Friday, October 11, 2024
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सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएँ

1. *उठो कृषक*
उठो, कृषक!
भोर से ही तुहिन कण
फसलों में मिठास भरती
उषा को टटोलती
उम्मीदों की रखवाली कर रही है
जागो, कि
अहले सुवह से ही
सम्भावना की फसलों को
चर रही है नीलगाय
प्रभात को ठेंगा दिखाती
जागो, कृषक
कि तुम्हारा कठोर श्रम
बहाए गए पसीने की ऊष्मा
गाढ़ी कमाई का उर्वरक
मिट्टी में बिखरे पड़े हैं
उत्सव की आस में
कर्षित कदम अड़े हैं
जागो, कृषक कि
सान्तवना की किरण आ रही है
तुम्हारे बेसुरे स्वर में
परिश्रम को उजाले से सींचने
अंधेरे में सिसक रहे
मर्मर विश्वास को खींचने
उठो, कृषक
उठाओ, कठोर संघर्ष
स्वीकार करो,
लड़खड़ाते पैरों की
दुर्गम यात्रा
बीत गया, रीत गया
कई वर्ष…!
2. *फसल मुस्कुराया*
देखो, भूमिपुत्र…!
उषा की बेला में
उम्मीद की लौ से सिंचित
मिट्टी में दुबका बीज
धरती की नमी को सोखकर
आकाश में हँस रहा है
तुम्हारे थकान को
उर्वरक का ताप दिखाकर
ऊसर में बरस रहा है
ऐ खेत के देवता…
तुम्हारी वेदना, तुम्हारा सन्ताप
बहते श्वेद कण का प्रताप
शख्त मिट्टी में मिलकर
ओस की बूंदों में सनकर
जगा रहा है कंठ का प्यास
उपज में सोंधी मिठास
आस की भूख सता रही है
कई-कई दिनों से निर्मित
आत्मा की फीकी मुस्कुराहट
जीवन का रहस्य बता रही है
कि कसैला स्वाद चखने वाला
चीख-हार कर, गम खानेवाला
बासमती धान का भात कैसे खाए
जिसपर संसद का कैमरा
फोकस करता है…
जिसपर शाही हुक्मरान
प्रबल राजनीत करता है…
3 – मिट्टी का स्वाद

खेत में लहलहा रहा है
उम्मीदों का फसल
स्वप्नों की सोंधी खुश्बू
हृदय का मिठास

अभी-अभी
घने कुहरे से
मचल कर निकली है धुप
माघ का कनकनी लिए
शीतल पवन का रूप
घास काटती स्त्री
अपने अल्हड़ गीतों में
फूँक रही है साँस
आशा का उर्वरक
मिट्टी को तोड़कर
ला रहा है कुबेर का धन
किसान के पुरखे
देख रहे हैं
पदचिन्हों में गड़ा श्रम
ढूंढ रहे हैं
मिट्टी का स्वाद
4. *कृषक की संध्या*
पश्चिम क्षितिज में
रक्तिम आभा में पुता हुआ
किसी चित्रकार का पेन्टिंग
हताश आँखों से देखता है
खेत से लौटता कामगर
झोलफोल (संध्या) हुआ…
अब लौट रहा है किसान
आकाश का पगड़ी बाँधकर
सूरज की रौशनी को
चिलम में भर-भर, दम मारता
जम्हाई ले रहा है पहाड़
मार्ग में उड़ रहा है गर्द गुबार
रम्भाति हुई गऊएं
दौड़ी चली आ रही है
पास ही धधक रहा है
शीशम के सूखे पते की आग
पुरब में धुंधलका छा रहा है
अंधेरे का दैत्य आ रहा है
नन्हा बछड़ा…
रुक-रुक कर रम्भाता है
धमन चाचा बोलता है
*‘च..ल हो अंधियार हो गेलो’*
उलटता है चिलम, फूक मारकर
साफ करता है बुझी हुई राख
सूर्य डूब रहा है-
पहाड़ी के पीछे…!
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