उपन्यास – साज–बाज़ लेखिका – प्रियंका ओम प्रकाशन – प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ – 167 कीमत – 300 /-
प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित ‘साज–बाज़’ प्रियंका ओम का पहला उपन्यास है, लेकिन अनुक्रम को देखकर यह कहानी–संग्रह लगता है, क्योंकि अध्यायों के नाम कहानियों के नाम लगते हैं। इतना ही नही, उपन्यास के आरंभिक पृष्ठों पर इसे उपन्यास नहीं कहा गया। हाँ, भूमिका में लेखिका इसे उपन्यास कहते हुए इसके पात्र देविका और शिवेन में खुद और अपने पति ओम को देखते हुए इसे उन लोगों की कहानी कहती है जिन्होंने अहं से ऊपर प्रेम को चुना। लेखिका ने इसे स्त्रीवादी रचना न मानते हुए प्रेमवाद की कहानी कहा है। उपन्यास की टैग लाइन ‘एक प्रेम ही तमाम दोषों का निवारण है’ भी इसको प्रेम पर आधारित उपन्यास ठहराती है। लेखिका देविका की मृत माँ के रूप में कहानी कहती है।
उपन्यास की शुरूआत ‘आत्महत्या की हत्या’ अध्याय से होती है। देविका आत्महत्या करना चाह रही है, क्योंकि उसकी शिवेन से अनबन हो गई है, हालांकि अनबन का कारण बड़ा मामूली है – “इस दफा बात इतनी सी थी कि इन्हें खरीदारी के लिए जाना था और शिवेन ने उसे उन्हीं कपड़ों में देख पूछ लिया “इन्हीं कपड़ों में चलोगी ?” बस, जैसे मधुमक्खी के छत्ते में हाथ लगा दिया हो ! “क्यों ? क्या बुराई है इन कपड़ों में?” शादी से पहले तो सब पसंद था, बिना प्रति उत्तर सुने जैसे दुश्मनों पर लगातार गोली दागी जाती है बेपरवाही से। बेखयाली से !
“मैंने तो यूँ ही पूछा था।” शिवेन ने सफाई देनी चाही !
“यूँ ही का क्या मतलब है ?”
“पता नहीं। बस पूछ लिया!”
“साफ–साफ क्यों नहीं कहते कि यह अनु दी की दी हुई ड्रेस है और तुम उन्हें पसंद नहीं करते!”
“तुम्हें जो सोचना है, सोचो“, शिवेन ने गुस्से से चीखते हुए कहा और कमरे से निकल गया। दोनों दो अलग–अलग कमरों में अलग–अलग व्याधि पाले हुए।” ( पृ. – 18-19 )
लेखिका ने इस अध्याय में देविका और शिवेन के चरित्र–चित्रण द्वारा स्पष्ट किया है कि यह उपन्यास एक दंपति के संबंधों पर आधारित है। प्रेम को परिभाषित करते हुए ज़िंदगी के संदर्भ में प्रेम को देखा गया है। फिल्मी गीतों में भले ही ज़िंदगी प्रेम से चलती है, लेकिन वास्तव में एडजस्टमैंट से चलती है। प्रेम विवाह और संस्थानिक विवाह यानी अरेंज मैरिज पर चर्चा की है और देविका विवाह को सात जन्मों का बंधन नहीं मानती।
दूसरा अध्याय ‘ग़ैर–ज़रूरी कहानी’ अपने नाम के अनुसार उपन्यास में ग़ैर ज़रूरी तो नहीं लेकिन इसका महत्त्व परोक्ष है। लेखिका अनु के संस्थागत विवाह को दिखाती है, लेकिन वास्तव में इस अध्याय के द्वारा देविका की नारीवादी सोच को स्पष्ट किया है, साथ ही दिवेन के प्रति प्रेम को भी दिखाया गया है। लेखिका ने इस अध्याय में पुरुष–स्त्री की समानता को लेकर बात की है।
तीसरा अध्याय ‘प्यार, बेकार बेकाम की चीज़ है’ में देविका और शिवेन के प्रथम मिलन को दिखाते हुए देविका के पहले प्रेम का वर्णन है, जिसमें वह विधर्मी अदीब से प्यार कर बैठती है। उसका दोस्त सात्त्विक भी उसे प्रेम करता है, लेकिन देविका के अदीब को चुनने से निराश होता है और दोनों के तर्क–वितर्क के माध्यम से हिंदू और इस्लाम धर्म की बुराइयाँ दिखाई गईं हैं। अंग्रेज़ी साहित्यकारों और कबीर को उद्धृत किया है। देविका–अदीब के संबंध विच्छेद का कारण भी इस्लाम की कुरीतिओं को ठहराया गया है, जिसे देविका जैसा व्यक्तित्व स्वीकार नहीं कर सकता।
चौथा अध्याय ‘शादी बरबादी’ सारिका द्वारा कहे वाक्य “प्रेमिका की माँग में सिंदूर भरते ही पुरुष प्रेमी से पति में ट्रांसफॉर्म हो जाते हैं, ज्यादा उम्मीदें मत पालना।” ( पृ. – 60 ) का विस्तार है। यह अध्याय शादी के तुरंत बाद संबंधों में पैदा हुई कड़वाहट को दिखाता है, जिसका कोई बड़ा कारण नहीं। हाँ, देविका शिवेन से प्रेमिल व्यवहार की माँग करती है, जिसे शिवेन कही–कहीं मानता भी है, लेकिन वह हर पल रोमांटिक नहीं रह पाता। देविका को शिवेन के माँ की तरफ़ झुकाव से दुखी दिखाना भी लेखिका का मक़सद है, हालाँकि लेखिका ने इस अध्याय में इसे पूरी तरह से खोला नहीं। इस अध्याय के शुरू में लेखिका ने शिवेन और देविका के प्रेम को विवाह तक पहुँचाया है और नाराज़गी के बाद शिवेन उसे भारत जाने के लिए एयरपोर्ट पर छोड़ने जा रहा है, हालाँकि शिवेन के न जाने के आग्रह से देविका खुश है, लेकिन शिवेन वापसी का टिकट मिलने की बात कहकर उसके रोमांटिक मूड पर तुषारापात कर देता है।
