Saturday, July 27, 2024
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ज़हीर अली सिद्दीक़ी की दो कविताएँ

1 – यादों के गुलदस्ते
यादें!
जो हमारे ख़ुद के हैं या
अपनों से मिले हैं
बिखरे सपनों के फ़रियाद
उनको पाने के आवाज़
सांसों के मियाद और
वज़ूद के बुनियाद होते हैं।
यादें एक हों या अनेक
जर्जर मकान में भी
आलीशान महल का
बिन बिस्तर के
मखमली पलंग का
बिन भोजन के
बारह पकवान का
बिन पानी के
आब-ए-ज़मज़म का
एक सुखद एहसास दिलाते हैं।
या यूं कहें कि ये यादें…
ग़म के साये से दूर ले जाकर
सांसों को रुकने से
ख़ुद को टूटने से
अपनों से बिछड़ने से
रोकते हैं और टोकते हैं
जीने की वजह से जोड़ देते हैं।।
2 – पुल
खोजता हूँ,
दो किनारों को,
फैले हुए अंगारों को
डराती हुई खाई को
बढती  रुसवाई को,
खुदगर्ज़ी मिटाता हूँ
स्वार्थ से बचाता हूँ
नफ़रत को तोड़ने
प्यार से जोड़ने
पास बुलाता हूँ
दोस्ती बढ़ाता हूँ
एक होने का ,
एहसास दिलाता हूँ
घमण्ड तोड़कर
विकार मोड़कर
आकार में ढालता हूँ
नफ़रत के दायरे से
निकलकर मचलता हूँ।।
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