नस्लवाद, प्रजातिवाद या रेसिज़्म की अवधारणा के मूल में जातिवाद, दासप्रथा, रंगभेद आदि के साथ-साथ वंश, शारीरिक विन्यास, राष्ट्र, भाषा, धर्म, संस्कृति आदि आते हैं।  इसमें एक नस्ल अपने को दूसरी से श्रेष्ठ (या कमतर) मानती है और शत्रुता, हिंसा तथा घृणा की भावना को पोषित करती है। यह अवधारणा नकारात्मक और विषैली है, भेदभाव और पूर्वाग्रहों पर आधारित है। नस्लीय भेदभाव के उन्मूलन के लिए कानून बन रहे हैं, सम्मेलन हो रहे हैं। माना जा रहा है कि नस्लवाद का समर्थन या पोषण वैज्ञानिक रूप से गलत, नैतिक स्तर पर अमानवीय और सामाजिक स्तर पर अन्यायपूर्ण है। 21 मार्च को 2001 से नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस  भी घोषित किया गया है। बराक ओबामा का अमेरिका का राष्ट्रपति बनना या ऋषि सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री होना नस्लवाद के लिए बड़ी चुनौती है। प्रवासी महिला लेखिकाओं के उपन्यासों में नस्लवाद का, उसके अनेक रूपों का, पीड़ित वर्ग पर पड़ने वाले उसके प्रभाव का विस्तृत चित्रण मिलता है। मूलत: यहाँ मुख्यत: अमेरिकन, ब्रिटेनी और भारतीयों के संदर्भ में इस विषय पर बात की गई है।   
‘‘सितारों में सूराख’ प्रवासी साहित्यकार अनिलप्रभा कुमार का भावना प्रकाशन, नई दिल्ली-91 से 2021 में प्रकाशित प्रथम उपन्यास है। यह वर्षों पहले विवाहोपरांत अमेरिका में आकर बसी उस जसलीन/ जैस्सी की कहानी है जिसे सितारों के इस देश में भी ज़िदगी खोखली, शून्य, दिशाहीन लगती है। क्यों? 
क्योंकि नस्लवाद अमेरिकी इतिहास, राजनीति और संस्कृति का अभिन्न अंग हैं और गन कल्चर की जड़े इतनी गहरी हैं कि इन्हें उखाड़ फेंकना असंभव सा है। अमेरिका के पच्चास राज्यों के प्रतीक पच्चास सितारों वाले ध्वज में बंदूक संस्कृति ने सूराख कर दिये हैं। कभी भी कोई भी अमेरिकन मानसिक रोगी, प्रभुत्व कामना या हीन ग्रंथि या डिप्रेशन का शिकार हो शॉपिंग मॉल पर, शैक्षणिक संस्थाओं पर, क्लब या कैसीनो पर, मैक्सिकन या अश्वेतों पर गोलियां चला उनकी बलि लेने का हक लिए है। बंदूक माइक के लिए मर्दानगी का प्रतीक है। उसका गौरव, उसकी ब्यूटीज़ हैं। उसके पास अच्छा- खासा गन- कलेक्शन है। जॉन के पास पाँच बन्दूकें हैं। जय भी बंदूक खरीदता है। गन संस्कृति- यानी नस्लवाद, बंदूक और लाशें। अनिलप्रभा कुमार लिखती हैं- 
यह गन कल्चर अमेरिकी कल्चर का पर्याय है। यूँ कहें कि आज का यह अमेरिका स्थापित ही बंदूक के बल पर हुआ है। सभी जानते हैं कि यहाँ के मूल निवासी रेड इंडियन्स को बंदूक के बल पर ही तो पराजित कर उनकी ज़मीन हथियाई गई थी। फिर अमेरिकन रेवोल्यूशनरी वार। सब इस बात की गवाही देते हैं कि जिसके पास ताकत है, वही विजेता रहा है। ”