पाँचवें अध्याय ‘बैक फॉरवर्ड’ में देविका भारत वापस आ रही है। शिवेन चाहता है कि देविका रुके लेकिन वह रोकता नहीं। देविका अतीत में गोते लगाते हुए उन प्रसंगों को याद करती है, जो उनके विवाद का कारण हो सकते हैं, लेकिन उसे जो कारण दिखता है, वह इतना बड़ा नहीं कि संबंध विच्छेद हो जाए। देविका घर लौटने की बजाए मृदला नामक औरत के साथ हो लेती है, क्योंकि बाबा ने उसे अपनाने से इंकार कर दिया है। बाबा देविका के प्रेम विवाह से नाखुश थे, क्योंकि वे समाज से नाखुश थे और इसे आजी एक पुराने प्रसंग के माध्यम से स्पष्ट करती है। इस अध्याय में दो दिन पूर्व की कहानी उपशीर्षक के द्वारा शिवेन के मृदुला सिन्हा से मिलने के प्रसंग के माध्यम से स्पष्ट किया गया है कि वह देविका को भारत भेजने के लिए क्यों तैयार हो गया था। देविका शिवेन पर माँ के प्रभाव से क्यों दुखी है, इसे इस अध्याय में स्पष्ट किया गया है। विवाह संबंधी स्त्री–पुरुष की सोच को दिखाया है – “शादी की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि लड़कियाँ हनीमून को लेकर उत्साहित रहती हैं और लड़के सुहागरात को लेकर।” ( पृ. – 94 )
यही शिवेन और देविका के बीच मुख्य समस्या है।
छठे अध्याय ‘तुम बिन दूजा ठौर नहीं’ में देविका के जाने के बाद शिवेन देविका की बातों और आदतों को याद करता है, सुदीप और ज्योति के माध्यम से दार–ए–सलाम के लोगों और भाषा को दिखाया गया है। शिवेन पर उसकी माँ के प्रभाव और माँ के व्यवहार को स्पष्ट किया गया है। सुदीप के माध्यम से शिवेन प्रेम को समझता है।
सातवें अध्याय ‘प्रेम रोग हो गया’ में देविका मृदुला के साथ उसके घर आती है और सुनीता से मिलती है और तीनों की कहानी बताती है कि समाज बेटियों के प्रति क्रूर है। शिवेन और देविका अतीत को जीते हैं और यह अध्याय देविका और शिवेन के बीच घटे प्रेम भरे लम्हों को दिखाता है। बात–बात पर चूमने के प्रसंग बताते हैं कि शिवेन व्यवहार से उतना बोरिंग नहीं, जितना कि अब तक दिख रहा था।
आठवाँ अध्याय ‘तेरे बिना जिया लागे न’ सातवें अध्याय का विस्तार है। देविका अतीत को याद करती है और उसे एहसास होता है कि शिवेन की यादों को फ़्लश करना संभव नहीं। प्रेम में जिए गए लम्हों का चित्रण इस अध्याय में भी है, साथ ही शिवेन का काम के प्रति लगाव भी दिखाया गया है, जो उन दोनों के बीच कलह का कारण है, शिवेन का संतान चाहना भी देविका को उससे दूर ले जाने का कारण बताया गया है। इस अध्याय में पिता का पक्ष भी रखा गया है – “पापा की नाराजगी फिजूल नहीं। जब बेटी का जन्म होता है, माँ उसी दिन से उसके विवाह के सपने देखने लगती है। पिता उसी दिन से उसके दहेज के लिए पैसे जोड़ने लगते हैं। जैसे–जैसे बेटी बड़ी होती है, वैसे–वैसे वह सपना भी बड़ा होता जाता है। मम्मी के बाद उनके हिस्से का सपना भी पापा के भीतर ही बड़ा हो रहा था और जब एक इनसान के अंदर दो–दो सपने एक साथ टूटते हैं न, तो वो भी टूट जाता है। एक भग्न इनसान से किसी साबुत भाव की क्या ही उम्मीद ?” ( पृ. – 138)
मृदुला के घर पर रहते हुए देविका समाचारों के माध्यम से देश में होते बलात्कारों पर चर्चा करती है। मनुष्य के मनुष्य होने पर संदेह व्यक्त किया गया है – “कभी–कभी लगता है, हम मनुष्य नहीं, हम मात्र देह हैं।” ( पृ. – 140 )
देविका बचपन से ही लड़कों की स्वतंत्रता और लड़कियों पर लगी पाबंदियों को लेकर विरोध करती आई है। पुरुष के प्रति उसकी सोच का आधार पिता और भाइयों का व्यवहार बताया गया है। ‘द सेकेंड सेक्स’ पुस्तक की लेखिका और नारी स्वतंत्रता की पक्षधर ‘सिमोन द बोउआर’ का ज़िक्र है। ‘काफ़्का’ की प्रेम की परिभाषा दी गई और इनके साथ आजी का प्रेम को लेकर व्यावहारिक ज्ञान है। दूसरी तरफ़ शिवेन की कॉल लिस्ट में माँ की मिस्ड काल का बढ़ना, शिवेन का परेशान होना, शिवेन की स्थिति को बताता है, तो शिवेन की भाभी का तंज भारतीय समाज में प्रेम विरोधियों के चरित्र को दिखाता है। इस अध्याय में तंज़ानिया और अफ़्रीकी लोगों के बारे में भी बताया गया है।
नौवें अध्याय ‘विद्रूप क़िस्सागोई’ में बच्चों के साथ होने वाले यौन शोषण को विषय बनाया गया है। लड़कियों के नौकरी को लेकर भारतीय और पाश्चात्य समाज का तुलनात्मक वर्णन है। देविका के लेखक पक्ष को उभारा गया है। शिवेन अधीर है, लेकिन मृदुला थोड़ा वक्त और दूर रहने को कहती है।
दसवें अध्याय ‘न भेजी गई चिट्ठियाँ’ शिवेन की स्थिति का चित्रण है। सुदीप और ज्योति की महत्त्वपूर्ण भूमिका को दिखाया गया है। शिवेन देविका को चिट्ठियाँ भेजता है, लेकिन देविका उत्तर नहीं देती – “देविका का मन न भेजी गई चिट्ठियों का लिफ़ाफ़ा है।” ( पृ. – 161 )
देविका जो शिवेन की यादों से परेशान रहती है, एक स्वप्न के बाद शिवेन के प्रति लगाव को महसूस करती है – “स्वप्न का क्या अर्थ हो सकता है ?
