गुलशन बावरा (साभार : Cinestan)

संघर्ष के दिनों में गुलशन बावरा की मुलाक़ात संगीतकार कल्याण जी से हो गयी। वे यानि कि कल्याणजी आनन्दजी उन दिनों फ़िल्म ‘सट्टा बाज़ार’ के लिये संगीत तैयार कर रहे थे। उन्होंने गुलशन मेहता को भी मौक़ा दिया। गुलशन ने गीत लिखा, “तुम्हें याद होगा, कभी हम मिले थे / मुहब्बत की राहों में मिल कर चले थे।” किसी को विश्वास ही नहीं हुआ कि इतनी छोटी उम्र का एक लड़का इतना गहरा गीत लिख सकता है।  फ़िल्म वितरक शांतिभाई दवे की सलाह पर गुलशन मेहता के नाम से मेहता को हटा दिया गया और उन्हें तख़्ख़लुस दिया गया ‘बावरा’ और अब उन्हें गुलशन बावरा के नाम से ही जाना जाने लगा।

गुलशन बावरा हिन्दी सिनेमा में गीत भी लिखते थे और अभिनय भी करते थे। उनका जन्म 12 अप्रैल 1937 को अविभाजित भारत में पंजाब के एक गाँव शेख़ुपुरा में हुआ था जो कि लाहौर शहर के बेहद क़रीब था। उनका असली नाम था गुलशन मेहता। 
गुलशन बावरा की माँ एक धार्मिक महिला थी जिनका असर गुलशन पर भी पड़ रहा था मगर जब 1947 में भारत का विभाजन हुआ तो दंगाइयों ने 10 साल के बालक गुलशन की आँखों के सामने उसके माता पिता को मौत के घाट उतार दिया। देश का विभाजन गुलशन के जीवन पर जैसे कहर बन कर टूट पड़ा था। यह दर्द उम्र भर उनके दिल से निकल नहीं पाया। 
गुलशन अपनी बड़ी बहन के पास दिल्ली में रहने चला आया। यहीं से दिल्ली विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक की डिग्री ली। उस समय के बम्बई में जब रेलवे में नौकरियां निकलीं तो गुलशन मेहता ने भी नौकरी के लिये अर्ज़ी दे दी और उनकी नियुक्ति भी हो गयी – रेलवे में गुड्स क्लर्क के तौर पर। यह वर्ष था 1955। 
इससे पहले दिल्ली में अपने छात्र जीवन में भी गुलशन को कविता और गीत लिखने का शौक़ था। उनका यही शौक़ उन्हें गीतकार के रूप में प्रतिष्ठित करने के काम आया। ज़ाहिर है कि क्लर्की उन्हें अधिक दिन बाँध कर नहीं रख पाई और उनका फ़िल्मी संघर्ष शुरू हो गया। अब उनकी मंज़िल थी फ़िल्मी गीतकार बनने की। 
गुलशन बावरा को पहला मौक़ा मिला सन 1959 में फ़िल्म ‘चन्द्रसेना’ के लिये। शुरूआती दिनों में तुलनात्मक रूप से छोटी फ़िल्मों में ही काम मिल रहा था। मगर इस फ़िल्म से उन्हें न तो सफलता मिली और न ही शौहरत।
मगर संघर्ष के इन दिनों में गुलशन बावरा की मुलाक़ात संगीतकार कल्याण जी से हो गयी। वे यानि कि कल्याणजी आनन्दजी उन दिनों फ़िल्म ‘सट्टा बाज़ार’ के लिये संगीत तैयार कर रहे थे। उन्होंने गुलशन मेहता को भी मौक़ा दिया। गुलशन ने गीत लिखा, “तुम्हें याद होगा, कभी हम मिले थे / मुहब्बत की राहों में मिल कर चले थे।” किसी को विश्वास ही नहीं हुआ कि इतनी छोटी उम्र का एक लड़का इतना गहरा गीत लिख सकता है।  फ़िल्म वितरक शांतिभाई दवे की सलाह पर गुलशन मेहता के नाम से मेहता को हटा दिया गया और उन्हें तख़्ख़लुस दिया गया ‘बावरा’ और अब उन्हें गुलशन बावरा के नाम से ही जाना जाने लगा।  
मगर इतना बेहतरीन गीत लिखने के बाद भी गुलशन बावरा का संघर्ष का दौर समाप्त नहीं हुआ। हालाँकि फ़िल्म ‘सट्टा बाज़ार’ का गीत – ‘चान्दी के चन्द टुकड़ों के लिये ईमान को बेचा जाता है…’ ने लोगों की यादों में अपनी स्थाई जगह बना ली थी।  
क़रीब आठ वर्ष तक उनका संघर्ष जारी रहा और फिर अचानक देश की धरती ने सोना उगला और फ़िल्म ‘उपकार’ के लिये उनका लिखा गीत, कल्याणजी आनन्दजी का संगीत, महेन्द्र कपूर की आवाज़ और मनोज कुमार के अभिनय ने देश को एक नया राष्ट्रगीत दे दिया – “मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती”।
