“सर, अपनी लेखन यात्रा के बारे में कुछ बताइये? आपको पढ़कर तो यही लगता है कि आप बचपन से पढ़ने के शौक़ीन रहे हैं। आप समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं।”
साक्षात्कार लेने आये व्यक्ति ने प्रश्न किया तो मैं मुस्कुरा उठा।याद आया बचपन और जवानी का वह दौर जब पढ़ाई के नाम से मेरी रूह फ़ना हो जाती थी। माता-पिता दोनों ही मुझे लेकर बहुत चिंतित रहते थे। एक रोज़ मेरे पिता ने मुझसे प्रश्न किया कि अख़िर क्यों मैं पढ़ाई को लेकर जी चुराता हूँ? मैंने भी अपनी सफ़ाई में कह दिया-“आप लोग कभी कहीं घुमाने ले जाने की बात क्यों नहीं करते? हर वक्त पढ़ाई की ही बात क्यों करते हैं।” उसके बाद ही पापा मुझे कोलकाता घुमाने लेकर गये उन्होंने वहाँ मुझे बहुत बड़ी लाइब्रेरी भी दिखाई और यह भी बताया कि यह भारत का सबसे बड़ा पुस्तकालय है। मैं चाहता हूँ कि जो भी तुम्हारे मन में हो वह सब तुम लिखा करो और एक दिन तुम्हारी लिखी हुई पुस्तक को यहाँ स्थान मिले। उसके बाद ही पापा हमें छोड़ गए थे। लेकिन उसी दिन से मैंने वयस्क मन में पनपने वाले हर भाव को पन्नों पर उतारना शुरू किया और खुद से एक वादा किया कि पढ़ेंगे क्योंकि पढ़ेंगे तभी बढ़ेंगे।
मेरे ख़याल को तोड़ते हुए उसने अपना प्रश्न दोहरा दिया। मैंने भी जवाब में कह दिया-“अवाम से बस एक बात कहना चाहता हूँ कि चलो वादा करें कि हम पढ़ने की आदत डालेंगे क्योंकि जब आप पढ़ेंगे तभी तो हम लिखेंगे।
2 – इंतज़ाम
सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए एहसास हुआ कि चढ़ते वक्त तकलीफ़ का सामना करना पड़ता है।शरीर को ज़ोर लगाना पड़ता है और उतरते वक्त एक हल्कापन साथ रहता है। यह विज्ञान का कोई नियम हो सकता है किन्तु मेरा तजुर्बा तो मुझे बस यही सिखाता है कि ऊपर से नीचे उतरो तो हल्का तन-मन लेकर ही आओ। हॉल में डाइनिंग टेबल पकवानों से बिछी पड़ी थी और मैं उसकी ख़ुशबू और भव्यता को देख ख़ुद को पीछे धकेलने से रोकती रही किंतु मन था कि वह उसी घरौंदे में जाकर मुझे पुकारने लगा-
“बहू,यह लो बारह रोटी केर आटा जाओ बनाकर रख दो।”
“पर अम्मा जी,यह तनिक कम लग रहा है।”
“कम नहीं है।हम तो इसमें पंद्रह रोटी बनई देई।तुम कल्ल की आई हमका सिखावन में लगी रहती हो।”
“अम्मा जी,कल एक रोटी कम पड़ गई रही। छोटे भैया ने तीन खा ली थी।”
“अरे तो का हुआ हमका एक कम दई देती।हम ग़म खा लेतेन अपने लड़िका के लाय।”
“अरे,हम ऐसा कुछ नहीं कह रहे हैं।”
“जाओ फिर बनाये लेयो।” थोड़ा सा रुकते हुए बोली-“हियां आओ नीकी गृहस्थी चलावे केर एक मंत्र सुनो आएके।”
एकदम कान के पास आकर बोली-
“तरकारी तनिक कम सुवाद केरी बनाओ करो फिर देखेयो आटा पूरो परि जाई।”
घर में ईश्वर का दिया सब कुछ था। कमी थी तो बस उनकी नियत की।