उसके भीतर तड़प उठी है, शिवेन की। एच बी ओ पर ‘ओरिजिनल सिन‘ आ रहा है, उसके हाथ स्वतः ही देह के कोने तहखाने टटोलने लगे, आँखें बंद हो गईं, वह शिवेन को महसूस कर रही थी, अपने ऊपर।” ( पृ. – 159 )
ग्यारहवें अध्याय ‘सितारों का मिलन’ में प्रेम और विवाह पर चर्चा है और स्त्री–पुरुष दोनों के नज़रिये को दिखाया गया है – “प्रेम अंधी आसक्ति है, स्त्री प्रेमी के पैरहन में छुपे उस पुरुष को नहीं देख पाती है, जो उसकी सीमाएँ तय करना चाहता है; पुरुष प्रेमिका के भीतर छुपी उस चतुर स्त्री को नहीं देख पाता है, जो उस पर एकाधिकार चाहती है। विवाह के बाद दोनों अपने–अपने आवरण उसी तरह उतारते हैं, जैसे साँप केंचुली।” ( पृ. – 163 )
गुस्ताव यंग के विवाह को लेकर कहे गए वक्तव्य को भी दिया गया है। प्रेम विवाह और सांस्थानिक विवाह की तुलना भी इस अध्याय में है। इस अध्याय में मृदुला अपना रहस्य देविका के सामने खोलती है।
अंतिम अध्याय ‘तेरह वर्ष बाद’ में शिवेन और देविका मृदुला जी घर आए हुए हैं और वे बताते हैं – “कुछ खास नहीं बदला, शिवेन आज भी पूछता है, बाजार इन्हीं कपड़ों में चलोगी ?” देविका ने खाने की प्लेट लगाते हुए कहा।
“लेकिन इस बात के जवाब में अब तुम लड़ती नहीं,” शिवेन चहक रहा था, “हालाँकि, ये अलग बात है कि महीने में कम–से–कम दो बार, ‘अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती। मुझे तुमसे अलग होना है। मुझे भारत जाना है। मेरा टिकट करवा दो की रट जारी है ।” ( पृ. – 167)
लेकिन ये नोंक–झोंक प्रेम का स्वाद बढ़ाए हुए है ।
यह उपन्यास देविका और शिवेन के वैवाहिक संबंधों पर आधारित है, इसलिए यही दो पात्र प्रधान है, लेकिन मृदुला नामक औरत इनके बिखरते दांपत्य को सँभालने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सुदीप और ज्योति की भूमिका भी सकारात्मक है, जबकि शिवेन की माँ और भाभी नकारात्मक भूमिका में हैं। शिवेन की माँ का चरित्र अन्य पात्रों की बातों के जरिए स्पष्ट होता है। देविका के ताऊ जी की समझदारी देविका–अदीब के प्रेम प्रसंग के समय दिखाई गई है। देविका की मृत माँ कथावाचक के रूप में मौजूद है तो आजी और बाबा के बारे में भी वर्णन है। देविका के विद्रोही चरित्र को दिखाते हुए लेखिका पुरुषों की मानसिकता को दिखाती है। लेखिका ने देविका के चरित्र का हर पहलू इस उपन्यास में दिखाया है। लेखिका ने उसके जिदीपन और गुस्सैल स्वभाव को दिखाया है – ऐसा शिशुहठ ! कभी–कभी तो लगता है, इसका नाम देविका नहीं, हठिता रखना चाहिए था।” ( पृ. – 23)
उसके ग़ुस्से के बारे में कहा गया है – “गुस्सा हमेशा देविका की नाक पर बैठा रहता है, सबसे ऊपर, गोल शिखभाग पर। क्षण भर में ही टाइफाइड के ताप की तरह मगज पर चढ़ती है, फिर जल्दी न उतरता। नटखट बच्चे की तरह हैरान करती !” ( पृ. – 17 )
“देविका के ज़िदी होने को कारण सहित दिखाया है – “उफ्फ, इसकी जिद भी कितनी जिदी है!