नस्लवादियों द्वारा शिक्षण संस्थानों पर बंदूकों से हमले आम बात है। गोलियों की आवाजें, घायल साथी, खून की धाराएँ, धुआं, चीत्कार, लाशें, खौफ, सिसकियाँ, पथराई आँखें, तनाव- मृत्यु से यह सीधा साक्षात्कार है। चिन्नी के स्कूल पर भी ऐसा  ही हमला होता है। सत्रह विदयार्थी अध्यापक मारे जाते हैं। प्रिय सहपाठी समीर की हत्या इस किशोर बिन ब्याही बच्ची को वैधव्य सा दर्द दे जाती है। साथ की सीट वाला छात्र जब नहीं रहता, तो कैसा लगता है। डैनी की बहन ओब्री मारी जाती है। दहशत का अजगर दिल- दिमाग पर रेंगता है। चर्च के बाहर गोलियों की बौछार, कैसीनो में गोलाबारी, सबवे में लूट- पाट और हत्याएं, अश्वेतों या मैक्सिकन मूल के लोगों की हत्या। पराये देश में जब अपने नस्लवाद के, गोलियों के शिकार हो जाते हैं, तो कितना बेगानापन, फालतूपन महसूस होता है। कोई भी कहीं भी सुरक्षित नहीं है- कैलिफोर्निया, टैक्सास, ओहाओ, इलीनायस, फ्लॉरिडा, लासवेगन, ओरलेन्डो। 
अनिल प्रभा कुमार ने सीरिया में होने वाली गोलियों की दनदनाहट, नाइट क्लब में चल रही गोलियां, सबवे में बंदूक की नोक पर पड़ने वाले डाके- यानी ढेरों नसलवादी दुर्घटनाओं वीभत्स चित्र दिये हैं- चीखें, अंधेरा, गिरते पड़ते लोग, खून, सायरन, एम्बुलेन्स। 
मूलत: अमेरिकी राजनेता श्वेत राष्ट्रवाद के समर्थक हैं, यानी उनके वक्तव्यों में नस्लवाद, नफरत और कट्टरता है। 
लिखती हैं, यहाँ सहकर्मी होते हैं, मित्र नहीं-
अश्वेत तो खैर हैं ही अलग। महिलाए कितनी भी मिली जुली क्यों न हों, पुरुषवर्ग अपनी सुविधानुसार उन्हें भी अलग कर देता है। इतालवी हैं तो एक तरह का भाईचारा या यहूदी हैं तो दूसरी तरह का सांझापन।”  
जैसा नस्लवाद क्रूर इतिहास अमेरिका यूरोप के पास है, वैसी ही वीभत्स भारत विभाजन की त्रासदी है।  अमेरिका में रह रहे भारतीय और पाकिस्तानी प्रवासियों में अपनी भाषा, खान- पान, संस्कृति के कारण आत्मीयता पनप ही आती है, किन्तु विभाजन के समय हुई नृशंसता, वहशत बीच की नफरत को नहीं मिटा पा रही है, छुरों के नंगे नाच, लूट- पाट, बलात्कारों की शृंखला, जिसने जय के दादा- दादी को, विस्थापितों को ज़िंदा लाशों में बदल दिया था। जय को भी  छुरों के पैशाचिक नाच, कुएं में गिरती युवतियाँ, दादी की विक्षिप्तता के दृश्य हांट करते हैं। इसी कारण जय बेटी चिन्मया की मुस्लिम लड़के समीर खान के साथ दोस्ती स्वीकार नहीं कर पाता। 
 द्वितीय विश्वयुद्ध में भी नस्लवाद छाया रहा। जिस बर्बरता से छह मिलियन यहूदियों का संहार किया गया, नाज़ियों द्वारा हजारों लोग रोज़ मौत के घाट उतारे गए, चार गैस चैम्बर बनाए गए – उस नस्लवादी हैवानियत को जेरूसलम के लोग भूल नहीं सकते । 
