होम कविता शिरीष पाठक की कविताएँ कविता शिरीष पाठक की कविताएँ द्वारा Editor - June 6, 2019 123 0 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet शिरीष पाठक पुरानी सी किताब एक पुरानी सी किताब की खुशबु आती है अब तुमसे ऐसा लगता है पढ़ लिया है तुमको कई बार और तुम्हारे मुड़े हुए पन्नों को दोहरा लेता हूँ रोज़ एक बार क्यूंकि तुम्हारे नाम की किताब दिल के बेहद करीब रखता हूँ मैं अच्छा लगता है तुम्हारी सियाही को महसूस करना अपनी आँखों और अपने हाथों से जानती हो कभी कभी कुछ सुख चुके फूल मिल जाते है जिनकी खुशबु आज भी आती है उन पन्नों की खुशबु के साथ मेरे हाथों में अब रोज़ नज़र आती हो तुम कभी मेरे सिरहाने रखता हूँ तुमको और कभी मेरे सीने पे रख के सो जाता हूँ मैं तुम्हारे बिना मेरे दिन का बीतना मुश्किल होता है तुमको मैं बहुत कुछ कह देना चाहता हूँ तुमको रोज़ जिससे तुम मेरे अन्दर पनप रहे उन सब एहसासों को जान पाओ लेकिन एक डर छिपा रहता है मेरे अंदर कहीं मेरी कोई बात तुमको बुरी न लग जाए और तुम रूठ न जाओ मुझसे मेरे लिए तुम मेरे जीवन की किताब के उन पन्नों की तरह हो जो मैं पढता हूँ और अपनी कहानी को पूरा करने में जोड़ देता हूँ और हर पन्ने में खुशबु आती है तुम्हारी बिलकुल वैसे ही जैसे की गुलाब महकता है किसी किताब के पन्नों के बीच में कशमकश कशमकश में बंधा पाता हूँ खुदको जब देखता हूँ तुम्हारी आँखों को सवाल पूछती हुई जवाबों के इंतज़ार में मैं नहीं जानता कैसे जवाब दूँ तुमको खामोश रह जाना ही बेहतर समझता हूँ तुम मुस्कुराती हुई चलने लगती हो और इशारे से मांगती हो साथ मेरा आसमान के नीलेपन से कुछ रंग चुराती हुई सूरज की किरणों में गुम हो जाना आता है तुमको शाम के ढल जाने से पहले तुमसुकून ढूंढने घाट पर आ जाती हो कुछ देर ही सही लेकिन तुम सब कुछ भूल जाना चाहती हो अलविदा ज़िन्दगी के न जाने ये कैसे सवाल है कल तक जिसको हँसते बोलते देखा हो अचानक से खामोश हो जाता है अलविदा कह जाता है बिना कुछ कहें अजीब लगता है किसी ऐसे इंसान का जाना जो मिलता है ख़ुशी के साथ हर बार भूख प्यास के अलावा भी जीवन में कुछ और जो हम शायद समझ नहीं पाते इंतज़ार करना खुद की मौत के बाद भी अपनों का भारी होता है कभी बर्फ के टुकड़ो पे लेट के और कभी टूटी हुई लकड़ियों पे आग से जल जाना भी आसन होता है और मिटटी में खुद को छुपा लेना भी आखिर मिल जाना हम सब को मिटटी में ही होता है कभी जलते हुए देखा है किसी को खुद की मौत के बाद भी जल जाना दूसरों के लिए जानते है हम सभीको मिटटी बन जाना है लेकिन ज़मीन में जाने का डर हमेशा रहता है जीवन शुन्य से शुरू होकर शुन्य पे ही अंत हो जाता है और हम सब शरीर बदल लेते है आत्मा बस आत्मा रह जाती है संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं डॉ. हर्षा त्रिवेदी की तीन कविताएँ प्रेमा झा की कविता – माँ रश्मि विभा त्रिपाठी की कविता – सपने कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें! कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें आपने एक गलत ईमेल पता दर्ज किया है! कृपया अपना ईमेल पता यहाँ दर्ज करें Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment. Δ This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.