जिद से देविका का पुराना रिश्ता है, जो ठान ले, कर मानती है। बचपन में ही मेरी मौत के बाद पापा के अतिरिक्त प्यार ने जिदी बना दिया। इतना जिदी कि माँग पूरी नहीं होने पर खाना–पीना छोड़ अन्ना की तरह अनशन पर बैठ जाती। पापा हमेशा अपराध–बोध से भर जाते, “ऊपर जा, उसे क्या जवाब दूँगा?” बस यही उनकी कमजोरी बनती गई और देविका की मजबूती ! अपनी बात मनवाने की मजबूती, जिद पूरी करवाने की मजबूती !” ( पृ. – 15 )
देविका सिर्फ़ ग़ुस्सैल और ज़िदी नहीं नासमझ भी है – “तीन दिन बीते, नींद की टेबलेट्स निगल सोई रहती है। जब आँख खुलती तो पेट से आती गुड़–गुड़ की आवाज शांत करने के लिए चाय पी लेती है। शायद जानती नहीं हो कि खाली चाय पीने से पेट की गुड़–गुड़ कम नहीं होती, बल्कि और बढ़ जाती है, कभी–कभी तो उलटी भी आती है और उसे लगता है वह प्रेगनेंट है। उसने आजी से सुना है, शादी के बाद उलटी आने का मतलब प्रेगनेंट होना होता है। वह तय मान चुकी है कि वह माँ बननेवाली है, अभी पिछले हफ़्ते ही तो…” ( पृ. – 20-21)
उपन्यास की शुरूआत में ही लेखिका देविका के शौक के बारे में बताती है। उसे लॉन्जरी का शौक है और उसकी मॉडल बनने की तमन्ना को दिखाया गया है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि उसके पास अपने चुनाव के लिए कोई तर्क नहीं – “उसका यह नवेला शौक बहुत अजीब है। चाकू के अलावा उसके अन्य कई अजीब शौक हैं; जैसे पेंसिल देख के.जी. के बच्चों की तरह मचल जाना और लांजरी, लांजरी तो कपड़ों से भी अधिक खरीदना; जिसमें ब्लैक रंग की ब्रा उसकी सबसे फेवरेट है, इतनी फेवरेट कि ब्लैक को अगर दूसरे रंगों की ब्रेजर से अलग किया जाए तो आधी से अधिक ब्लैक निकलेंगी। कभी–कभी वह खुद भी असमंजस में पड़ जाती है कि ब्लैक और ब्लैक में कौन सी ब्लैक पहने, लेसी या पैडेड, चौड़े स्ट्रैपवाली या ट्रांस्पेरेंट ? लेकिन हाँ, जब लाल या आसमानी रंग के कपड़े पहनती है तो हमेशा ही पतले स्ट्रैपवाली ब्लैक ब्रा चुनती है, क्योंकि ? क्योंकि–व्योंकी कुछ नहीं, उसे ऐसा ही पसंद है, इसलिए शुरू से वो ऐसा ही करती आई है। ( पृ. – 11-12)
लेखिका बताती है कि देविका को ऑनलाइन चैटिंग की लत है और इसी लत के चलते वह शिवेन से मिलती है।
कथावाचक अपनी बेटी के साथ–साथ शिवेन के चरित्र को उद्घाटित करती है – “अगर देविका में कुछ दोष है तो शिवेन भी कोई दूध का धुला नहीं, असलता में ‘ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती‘ इन दोनों के संबंध में यह लोकोक्ति अभिधा में चरितार्थ होती है!
शिवेन को हर बात निरर्थक टीका–टिप्पणी करने की आदत है, कुछ सोचकर नहीं बोलता, या क्या ही जाने सोचकर ही बोलता हो, मैं दावे से नहीं कह सकती, लेकिन बात बढ़ जाने पर वह बड़ी ही आसानी से कह देता है, “मैंने तो यूँ ही कहा, सोचकर नहीं कहा” तब देविका जिद पर अड़ जाती है, “लेकिन फिर कहा ही क्यों ? और शिवेन निरुत्तर हो खीज दूसरे कमरे में चला जाता है, लेकिन दूसरे कमरे में चले जाना समस्या का हल नहीं बल्कि ‘क्यों‘ की व्याख्या है, लेकिन शिवेन सचमुच नहीं जानता, उसने ऐसा क्यों कहा !
“अहंकार स्पष्टीकरण चाहता है!”
वैसे शिवेन भला लड़का है, इस बात की मैं तस्दीक करती हूँ कि मेरी सिर चढ़ी–नकचढ़ी बेटी के लिए शिवेन से अधिक परफेक्ट मैच कोई दूसरा हो ही नहीं सकता था । ( पृ. – 24)
कथावाचक शिवेन के बारे में आगे कहती है – “मुझे शिवेन की यही बात सबसे ज्यादा अच्छी लगी थी, उसने देविका की दुश्वारी अपने जिम्मे ले ली थी और तभी मैं समझ गई थी कि शिवेन ही देविका का परफेक्ट मैच है, बावजूद इसके कि शिवेन मनाने के हुनर से खाली था और उसे रूठने के शिल्प में महारत हासिल थी !” ( पृ. – 71 )
शरीर सौष्ठव के द्वारा भी चरित्र का वर्णन किया गया है – “देवी ने देखा वह लगभग सत्तू के कदवाला दरमियाना काँट का बाँका है, किसी यूनानी दंत कथा के नायक सदृशय, चेहरे पर घनी पलकोंवाली बड़ी बिल्लौरी आँखें, ठुड्डी पर बाईं ओर नीचे एक मस्सा और ऊँचे ललाट पर बेतरतीब से बिखरे हुए भूरे बाल। जाने कितनी कुँवारियों की आँखों का स्वप्न अदीब शाह जुल्फिकार (यद्यपि उसके नाम के साथ खानदान के कई नाम लगे थे, जिनसे इस कहानी का कोई बावस्ता नहीं) उससे मुखातिब था।” (पृ. – 50 )
लेखिका ने गुणों के वर्णन द्वारा भी चरित्र चित्रण किया है – “क्या खास है उस विधर्मी में?”
