घरों में सामान पहुंचाते ‘छोकरों’की सवारियां,
मिलकर मनाए जाते हैं
कई त्यौहार ,
और कभी माता-पिता सुलझाते हैं
बच्चों की लड़ाइयां ,
समय रुकता नहीं
सरपट भागता है
वक्त की कमी राग हर कोई अलापता है, और देखते ही देखते
बहुत जल्दी ,कुछ ही ‘दिनों’ में
वर्ष उड़ते जाते हैं ,
उद्यानों में उछलने वाले बच्चों के
नए-नए कोमल पंख उग आते हैं,
उड़ जाते है सबके सब,पढ़ने- कमाने ,
और फिर दूर कहीं
नया ‘अपना क्षितिज’ खोज
अलग- थलग एक ‘अपनी ‘
नई दुनिया बसाने ,
माता पिता जो स्फ़ूर्त और जवान थे,
वे अब तक अधेड़ हो जाते हैं,
‘वर्क फ़्रॉम होम’ और मित्रों की दावत में
अपना खा़ली सा लगता समय बिताते हैं,
देखते ही देखते नई बनी बस्ती
सुनसान सी हो जाती है,
पीछे छूटे परिवार की याद
नयी पौध को कम ही आती है
कभी-कभी शायद ही अब
कॉलोनी में हलचल. नज़र आती है,
यहां पले बच्चे इस जगह से लगाव
महसूस नहीं कर पाते,
क्योंकि उन्होंने देखा है
अपनी पिछली पीढ़ी को
नाना-नानी ,दादा-दादी ,घर और गांव पीछे छोड़ ,
उस नई बस्ती में उनका ‘अपना’
घर बसाते ।।
2 – भोर का चांद
भोर के आकाश में मद्धिम- सा चांद!
दो-चार बची हुई रात की रोशनियों को,
चुपचाप मानो गिनता हुआ -सा चांद!
करके रखवाली रात भर इस धरती की
‘नाइट की ड्यूटी’ से थका हुआ सा-चांद
करने को विश्राम माता की गोदी में,
घर जाने को तत्पर, उतावला -सा चांद
उजली गोरी चांदनी जो रातभर थी साथ-साथ
उसके चले जाने से अनमना हुआ- सा चांद !
देने को कार्यभार धरती का सूरज को ,
सूरज की बाट जोहता हुआ सा- चांद ,!
देख कर के सूरज को उसकी किरण के संग
अपने एकाकीपन पर रुआंसा हुआ -सा चांद!!
उषा की बेला में पश्चिमी नभ- मंडल में
उदास ,अकेला ,निस्तेज,बोझिल- सा चांद!
मेरी बालकनी से दिखती सूरज की आभा
जिसकी प्रखरता से हारता हुआ चांद!!!
3 – आख़िर क्यों?
धरती और वनों को रौंद
उग आए एक कंकरीट के जंगल में
कबूतर का दड़बा कहे जाने जैसे
एक छोटे -फ्लैट में,
एक महानगर में
मैं रहती हूँ
औरत हूं इसलिए इसको ही
मैं अपना ‘प्यारा घर’ कहती हूं,
प्रकृति प्रेम अपना मैं छोड़ नहीं पाती
तो दो-चार गमलों में
दो-चार मुट्ठी मिट्टी डाल यहीं
मीठी -नीम ,तुलसी ,सदाबहार के पौधे रोप लेती हूं
इन पौधों की परवरिश कर मैं अपने को चुपचाप प्रकृति से जोड़ लेती हूं
और यह उदारमना, क्षमामयी प्रकृति मां
इतना भर करने से ही मुझे अपना लेती है
कभी फूल- बौर और तुलसी में मंजरी बन
अपना आशीर्वाद मुझ पर लुटा देती है
कभी ,कभार,एकाध मधुमक्खी आकर
जब गुँजार कर जाती हैं,
मेरे कानों में मानो मधुमासी संगीत
घोल जाती है,
यह कल्याणमयी, वरदायी मां हमारे ही हाथों मर्दित, दलित होकर भी हमारे सभी दोष क्षमा कर जाती है!!
तनिक सा -ही आदर- सम्मान हमसे पाकर
करुणामयी बन आशीष के खजाने हम पर लुटाती है !
फिर क्यों नहीं हम मूढ़ -गर्वित इन्सानों से यह अपना वांछित सम्मान -संरक्षण पाती है?

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