वह अलदर्जे की कंजूस महिला थीं। कंजूसी का आलम यह कि उनकी साड़ी के पैबंद धीरे-धीरे उनकी धोती को एक नया रंग-रूप दे देते थे। बाबूजी के बाद दोनों बेटों ने सब कुछ उन्हीं के हाथ में रखते हुए उनका मान तो रखा ही उनकी कंजूसी का भी उतना ही मान रखा। मैं नई-नवेली खाते-पहनते घर से एक समृद्ध घर में ही आई थी। यह अलग बात की उस घर की चौखट के भीतर की सोच में बहुत कंगाली थी। उनका दिया आटा तसले में लिए मैं हिसाब लगा रही होती कि कैसे इतने में उनकी बताई संख्या पूरी करूँ कि तब तक वह तेल नून मसाला लिए सब्ज़ी की मात्रा बताकर किसी और चीज़ को सँभालने में लग जाती।रोज़ ही आधे-अधूरे पेट में पूरा परिवार खुश रहता।बात ने तब बिगड़ना शुरू किया जब देवरानी आ गई। अम्मा जी के ऐसे व्यवहार को देखते हुए उसने अलग रहने का फ़रमान सुना दिया।अम्मा जी को काटो तो ख़ून नहीं बोली-“जो अलग हुई तो कुछो न देब अपनी गृहस्थी से।” उसने भी कह दिया-“पिता की संपति पर बेटे का हक़ है।कोर्ट से ले लूँगी।”
उस दिन उन्होंने मुझसे पहली बार अपना दिल खोल और बोली- “बहू,पैसा कमाना एतना आसान नाही होत है।तुम्हारे ससुर ने बहुतै मेहनत से यह पैसा कमाया रहा। हम दूनों जने होटल में दूसरे केरी जूठन साफ़ करित रहैन और सारे दिन डाँट खाईत रहैन।हम साल भर बड़ी मुश्किल से एक-एक पैसा बचावा और इनका पूरे सौ रुपैया दीन। वहिसे ई चाय केर सामान ख़रीदीन हम चाय बनाई और ई सामने वाली बजरिया माँ घूम-घूम के चाय बेचे लाग। फिर क़िस्मत हमार साथ दीनीस और रोज़-रोज़ चढ़त-उतरत बखत के साथ हम चाय के बाद सब्ज़ी और वाहिके बाद किराना स्टोर तक पहुँच गए। तुम्हरे ससुर हमेशा कहत रहे कि हमरी जोड़ी भई पूँजी ज़िंदगी का सुखद बनाइस है।”
वह आँसुओं से भीग रही थी फिर भी बोलती रही- “हम कंजूस नहीं हन मुला हमरा परिवार वह दिन न देखे जो हम देखेन यही मारे सब कुछ सिरजत रहित हन।”
न जाने किस दर्द से उस रात वह गुजरी की अगली सुबह उनकी साँस उनका साथ छोड़ गई।
आज उनकी तेरवी है। पंडित जी ने कहा है कि उनकी आत्मा अतृप्त इस धरती से गई है। उनके लिए भोज ऐसा रखो ताकि उनको मुक्ति मिले। उनके बेटों ने उनकी आत्मा की शांति के लिए आज एक विशाल तेरवी भोज का इंतज़ाम किया है।
बहुत अधिक मार्मिक!
दूसरी कथा ने तो मन भिगो दिया! जिस परिवेश में रहते हैं वैसी आदत हो जाती है। जो लोग मेहनत से कमाते हैं वो लोग दाने- दाने की कीमत जानते हैं।
जमीन से ऊपर उठाना बहुत मुश्किल होता है। एक पल ऐसा लगा कि मौसम भी इसीलिए रो रहा है।मन और आँखें दोनों ही भीगे हमारे। कोई कोई महिलाएँ बहुत रूड होती हैं। भावनाओं को समझती ही नहीं।
बात ऐसी लगी कि तीर की तरह।
बेहतरीन सजन के लिए बधाइयाँ आपको ज्योत्स्ना जी!
ज्योत्सना सिंह जी की सुन्दर रचनाएं..!
सुन्दर रचनाएं..!
साक्षात्कार शानदार लघुकथा है। बधाई
ज्योत्स्ना जी बहुत सुंदर रचना आपको बधाई
बहुत अधिक मार्मिक!
दूसरी कथा ने तो मन भिगो दिया! जिस परिवेश में रहते हैं वैसी आदत हो जाती है। जो लोग मेहनत से कमाते हैं वो लोग दाने- दाने की कीमत जानते हैं।
जमीन से ऊपर उठाना बहुत मुश्किल होता है। एक पल ऐसा लगा कि मौसम भी इसीलिए रो रहा है।मन और आँखें दोनों ही भीगे हमारे। कोई कोई महिलाएँ बहुत रूड होती हैं। भावनाओं को समझती ही नहीं।
बात ऐसी लगी कि तीर की तरह।
बेहतरीन सजन के लिए बधाइयाँ आपको ज्योत्स्ना जी!
भावपूर्ण कहानी है।