“वह हमसे अलग है, उसकी चिंताएँ निराली हैं। पर्यावरण की चिंता, प्रदूषण की चिंता, जंगल और पानी की चिंता उसे सोने नहीं देती, उसके सपने में जंगल धू–धू जलता रहता है, किसी भी बहते नल का पानी उस आग को बुझा नहीं पाता, पूरी दुनिया एक जहरीली गैस की चपेट में होती है, उसका दम घुटता रहता है, जबकि हम परिवार और समाज से बाहर न देखते हैं, न सोचते हैं। वह जुदा बंदा है!” ( पृ. – 53 )
शिवेन की समझदारी को दिखाया गया है – “चैटिंग और असल जिंदगी एक–दूसरे से अलग होती हैं, मैं नहीं चाहता था कि तुम आकुलता में कोई फैसला लो। विवाह भावना का आवेग नहीं, एक–दूसरे के साथ सामंजस्य का निर्वहन है।” ( पृ. – 70 )
उपन्यास का मुख्य विषय दो प्रेमियों के वैवाहिक बंधन में बँधने के बाद आनेवाली समस्यों को लेकर है, इसलिए प्रेम और विवाह को लेकर लेखिका के वक्तव्य महत्त्वपूर्ण हैं। विवाह को दासता का प्रतीक कहा गया है – “विवाह एक बिनबोला समझौता है, जिसमें पुरुष स्त्री के माथे पर सिंदूर से स्वामित्व लिखता है और स्त्री सिर झुका दासता स्वीकारती है।” ( पृ. – 15 )
परिवार नामक संस्था पुरुष को महत्त्व देते हुए स्त्री को दोयम सिद्ध करती है – “परिवार की व्यवस्था में बच्चों के तमाम दोषों का ठीकरा फोड़ने के लिए माँ का सिर सबसे उपयुक्त स्थान माना गया है और गुणों की कलगी के लिए पिता का सिर!” ( पृ. – 45 )
प्रेम में अधिकार जमाने की प्रवृति है – “मेरे भीतर कुछ टूटने की आवाज आई थी, किरचन समेटती हुई कुछ क्षण चुप रही, फिर किसी प्रवीण धनुर्धर की तरह प्रत्यंचा चढ़ा प्रश्न तीर छोड़ा, “तो तुम्हारे प्रेम अवलंब रिश्ते से विवाह उपरांत प्रेम–फूल पर बैठी तितली की तरह क्यों उड़ जाती है ?”
क्योंकि प्रेम स्त्री को दासता में बाँधने का सुनियोजित क्रम है, उसने मगरिब में ढलती साँझ–सी कहा, “असलता में पुरुष प्यार नहीं स्त्री पर अधिकार चाहता है।“
मैं कुरेदती हूँ, “अधिकार तो स्त्री भी चाहती है।“
स्त्री पुरुष के प्रेम पर अधिकार चाहती है, पुरुष उसके अस्तित्व पर। वह बेझिझक, बेखौफ कह देगी !” ( पृ. – 14 )
उपन्यास में पुरुष के अहं को दिखाया गया है, देविका आज की स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। स्त्री पर लगे बंधनों पर देविका विचार करती हुए लिंग को योनि से अधिक महत्व दिए जाने पर सवाल खड़ा करती है – “बड़ी माँ ने कहा था, लड़कियों का मुसकराना ही हँसना होता है, हँसते हुए दाँत दिखें तो विदग्धा कहलाती है!
उस दिवस वह बहुत देर तक सोचती रही। मात्र लिंग की भिन्नता पुरुष और स्त्री के दैनिक जीवन को कितने पृथक–पृथक ढंग से प्रभावित करती है, जबकि यदि लिंग बीज है तो योनी संवर्धन। सृष्टि के विकास में दोनों की सहभागिता बराबर की है; किंतु क्या ही विडंबना योनि तहों में छुपी हुई कोई निकृष्ट वस्तु और लिंग जग पूजित !” ( पृ. – 27 )
देविका की यही सोच उपन्यास में नारीवाद को प्रस्तुत करती है – “देविका में विद्रोही तंतु शुरूआत से ही सक्रिय थे, जिस कारण उसने नाक छिदवाने से साफ मना कर दिया, अनामिका ने टोका तो दो टूक जवाब हाजिर था, “मैं आप जैसी नहीं!”
“ठीक मेरी तरह ही हो, स्त्री हो, तुम्हारी भी योनि और स्तन हैं. आज नहीं तो कल समझ जाओगी,” अनु यह बात भी दबे स्वर में ही कहती।
“योनि और स्तन तो पशुओं के भी होते हैं। हमारी चेतना, मनुष्य होने की चेतना, हमें पशुओं से अलग खड़ा करती है।” सारिका ने किसी घोर स्त्रीवादी की तरह कहा!
“हमारी माँ–चाची पशु तो नहीं।” अनु ने प्रतिरोध किया !