दरअसल रेलवे की गुड्स क्लर्क की नौकरी का भी गुलशन बावरा के बेहतरीन गीत लिखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका है। वे अक्स्रर पँजाब से आई गेहूँ से लदी बोरियाँ देखा करते थे और वहीं उनके मन में कभी न भुलाई जा सकने वाली पंक्तियां बन पड़ीं जो हिन्दी सिनेमा में अमर हो गयीं – ‘मेरे देश की धरती सोना उगले….’
कहते हैं कि गुलशन बावरा ने यह गीत राज कपूर की फिल्‍म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के लिए लिखा था। यह गीत राज कपूर को पसंद भी आ गया था, लेकिन तब तक वे शैलेन्द्र के गीत “होठों पे सच्चाई रहती है, जहाँ दिल में सफ़ाई रहती है” को फ़ाइनल कर चुके थे। अंततः मनोज कुमार ने ‘उपकार’ में इसका सही इस्तेमाल किया।
गुलशन बावरा ने अपने फ़िल्मी कैरियर में कल्याण जी आनन्द जी के साथ मिल कर क़रीब 69 गीत लिखे तो वहीं राहुल देव बर्मन के साथ 150 के करीब गीत लिखे। वैसे अपने पूरे 49 साल के कैरियर में उन्होंने क़रीब क़रीब 250 गीत लिखे। 
गुलशन बावरा ने एक साक्षात्कार में इस बात को स्वीकार किया था कि वह न तो बहुत ज्यादा काम करने में विश्वास रखते हैं और न ही काम के साथ समझौता करने में। उन्होंन आगे कहा, ‘‘मैं बहुत ज्यादा और आक्रामक तरीके से काम करने में विश्वास नहीं रखता। मैंने अपने समय में एक फिल्म के लिए 90,000 रुपये तक लिए वो भी ऐसे समय में जब कोई व्यक्ति 65,000 रुपये तक में एक बड़ा फ्लैट खरीद सकता था।’’ और अपने काम के प्रति समर्पण के बारे में उन्होंने कहा था ‘‘मैंने कभी अपनी कीमत से समझौता नहीं किया क्योंकि मैंने कभी अपने काम से समझौता नहीं किया।’’ 
यारी है ईमान मेरा गीत का एक दृश्य
गुलशन बावरा ने अपने फ़िल्मी गीतों में जीवन के हर रंग के गीतों को अल्फाज़ दिए। उनके लिखे गीतों में ‘दोस्ती, रोमांस, मस्ती, ग़म’ आदि विभिन्न पहलू देखने को मिलते हैं। ‘ज़ंजीर’ फ़िल्म का गीत ‘यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िन्दगी’ दोस्ती की दास्तान बयां करता है, तो ‘दुग्गी पे दुग्गी हो या सत्ते पे सत्ता’ गीत मस्ती के आलम में डूबा हुआ है। उन्होंने बिंदास प्यार करने वाले जवां दिलों के लिए भी ‘खुल्ल्म खुल्ला प्यार करेंगे’, ‘कसमें वादे निभाएंगे हम’, जैसे गीत लिखे। उनके पास हर मौके के लिए गीत था।
गुलशन बावरा की कुछ प्रमुख फ़िल्मों में शामिल थीं – ‘सट्टा बाज़ार’, ‘उपकार’, ‘ज़ंजीर’, ‘दुल्हा दुल्हन’, ‘सच्चा झूठा’, ‘रफ़ू चक्कर’, ‘खेल खेल में’, ‘सत्ते पे सत्ता’, ‘कसमें वादे’, ‘अगर तुम न होते’, ‘पुकार’, ‘हाथ की सफ़ाई’, ‘लाल बंगला’, ‘झूठा कहीं का’ और ‘सनम तेरी क़सम’। 
गुलशन बावरा को दो बार फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड से भी सम्मानित होने का गौरव हासिल हुआ। पहला गीत था “मेरे देश की धरती सोना उगले (उपकार)” और दूसरा गीत था “यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िन्दगी (ज़ंजीर)।”
यदि उनके लिखे दस श्रेष्ठ गीतों की बात की जाए तो सूची कुछ ऐसे बनेगी – 
  1. तुम्हें याद होगा, कभी हम मिले थे (सट्टा बाज़ार – 1959)
  2. मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती (उपकार – 1967)
  3. कसमें वादे प्यार वफ़ा, सब बातें हैं बातों का क्या (उपकार – 1967)
  4. चान्दी की दीवार न तोड़ी प्यार भरा दिल तोड़ दिया (विश्वास – 1969)
  5. यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िन्दगी (ज़ंजीर – 1973)
  6. वादा करले साजना, तेरे बिना मैं न रहूं (हाथ की सफ़ाई – 1974)
