Sunday, October 6, 2024
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ज़हीर अली सिद्दीक़ी की दो कविताएँ

1-चिराग
मैं चिराग नही,
हवा से बुझने वाला।
एक चिराग मग़र,
कोठरी से बचने वाला।।
उन थपेड़ों की,
हैसियत ही क्या है।
मार से उनके ही तो,
तेजी से जल उठता हूँ।।
बुझी हालात में मैं
वक्त की क़दर करता हूँ
अंदर के उजाले को
दिल से सलाम करता हूँ।।
जब मैं जलता हूँ
रोशन जहाँ को करता हूँ
बुझी तक़दीर को
जलकर मैं जला देता हूँ।।
मेरी आरजू का
समन्दर भी साथ देता है
मझधार में भी
साहिल सा प्यार देता है।।
जब मैं डूबता हूँ
ऊपर ही फेंकता मुझको
ये समन्दर भी
बुझदिली को बुझा देता है।।
2-दोष नही, दोषी मरता
शिशु को लेकर
वे दौड़ रहे
ख़ुद के जीवन को
तौल रहे।।
उस गोद मे
बच्चे चिपके है
जो सैन्य से हैं
निर्जीव पड़े।।
वे विलख रहे
असहाय दिखे
आंखों आंखों में
विदा लिए।।
तू सैन्य शक्ति को
बढ़ा रहा
सूली पर जीवन
चढ़ा रहा।।
कहता क्यों
जीवन जोड़ रहा
तू है जो
जीवन तोड़ रहा।।
क्या इसे युद्ध की
संज्ञा दूँ
जो मानवता को
तोड़ रहा।।
मानवता उससे,
चिंचित है।
जो रक्तपात से,
सिंचित है।।
शक से पनता
है विजय राग
वह विजय नही
है बज्रपात।।
मनुज सदा
होता चिंतित
जब दोष नही
दोषी मरता।।
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