“पशु से बेहतर भी नहीं। जब तक कि आप अपना स्टैंड नहीं लेते, आप पशु ही हैं मनुष्य होने के लिए। “यू हैव टू स्टैंड फॉर योर ओन स्टैंड!” देविका ने लंबी लकीर खींच दी।
कई दफा मुझे शुबहा होता है कि बित्ते भर की इस लड़की में नाओमी वोल्फे की आत्मा तो नहीं घुस गई है या क्या ही मालूम किसी घोर स्त्रीवादी का पुनः जन्म हो !” ( पृ. – 35 )
प्रकृति के स्त्री शरीर को कोमल बनाने या स्तन–योनि देने से भी स्त्री पुरुषों द्वारा प्रताड़ित हुई है, इस व्यथा को भी दिखाया गया है – “बराबरी, बराबर तो हमें प्रकृति ने भी नहीं बनाया। हमारी संरचना में इतनी कमजोरियाँ ठूँस दीं कि हम चाहकर भी बराबरी की नहीं सोच सकते, वह स्तन और योनि जो एक तरफ सृष्टि के विकास के लिए वरदान है, तो दूसरी तरफ अभिशाप भी है, मुझे नहीं सुहाता बेटियों की तरफ उठनेवाली कामुक नजर, मुझे नहीं भाता आइटम सॉन्ग के नाम पर लंपट पुरुषों को ललचाती, उनकी कामाग्नि को भड़काती अधनंगी स्त्री पर द्विअर्थी भोंडे नृत्य एवं गीत फिल्माना; किंतु स्त्री देह को बाजार में जिस प्रकार परोसा जा रहा है, उससे तो लगता है, स्त्रियाँ गोश्त का टुकड़ा मात्र हैं!” ( पृ. – 36)
कोई भी धर्म या समाज स्त्री हितैषी नहीं – “जबकि विद्रूप सच यह है कि पूरी दुनिया में स्त्री मात्र पुरुषों के सुख का साधन है, जब भी स्त्री ने इससे ऊपर होना चाहा, उसके पैरों में धर्म और समुदाय के नाम की बेड़ियाँ डाल दी गईं !” ( पृ. – 56 )
लेखिका शादी के समय लड़केवालों द्वारा लड़की देखने की परंपरा को भी एक बुराई के रूप में दिखाया है – “बेहतर है सारिका ने अपने वर का चुनाव खुद कर लिया, अन्यथा कन्या निरीक्षण के नाम पर उसे न जाने कितनी मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ता !” (पृ. – 63 )
पुरुष और विवाह को बुरा कहते हुए भी उपन्यास की टैग लाइन के आधार पर लेखिका प्रेम के महत्त्व को स्थापित करना चाहती है, इसलिए वह आदर्श प्यार के बारे में राय प्रस्तुत करती है – “दोस्ती और प्रेम दो अलग शय हैं, दोनों की अलग–अलग परिधि है; दोस्त होने की परिधि के पार प्रेम की परिधि में प्रवेश करते ही दोस्त होना विलीन हो जाते हैं और जब दोस्ती और प्रेम एक–दूसरे में विलय हो जाता है तब प्रेम कालजयी हो जाता है, सुधा और चंदन के जैसे।” ( पृ. – 70 )
शिवेन को भी प्रेम के सही अर्थों का पता चलता है – “उस दौरान मैंने जाना, प्रेम में जीना क्या होता है! प्रेम इतना भी सरल नहीं जितना हम समझते हैं। मन की पुरपेंच गलियों से होकर गुजरता है। बहुत दूर निकल जाने से पहले रोक लो, खामोशी के कुएँ में गिरने से पहले हाथ पकड़ लो। प्रेम को कहीं जाने मत दो, क्योंकि एक प्रेम ही जीवन को चलायमान रखता है।” ( पृ. – 117 )
शादी और प्रेम को लेकर शिवेन और देविका के संवाद में शिवेन अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करते हुए प्रेम के रहस्य को प्रगट करता है – “और मैंने सुना है, प्यार उससे होता है, जिसके साथ वक्त बिताते हैं और बीते कुछ माह से मेरे वक्त पर तुम्हारा एकाधिकार रहा है।” ( पृ. – 70)
विवाह और प्रेम के अतिरिक्त अन्य विषय भी इस उपन्यास में उठाए गए हैं। सुंदरता के चित्रण के साथ–साथ भारतीयों की मानसिकता को भी उद्घाटित किया गया है – “सारिका के नैन– नक्श तो मुझ जैसे थे, किंतु रंग ठीक साहब–सा गंदुमी, इस संबंध में वे हमेशा परेशान रहा करते, बावजूद इसके कि अपनी आभा से वह भीड़ में भी चिह्नित कर ली जाती रही है। उसकी आँखें जरा फैली हुई हैं, गाढ़ी स्याह पुतलियाँ, मानो माँ से छूटा कोई बछड़ा। जब हँसती तो आँखों का रंग बादामी हो आता और गालों में ठीक मुझ से गड्ढे पड़ते, जो न तो अनामिका को मिले, न देविका को, मुझे तो लगता है, ऊपरवाले ने कोई कमी नहीं की, लेकिन हम ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहाँ फेयर होना ही लवली है।” ( पृ. – 61 )
हिंदू–मुस्लिम धर्म में प्रचलित बुराइयों को भी दिखाया गया है और सहिष्णुता को दिखाया गया है – “वैसे तो हमारे घर में मुसलमानों से कोई विशेष दुविधा नहीं, बीच के कई वर्षों तक मराजिन एक मुसलिम रही, आपके स्कूल के दिनों के बेहद प्रिय मित्र के घर से आज भी ईदी आती है और हमारे यहाँ से दिवाली जाती रहती है।”