‘पानी केरा बुदबुदा’ 2017 में किताबघर, दिल्ली से प्रकाशित सुषम बेदी का नौवां और अंतिम उपन्यास है। नायिका पिया कश्मीर से दिल्ली और दिल्ली से विदेश पहुँचती है। प्रिया इटली, रोम, लंदन, न्यू मेक्सिको वगैरह घूम चुकी है। वह कश्मीर की कली है। कश्मीर- एक भूला हुआ सपना, एक गहरे दबा हुआ दर्द है। जहाँ से घर-बाहर- सब छीन-झपट कर मुस्लिम आतंकवादियों द्वारा कश्मीरी पंडितों को निकाल दिया गया, देश निकाला दे दिया गया। एक पैनल में सलमान नाम देख विचलित हो कहती है-
सारे ऐसे ही होते हैं। धर्म के पक्के। हम उनकी नज़र में काफिर हैं। हमें मारकर उन्हें बहिश्त मिलता है, जन्नत मिलती है। कितनी अमानवीय सोच है। सारा कश्मीर हम हिन्दुओं से खाली करवा लिया। या मार डाला या हमें भागना पड़ा।  
स्वदेश राणा का ‘कोठेवाली’ पूर्णिमा वर्मन की वेब पत्रिका ‘अभिव्यक्ति’ में संग्रहित तीन लघु उपन्यासों में से एक है। कोठेवाली का कथाक्षेत्र विभाजन पूर्व के गुजरात तहसील के ढक्की दरवाजे की गली से लेकर से लेकर अमृतसर और लंदन तक फैला है और कथा समय 1930 से 1970 तक। शुरूआत में स्वदेश राणा कहती हैं कि विभाजन से पहले हिन्दू- मुस्लिम मिल-जुल कर रहते थे। ढक्की दरवाजे की इस गली में बदरीलाल, लाजो, बेकरी वाला बख्तियार, अर्जी नफीस हुकुमचंद, ठेकेदार निसार अहमद, मुनियारी, पंसारी, लोहार, मोची, नाई, आढ़ती, दर्जी, कसाई, सराफ़- सब घी- शक्कर की तरह रहते हैं। जबकि विभाजन के समय हवा बदल जाती है। बेकरी वाले बख्तियार की घरवाली बदरीलाल के साथ रह रही सात माह की गर्भवती बदरुनिस्सा से कहती है
काफर की औलाद को इस मुसलमानों की गली में पैदा करोगी तो हम सब की खैर नहीं। तुम्हारे घर में लगाई आग हम सबको जला देगी। लाहौर चली जाओ, बाद में कभी लौट आना।  
बदरूनिस्सा छोटी बहन जाहिदा को लेकर लाहौर जाने वाली खचाखच भरी गाड़ी तो पकड़ती है, मगर उससे कभी उतरती नहीं। गाड़ी में ही मृत माँ की सतमाही बच्ची ताहिरा जन्म लेती है और मौसी जाहिदा की गोद भर जाती है। विभाजन के समय भारत आ रहा बदरीलाल भी रास्ते के खून- खराबे में ही दम तोड़ देता है। यानी दोनों ही नस्लवाद का शिकार होते हैं। 
शाम भर बातें’ दिव्या माथुर का 2015 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित प्रथम उपन्यास है। कथा कुछ घंटों का समय लिए है, यानी रविवार की दोपहर डेढ़ बजे से देर शाम तक। स्थान ब्रिटेन है। घटना मकरंद और मीता की शादी की बीसवीं वर्षगांठ के संदर्भ में आयोजित पार्टी की है। 
