‘कहते हैं कमाठीपुरा में कभी अमावस की रात नहीं होती।’ यह संवाद सुनते हुए निर्माता, निर्देशक ‘संजय लीला भंसाली’ की फ़िल्म ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ के लिए जोर से तालियां बजाने का दिल करता है। दिल तो तब भी करता है तालियां बजाने का जब ‘विजय राज’ पर्दे पर रजियाबाई बनकर आते हैं।
कमाठीपुरा बम्बई का एक बदनाम मोहल्ला। जिसे रेड लाइट एरिया कहते हैं। वहां आकर गंगा अपने प्रेमी रमणीक के हाथों बिक जाती है। उसे क्या मालूम कि जो हीरोइन बनाने के सपने दिखाकर लाया था वह उसे सचमुच की हिरोइन बना जाएगा। फिर वो दिन आया जब  यहां पहुंची गंगा ने एक दिन गंगूबाई बन कर पूरे कमाठीपुरा पर राज किया। न केवल अपने लिए लड़ी बल्कि यहां की बाकी औरतों और बच्चों के हक के लिए भी लड़ी साथ ही वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा दिलाने की मांग लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री तक से मिली।
गंगूबाई के जीवन को दिखाते हुए भंसाली ने जिस तरह मुम्बई के माफियाओं और अंडरवर्ल्ड पर कई किताबें लिख चुके हुसैन एस. ज़ैदी की किताब ‘माफिया क्वीन्स ऑफ मुंबई’ के साथ-साथ कल्पनाओं का सहारा लिया है वह वाकई हमेशा की तरह लाजवाब है। इतिहास की यह किताब बताती है कि गंगा को उसका पति यहां बेच गया था। और फिर माफिया डॉन करीम लाला से उसने एक बार अपने लिए इंसाफ मांगा। उस डॉन ने गंगू को बहन बनाया और फिर उसका रुतबा, ऐश्वर्य, कद सब बढ़ता चला गया।
यह कहानी वैसे सुनने में जितनी जानदार, शानदार और दिलचस्प लगती है। उतना ही इसे पर्दे पर उतारते समय इसके लेखकों भंसाली और उत्कर्षिणी वशिष्ठ ने दिलचस्प बनाने  की कोशिशें भी बखूबी की है। बावजूद इसके काफी लंबी होकर यह फ़िल्म कहीं-कहीं बिखरती भी है। भंसाली साहब जिस तरह का सिनेमा के पर्दे का आभामंडल रचते हैं उसके लिए उन्हें हमेशा दाद मिलती है। वही इस फ़िल्म में भी हुआ है। कई सारी घटनाओं का जिस तरह नाटकीय रूपातंरण किया है उन्होंने उसमें वे बहुधा विश्वास करने लायक नहीं बन पाती।
आलिया भट्ट खूब जँची है। एक्टिंग भी जबर की है। फिर भी उनकी हद से ज्यादा दिखने वाली चेहरे की मासूमियत उसे ढक लेती है। अच्छा होता कि कुछ समय के लिए आने वाली हुमा कुरैशी को गंगूबाई का किरदार निभाने दिया जाता। या किसी और पर यह दांव खेलते भंसाली साहब। तो जरूर यह एक और यादगार फ़िल्म आपके खाते में जुड़ जाती। दूसरी ओर विजय राज पूरी फिल्म में छाए रहे। अब तक का सर्वश्रेष्ठ अभिनय उनका इसी फ़िल्म में देखने को मिलेगा। हालांकि एक से बढ़कर एक फिल्में उन्होंने दी है। लेकिन रजिया के रोल में जो किरदार उनका गढ़ा गया है वाह क्या खूब। बाकी कलाकारों में सीमा पाहवा, इंदिरा तिवारी, जिम सरभ शांतनु महेश्वरी सब जमते हैं। लेकिन अजय देवगन निराश करते हैं, बुरी तरह से।
बाकी के कई किरदारों को यह फिल्म डटकर एक दूसरे सामने खड़े नहीं होने देती। मसलन गंगूबाई को ही देखा जाए तो कोठे की बाकी लड़कियों के बरक्स उसमें जो अकड़ है वह कई जगह उसे जब धमकाया जाता है तो लगता है कि यह सब खोखलापन है। फिर भले भारी-भरकम संवाद उसकी झोली में आ पड़े हों।
निर्देशक संजय लीला भंसाली की सबसे बड़ी खासियत बड़े-बड़े और भव्य सैटअप बनाना हमेशा से रही है। हालांकि ऐसा नहीं है कि फ़िल्म में सीन अच्छे नहीं है। फ़िल्म में ऐसे कई उम्दा सीन देखने को मिलते हैं। एक अच्छी फिल्म होने के बावजूद यह उस मुकाम तक नहीं पहुंचा पाई है भंसाली को तो इसके लिए आप ही दोषी हैं भंसाली साहब। आपका एक जबरा फैन होने के नाते आपने औरों के तो पता नहीं पर मेरे सिनेमाई दिल को चोट पहुंचाई है। अच्छा होगा कि ‘हीरामंडी’ फ़िल्म में अपनी इस गलती को सुधार लें। अन्यथा आपको उन्हीं मध्यकालीन युग की गलियों में भटककर कोई उम्दा कहानी, फ़िल्म खोजकर लानी होगी।
भव्य सैट बनाना तो आपका शौक रहा है। लेकिन यही शौक इस बार हद से बढ़ गया है, लिहाज़ा कमजोरी भी। फिल्म के गाने बहुत बढ़िया हैं। उनका ट्रीटमेंट और लिरिक्स लाजवाब हैं। बतौर संगीतकार भंसाली प्रभाव भी छोड़ते इस क्षेत्र में भी।  कैमरा, एडिटिंग, सिनेमैटोग्राफी सब आला दर्जे के हैं।
अपनी रेटिंग – 3.5 स्टार

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