समाज में प्रचलित भेदभाव का चित्रण है – “आप सोच रहे होंगे, एक ही घर में तीन–तीन बैठक ! ऐश्वर्य का मुजाहिरा है और क्या है? कितने तो मेहमान आते होंगे? लेकिन बात आनेवाले मेहमानों की नहीं, बल्कि उनके वर्गीकरण की है। मेहमानों को तीन वर्गों में बाँटा गया, इसलिए तीन तरह की बैठक की व्यवस्था की गई। जिनका घर के भीतरी हिस्से से कोई सरोकार न हो, उनके लिए बाबा के साथवाले बैठक में चाय–नाश्ते की व्यवस्था की जाती थी और तुलनात्मक कम विशिष्ट यानी घरेलू संबंध रखनेवाले आत्मीय मेहमान की आवभगत बड़ी बैठक में होती है।” ( पृ. – 32 )
लोक प्रचलित बातें कही गई हैं – “पिता पर गई बेटियों के भाग्य बड़े होते हैं।” ( पृ. – 64)
अपशगुन को मानते हुए इसके निवारण के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों को दिखाया गया है – “आठवाँ फेरा अनर्थकारी हो सकता है।“
“पुराणों में आठ सिद्धियाँ और आठ वसु बताए गए हैं, यहाँ तक कि ईशानपुत्र के आठ अवतार का वर्णन है, तो फिर आठ अंक अनिष्टकारी कैसे हो सकता है,” कहते हुए उसने देविका का हाथ पकड़ आठवाँ फेरा भी ले लिया, माँ बुदबुदाई थी, “ब्राह्मणों के वचन की अवहेलना ही अमंगलकारी है!” फिर मन–ही–मन ‘शिरडी के साईं दर्शन के बाद ही नव युगल सांसारिक जीवन में प्रवेश करेंगे’ मन्नत माँग ली।” ( पृ. – 93)
लेखिका यह भी दिखाती है कि छोटे शहर के लोगों की सोच भी अलग होती है – “हम उस छोटे शहर से हैं, जहाँ लड़के लड़की की दोस्ती को प्रेम माना जाता है।” ( पृ. – 68)
उपन्यास में संवाद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संवाद के माध्यम से लेखिका ने देविका के चरित्र को दिखाया है – “एक बार उसने पूछा था, “माँ, तुम अधिकांश नीले रंग की साड़ी क्यों पहनती हो ?”
“क्योंकि तुम्हारे पापा को नीला रंग बेहद पसंद है!”
“अच्छा तो तुम्हें कौन सा रंग सुहाता है?” उसने हुलसकर पूछा था।
“कुछ याद नहीं आ रहा, शायद पीला, नहीं हरा, ओह नीला ! मेरी स्मृति में मेरी रुचि के अवशेष ठीक उसी प्रकार शेष थे, जैसे पसिर ते उजास में अदृष्ट होते नक्षत्र” तत्काल मैं क्षोभ से भर गई!
“किंतु नीला तो पापा की पसंद है ?”
“तुम्हारे पापा की पसंद ही अब मेरी पसंद है।“
“ऐसा क्यों है माँ?”
“क्योंकि स्त्री के लिए प्रेम प्रथम होता है।“
“और पुरुष के लिए ?”
“हमारे समाज में लड़कियाँ प्रश्न नहीं पूछती !” मैंने बरज दिया, फिर उसने कभी कुछ नहीं पूछा, सब आप ही समझती गई।” ( पृ. – 14 )
संवाद कथानक को गति प्रदान करने में सहायक हैं। संवाद के साथ–साथ लेखिका ने ज़रूरत अनुसार अनेक जगहों पर विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। ‘बाबा दरबार‘ उपनाम देविका का धरा है। पहली दफा उपनाम सुन बाबा भी खूब हँसे थे। ‘बाबा दरबार‘ नामकरण के पीछे थी वहाँ की खास सज्जा, जो इस प्रकार थी, ठीक बीच में बाबा का बिछौना, कई तरह की कुरसी और बेंचों से घिरा हुआ, कोमल मखमल के खोल चढ़े गद्देवाली सागौन कुरसी घर के सदस्यों के लिए अबोले ही आरक्षित थी, सामान्य कुरसियाँ सामान्य आगंतुकों के लिए, तो बेंच घर के सेवकों के लिए, गृहकार्यों से फारिग हो सेवक वहीं सुस्ताते बाबूजी से दुनियाभर की अखबारी खबरें सुनते और तमाम बूझे–अबूझे विमर्श में दोपहर रमाते, घर के कामकाज से मुक्त होते ही वे मुरगे की भाँति उड़ बाबा दरबार पहुँच पतंग–सी नमालूम बहस उड़ाते कि जैसे थकान उतारने की अचूक तरकीब हो कोई दूजी नहीं!” ( पृ. – 28-29 )
सजने–सँवरने को दिखाया है – “सारिका ने बहाने से पलटकर अपनी भरी आँखें पोंछ लीं। उसे काजल लगाना बहुत पसंद है, बाएँ हाथ की पहली उँगली से आँखें नीचे खींच, दाएँ हाथ की बीच की उँगली से निचले कोर पर मोटी परत, फिर लगातार कई बार पलकें झपकाना ताकि ऊपरी कोर भी काजल से भीग जाए और अंत में बंद आँखों पर पाउडर पफ करना, पाउडर से काजल नहीं फैलती, यह उसे छोटी माँ ने बताया था। काजल लगाने का यह तरीका उसने छोटी माँ से सीखा है।” ( पृ. – 61)
तंजानिया का वर्णन है – “ऋतु आम की है, वैसे ऋतु कोई भी हो, दार में आम हमेशा मिलता है। भारत की तरह ही तंजानिया में भी आम की कई नस्ल मिलती हैं। स्वाद में भारत के लँगड़ा और कीमत में अल्फांसो से एप्पल मैंगो को देविका ‘बौना आम‘ कहा करती। ( पृ. – 132)