उन्होंने सौ लोगों को आमंत्रण पत्र भेजे हैं। दूसरे देशों वाले तो नहीं, पर ब्रिटेन के 200 मील दूर तक के मेहमान अपनी राल्स रायस, लेटेस्ट मर्सिडीस या दूसरी महँगी और पॉश कारों में पहुंचे हैं। भारतीयों की पार्टी में अगर कोई अंग्रेज़ आ जाए तो मेजबान का कद ऊँचा हो जाता है। रंजीत विशेष इसलिए है कि उसके यहाँ माली, हाउस कीपर सब गोरे ही हैं। शमीम के साथ दामाद रिचर्ड और सरूर के साथ उसकी लिव-इन पार्टनर जूली का आना इसीलिए मीता को बहुत भाता है। दुगुने पैसे खर्च कर इसीलिए पोलिश मेड लूसी रखी जाती है। गौरी चमड़ी से चाकरी करवाने से आखिरकार इज्जत तो बढ़ती ही है। दिव्या माथुर कहती हैं कि रंगभेद/ नसलवाद की जड़ें और अपने को दोयम मानने की बात या हीनता ग्रंथि भारतीयों की मानसिकता में भी गहरे पैठी हुई हैं। 
‘पॉल की तीर्थयात्रा’ अर्चना पेन्यूली का राजपाल एण्ड सन्ज से 2016 में प्रकाशित तीसरा उपन्यास है। पॉल और नीना के इस रिश्ते का उदात्त प्रेम धीरे धीरे गहरे विषाद में बदलने लगता है, क्योंकि दोनों के देश और संस्कृति अलग हैं। कहीं भी जायेँ, लोग गोरे यूरोपियन पुरुष और साँवली भारतीय स्त्री को अलग ढंग से ही देखते हैं । देवरानी लारा ‘इंडियन बहू’ कहकर उसकी खिल्ली उड़ाती है। करीना, जोहाना सौतेले पिता का कभी भी मज़ाक उड़ा देती हैं।  पॉल को अपनी पारंपरिक स्काटिश पोशाक पहनना बहुत पसंद है, जबकि नीना को उसकी धारीदार स्कर्ट घाघरा ही लगती है। 
‘कुछ गाँव गाँव, कुछ शहर-शहर’ ब्रिटेन की हिन्दी कहानीकार, गजलकार, उपन्यासकार नीना पॉल का तीसरा उपन्यास है। ‘कुछ गाँव गाँव, कुछ शहर शहर’ एक प्रवासी परिवार की तीन पीढ़ियों की संघर्ष गाथा लिए है- नानी, बेटी, जमाई और नातिन तथा नस्लवाद को भी बार- बार झेलने की त्रासदी है। कभी नानी सरला गुजरात के नवसारी में रहती थी। विवाहोपरांत युगांडा में पति के साथ आई और फिर यहीं बस गई। यही बेटी सरोज का जन्म, पालन-पोषण और शादी हुई। यानी नवसारी जन्म स्थल और यूगांडा कर्मस्थल बना। यहाँ के  गुजराती, भारतवंशी, एशियन लोग बहुत सम्पन्न थे। इतने सम्पन्न कि स्थानीय लोग इनके यहाँ मजदूरी या दूसरे छोटे-मोटे काम करके अपनी जीविका जुटाते। यूगांडा के राष्ट्रपति ईदी अमीन को यही नागवार गुजरा। इसीलिए उन्होंने खुलेआम ऐलान किया कि सभी भारतवंशी, एशियन युगांडा छोड़ कर एक सप्ताह के अंदर, अपनी सारी जायदाद, धन-दौलत छोड़कर और सिर्फ दो सूटकेस में थोड़ा सा जरूरी सामान तथा 55 डॉलर लेकर देश छोड़ दें। सरला, सरोज और सुरेश पाँच महीने की निशा को लेकर लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर खाली हाथ उतरते हैं। 