  7. खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों (रफ़ू चक्कर – 1975)
  8. आती रहेंगी बहारें, जाती रहेंगी बहारें (कसमें वादे – 1978)
  9. प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया (सत्ते पे सत्ता – 1982)
  10. हमें और जीने की चाहत न होती, अगर तुम न होते (अगर तुम न होते – 1983)
गुलशन बावरा दिखने में दुबले-पतले शरीर के थे। उनका व्यक्तित्व हंसमुख था, और वे कवि से ज़्यादा कॉमेडियन दिखाई देते थे। इस गुण के कारण कई निर्माताओं ने उनसे अपनी फ़िल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएँ भी अभिनीत करवायीं। विभाजन का दर्द उन्होंने कभी ज़ाहिर नहीं होने दिया। 
राहुल देव बर्मन उनके करीबी मित्र थे। आर.डी. के संगीत कक्ष में प्राय: सभी मित्रों की बैठक होती थी और खूब ठहाके लगाये जाते थे। गुलशन बावरा उस ग्रुप के स्थायी ‘जोकर’ थे। यहीं से उनकी मित्रता किशोर कुमार से हुई। फिर क्या था अब तो दोनों लोग मिलकर हास्य की नई-नई स्थितियाँ गढ़ते थे।
गुलशन बावरा को उनके अंतिम दिनों में जब ‘किशोर कुमार’ सम्मान के लिए चुना गया तो उनके चहरे पर अद्भुत संतोष के भाव उभरते दिखाई दिए। उनके लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण क्षण था। एक तरफ़ यह पुरस्कार उनके लिए विभाजन की त्रासदी से लेकर जीवन पर्यंत किये गए संघर्ष का इनाम था, दूसरी ओर अपने पुराने मित्र की स्मृति में मिलने वाला पुरस्कार एक अनमोल तोहफ़े से कम नहीं था।
अपने एक टीवी इंटरव्यू में गुलशन बावरा ने कहा था- “मैं गाने लिख-लिखकर रखता था। फिर कहानी सुनने के बाद सिचुएशन के अनुसार गीतों का चयन करता था। कहानी के साथ चलना ज़रूरी है तभी गाने हिट होते हैं। आज किसे फुर्सत है कहानी सुनने की? और कहानी है कहाँ? विदेशी फ़िल्मों की नकल या दो-चार फ़िल्मों का मिश्रण। कहानी और विजन दोनों ही गायब हैं फ़िल्मों से।” 
गुलशन बावरा आज के गीत-संगीत से भी विचलित थे। वे कहा करते थे- “गीतों में भावना नहीं है और संगीत में आत्मा। पहले कहानी और सिचुएशन को ध्यान में रखकर रचना बनती थी। आजकल दर्शकों को जेहन में रखा जाता है। उस जमाने में गीत-संगीत और दृश्यों का उम्दा तालमेल होता था। आजकल मात्र दृश्यों को प्रभावी बनाया जाता है। 
अंतिम दिनों में उनकी पीड़ा थी- “अब हमें पूछने वाला कौन है? जो प्रतिष्ठा और सम्मान मैंने पुराने गीतों को रचकर हासिल किया था, क्या वह आज चल रहे सस्ते गीत और घटिया धुनों के साथ बरकरार रखा जा सकता है?” लेखन से उनका रिश्ता आजीवन जुड़ा रहा। चाहे फ़िल्मों के लिए नहीं, अपने रचनाकार मन के लिए ही सही। नई फ़िल्मों पर उनकी तल्ख टिप्पणी कि “मेरी बर्दाश्त से बाहर हैं नई फ़िल्में”…।
7 अगस्त 2009 को गुलशन बावरा का निधन मुंबई के पाली हिल स्थित निवास में लंबी बीमारी के बाद दिल का दौरा पड़ने के बाद हो गया। उनके इच्छानुसार उनकी मृत देह को जे.जे. अस्पताल को दान कर दिया गया।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

4 टिप्पणी

  1. गुलशन बावरा के जीवन और सृजन संघर्ष पर विस्तृत आलेख
    अच्छा लगा । आज के गीतकारों के लिए प्रेरणात्मक सोच है
    आपकी
    सादर धन्यवाद
    प्रभा

  2. एक आदर्श गीतकार के रूप में स्थापित गुलशन बावरा अपने श्रेष्ठ गीतों के लिए तो निस्संदेह अमर रहेंगे ही ; मरणोपरांत देहदान के पुण्य कार्य को समाजिक सरोकार से जोड़ने के कारण भी वह मानवता के इतिहास में सदा अमर रहेंगे। भावभीनी श्रद्धांजलि।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.