ज्योति के माध्यम से स्थानीय लोगों के बारे में बताया गया है – “यहाँ के लोग रीति पसंद हैं, राह चलते अनजान भी अभिवादन करने से नहीं चूकते। आप जवाब न दें तो अशिष्ट मान लेते हैं। ज्योति बुनियादी तौर समझा रही थी, ‘पोले‘ (सॉरी) कहकर आप इनके दुःख में शरीक हो सकते हैं, ये तुरंत ही आपको ‘रफीकी‘ (दोस्त) मान लेंगे और ‘साना‘ का उपयोग बहुत के अर्थ में होता है। जैसे अधिक दुःख प्रकट करना हो तो ‘पोले साना‘ और इसी तरह ‘असंते‘ (शुक्रिया) के साथ ‘साना‘ जोड़कर अधिक आभार व्यक्त कर सकते हैं।” ( पृ. – 111)
कथा के काल को दिखाने के लिए लेखकीय टिप्पणी का प्रयोग किया गया है – (यह किस्सा बाजार के उदारीकरण से पहले का है, तब घर में एक कार होना बड़ी बात होती थी और जींस पहनना तो उससे भी बड़ी बात!) ( पृ. – 29 )
भाषा किसी भी साहित्यिक रचना का महत्त्वपूर्ण पक्ष होती है। निस्संदेह उपन्यास ‘साज़–बाज़’ की भाषा साहित्यिक है, लेकिन इसे दुरूह कहा जा सकता है, जो लेखिका ने सायास किया है। ‘विश्रंभ’ शब्द सामान्य पाठक के लिए उतना ही गूढ़ है, जितना कि मुहाबिसा, तवील आदि। पाठक को संभवतः कुछ शब्दों के लिए शब्दकोश की शरण लेनी पड़ सकती है। फ़ुटनोट के रूप में अर्थ इसका हल हो सकता था। लेखिका दारे–सलाम रहती है, उपन्यास का नायक दारे–सलाम रहता है और दारे–सलाम की भाषा अरबी है, जिसका स्पष्ट प्रभाव उपन्यास पर पड़ना स्वाभाविक है, लेकिन भाषा कहीं–कहीं पात्रानुसार न होकर लेखकानुसार लगती है, क्योंकि एक तरफ़ संस्कृत का श्लोक भी इसमें दिया गया है –
क्षणे रुष्टाः क्षणे तुष्टाः रुष्टा–तुष्टा क्षणे–क्षणे।
अव्यवस्थित चित्तानाम् प्रसादोऽपि भयंकरः ।। ( पृ. – 73)
तत्सम शब्द – सद्य:, सिक्त, अजस्र, विभ्रम, भ्रमित, परामर्श, अनभिज्ञ, ऋणात्मक आदि हैं और दूसरी तरफ़ अरबी–फ़ारसी के शब्द भरपूर मात्रा में है। हालाँकि आँचलिक बोली का प्रयोग लेखिका ने पात्रानुकूल और प्रसंगानुकूल ही किया है – “हम तुम्हारे बाबा को मालिक कहें और ऊ हमको लक्ष्मी कहें, कभी–कभी एकांत में माधवी भी कहें।” (पृ. – 82 )
स्थानीय भाषा स्वाहिली के बारे में लेखिका देविका के माध्यम से बताती है और स्थानीय शब्दों से लेखिका शिवेन के माध्यम से देविका के साथ साथ पाठकों को भी परिचित करवाती है, जैसे – सिगारा (सिगरेट ), करांगा ( मूँगफली ) काका ( भाई ) चाय ( चाई )
शिवेन ने ज्योति से यह भाषा सीखी थी –
“हवारी (आप कैसे हैं?) के जवाब में जूरी (बढ़िया) कहें और माम्बो (हैलो) के जवाब में जाम्बो (हाय)। “अनुप्रास ध्यान में रखिएगा शिवेन !”
“अंकल, आपको पता है स्वाहिली में ‘नानी‘ का मतलब क्या होता है ?” चौथी कक्षा में पढ़ते कविश ने बेहद भोलेपन से पूछा। “नहीं, मैं तो नहीं जानता, आप बताओ।“
“क्या, क्यों और कौन । तीनों के लिए नानी।” ( पृ. – 110-111)
लेखिका के अनेक वाक्य सूक्तियों जैसा रस देते हैं –
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“दरअसल आदत ही मोहब्बत है और मोहब्बत एक ख़राब आदत है।” ( पृ. – 44)
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“असल सौंदर्य अधूरेपन में है, संपूर्णता में नीरसता।” ( पृ. – 52 )
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“प्रेम आसमानी महल है, शादी ज़मीनी हक़ीक़त।” ( पृ. – 71 )
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“देते वख़त हाथ ऊपर अउ लेते हुए नीचे, संबंध की सुंदरता इसी में मुदित होती है।” ( पृ. – 82)
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“भीतरी दर्द को छुपाने की ख़ातिर पुरुषों ने हँसी को ईजाद किया।” ( पृ. -124)
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“प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं होती, सिर्फ़ प्यार के सबूत होते हैं।” ( पृ. -124)
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“जब हम प्यार में होते हैं, एक–दूजे की पसंद जान लेते हैं।” ( पृ. -134)
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“घर किसी एक से नहीं होता, घर बनता है दो लोगों के प्रेम और सामंजस्य से।” ( पृ. -158)
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“प्रेम की गुलाबी रूमानियत के उलट, विवाह असलियत की खुरदरी जमीं है।” ( पृ. -163)
उपन्यास की विस्तृत और अच्छी समीक्षा। पढ़ने की उत्सुकता पैदा करती है।