रंगभेद, नस्लवाद या अंग्रेजों के सुपीरियेरिटी कॉम्प्लेक्स का उपन्यासकार ने विस्तृत वर्णन किया है। चमड़ी का रंग, खानपान और भाषा को लेकर अंग्रेज़ भारतीयों को हेय मानते रहे हैं। भारतीय भी नए देश, नई भाषा, नए लोगों के कारण गुट बनाकर रहना ही पसंद करते थे। स्कूलों में अंग्रेज़ और भारतीय बच्चों के अलग- अलग ग्रुप रहते और खेल के मैदान में दोनों की भिड़न्त भी हो जाया करती। अंग्रेज़ अध्यापक भी इनसे भेद- भाव करते। इतने एशियन्स को देख ब्रिटेन के लोगों ने इनके विरुद्ध आवाज़ भी उठाई।  यानी स्कूल के दिनों से ही निशा को रंगभेद की इस त्रासदी का सामना करना पड़ता है। मित्र लिंडा की माँ नायिका निशा को एलियन कहती है-
न जाने यह लड़की किन एलियन्स को लेकर घर आ जाती है। उफ- – – सारा घर बदबू से भर गया है। क्या किसी अपने जैसे से दोस्ती नहीं कर सकती। न जानें कितने किटाणु छोड़ गई होगी ब्लेकी…. ।
निशा की रूममेट एंजी उसे ब्लैक बास्टर्ड कहती मारने के लिए हाथ उठाती है। एंडरिया कारखाने में सरोज का हाथ जला देती है। बलिण्डा को भारतीयों से डर लगता है कि कहीं भारत में अँग्रेजी राज का बदला लेने तो नही आए ?
ग्रेट  ब्रिटेन चार टापुओं में बंटा हुआ है- इंग्लैंड, आयरलैंड, स्कॉटलैंड और वेल्स। अपने को ऊंचा और सभ्य मानने वाले यह लोग आयरिश लोगों को भी पसंद नहीं करते, जबकि हैं तो वे भी गोरे ही। उनके बच्चों को भी अपने स्कूलों में पढ़ाना नहीं चाहते। इंग्लिश पब में आयरिश को बीयर तक नहीं मिलती और न ही वे इनके चर्च में जा सकते हैं। अंग्रेज़ मरीज काली नर्सों से टीका तक लगवाना नहीं चाहते। पराकाष्ठा तो तब है, जब वे उनपर थूकने से भी बाज़ नहीं आते। विरोधाभास देखिये कि एक ओर अंग्रेज़ भारतीयों से घृणा करते हैं और दूसरी ओर अपनी गौरी चमड़ी को गंदमी करने के लिए ढेरों उपाय करते रहते हैं। 
प्रवासी उपन्यासों में रंगभेद अनेक स्तरों पर चित्रित है। यह गौरे और गौरे, गौरे और गंदमी, गौरे और काले  सब को अपना शिकार बनाए है। अमेरिकन, ब्रिटिश, यूरोपियन, डेनिश, मिक्सीकन, आयरिश, भारतीय, हिन्दू, मुस्लिम, अफ्रीकन सब नस्लवाद को भोग- झेल रहे हैं या इसका पोषण कर रहे हैं। नफरत हत्याओं और अभद्र उच्चारक को जन्म दे रही है।   एक ही देश में रह रहे लोगों के मध्य एक कांचिया दीवार अलगाव उत्पन्न कर रही है। नस्लवाद भूमंडलीकरण या विश्वग्राम की अवधारणा के लिए चुन्नौती है। मानवतावाद पर प्रश्नचिन्ह है। विश्व शांति उन्मूलक है है। मानसिक तनाव का उद्बोधक और हिंसा का समर्थक है। नकारात्मक चिंतन इसी के अंक में पलता है। यह विश्वघाती, रूढ, आत्मकेंद्रित और पिछड़ी मानसिकता की ओर ले जाता है। सर्वपक्षीय वैश्विक विकास में बाधक है। जब तक वैयक्तिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक स्तर पर जब-जब इसका समर्थन होता रहेगा, वैश्विक प्रगति में रोड़े अटकते रहें।

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