सपना सिंह

सपना सिंह ने इधर अपनी कहानियों से हिन्दी कथा साहित्य प्रेमियों का ध्यान खींचा है। अपने आस पास के समान्य से चरित्रों को लेकर वह कथा का वितान रचती हैं और अपनी सूक्ष्म दृष्टि से उस पात्र के मार्मिक पक्ष को उभारकर पाठक के समक्ष रख देती हैं। उनकी कहानियों में पाठक भी एक पात्र की तरह कहानी के साथ सफर पर होता है। कैमरे की तरह दृश्य पकड़ती हैं उनकी कहानियां और अक्सर बिना जजमेंटल हुए पाठक को अपना निष्कर्ष निकालने के लिए छोड़ देती हैं। लम्बे समय से लिख रही हैं इसलिए इनकी आरम्भिक कहानियां भी मेच्योर हैं। कम लिखती हैं, क्योंकि तभी लिख पाती हैं जब बिना लिखे  सांस लेना मुहाल हो। जल्द ही नया उपन्यास आने वाला है और एक नया उपन्यास लिखा भी जा रहा है। पुरवाई टीम ने सपना सिंह से उनके लेखन और वर्तमान लेखकीय परिदृश्य पर बातचीत की है।

पुरवाई टीम – अपने शुरूआती जीवन के बारे में बताएं। क्या वजह थी कि आपने लेखक बनना तय किया।
सपना सिंह – जबसे होश संभाला है मैने अपने आसपास किताबें देखी है। 70-80 के दशक में प्रकाशित होने वाली शायद ही कोई पत्रिका होगी जो हमारे घर न आती हो। पापा, साहित्य प्रेमी थे और लघुकथा लेखक भी थे। मम्मी निःसंग भाव से सबकुछ पढ़ती थीं। हम बच्चों के लिए कोई सेंसर नहीं था, जो चाहे पढ़ते थे। इस तरह लेखक बनने का पूरा वातावरण था । पर लेखक बनना दरअसल बहुत बाद में तय किया। (हंसते हुए) क्योंकि कुछ और बन पाने की काबिलियत नही थी, इसलिए लेखक बन गए  । 
पुरवाई टीम –   आपकी पहली ही कहानी ‘हँस ‘ जैसी पत्रिका में छपी थी 1993 में और अपने समय के हिसाब से बहुत बोल्ड कहानी थी वो। प्रेम, विवाहेतर सम्बन्ध, स्त्री विमर्श के कई शेड्स उस कहानी में थे। कुछ बताइए उस कहानी के बारे में, क्या और कैसी प्रतिक्रिया मिली थी । पहली कहानी के बाद आप लम्बे समय के लिए नेपथ्य में चली गयीं । कैसा जीवन था वो, और कैसी परिस्थितियां थीं वो कि लेखन संभव न हो पाया?  कैसे दुबारा लिखने का हौसला हुआ? 
सपना सिंह – ‘हंस’ में कहानी छपने से पहले कुछ छोटी रचनाएं धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स में छप चुकी थीं।  1993 में जब ‘उम्र जितना लम्बा प्यार ‘ हंस में छपी तो किसी को विश्वास भी नहीं हुआ कि लेखिका की उम्र मात्र 22-23 साल होगी। फोटो में तो और भी छोटी लगती थी। अगले कुछ अंको में कहानी पर खूब चर्चा भी हुई ।मेरे पास भी ढेर पत्र आये। 94 मे विवाह हो गया। ज्वाइंट फैमिली की छोटी बहू का  रोल निभाना मुझे दिन में तारे दिखाता । हर रोज एक कहानी बनती और दिमाग में ही शहीद हो  जाती। बहुत बुरा वक्त था वो। एक समय तो ऐसा भी लगा, जैसे मैने जीवन में एक लाइन भी कभी नहीं लिखी हो जैसे। स्वयं पर से विश्वास उठ गया था। बहुत वक्त जाया हुआ। पर आखिर 2010 में ‘हंस’ के स्तंभ -जिन्होंने मुझे बिगाड़ ‘ से फिर लेखन शुरु हुआ। अगले ही अंक में कहानी ‘डर’ प्रकाशित हुई और फिर रुका हुआ सफर शुरू हो गया। 
पुरवाई टीम – आपके स्त्री पात्र बड़े जाने पहचाने होते हैं। सारी परिस्थितियां जानी पहचानी होती हैं।  पर पात्रों के रिएक्शन उन्हें विशेष बना देते हैं। इस संदर्भ में ‘ कंफ़र्ट ज़ोन से बाहर ‘ और ‘सांच कि झूठ ‘ की नायिकाओं को रख सकते । क्या ये पात्र सचमुच ऐसे ही थे अथवा आपकी कल्पना ने इन्हें गढ़ा है।
सपना सिंह – जीवन की स्थिति परिस्थिति कैसी भी हो मेरी कथा नायिकायें उनसे जूझने में यकीन करती हैं। वरिष्ठ विद्वान और आलोचक स्वर्गीय शरत कुमार जी ने मेरे पहले संग्रह के लोकार्पण के समय मेरी नायिकाओं के बारे में बड़ी मानेखेज़ बात कही थी। उन्होंने मेरी कथा नायिकाओं की तुलना अन्ना कैरनिना से की थी और उन्हें अन्ना से आगे की स्त्री बताया था। ‘अन्ना कैरनिना ‘ जैसे साहित्य के किवदंती बन चुके चरित्र से अपनी कहानियों की स्त्री तुलना होना ही मेरा सौभाग्य है, हालाँकि अन्ना का अंत मुझे नहीं पसंद। 
रही बात कहानी की स्त्रियों के सच्चे या काल्पनिक होने की तो ये तो तथ्य है कि, पात्र लेखक के हाथ की कठपुतली होते। लेखक अपने कथा संसार में ईश्वर का रोल प्ले करता है लिहाज़ा कल्पना और यथार्थ को किस मात्रा मे वो मिलायेगा इसकी कैफियत किसी को भी देने की जरुरत नहीं होती। 
पुरवाई टीम – आजकल साहित्य में कई तरह के विमर्श चल रहे। लेखक एक एजेंडे के तहत लिख रहे। कभी कभी, संपादक कहते भी हैं कि, इस विषय पर लिखिए, अमुक विषय ज्यादा चल रहा…। क्या आप भी इस तरह दिए विषय पर लिखती हैं?  कितना सहज पाती हैं खुद को इस तरह के लेखन में। 
सपना सिंह – किसी फैशन या भेड़चाल के तहत मैं किसी विषय पर नहीं लिख पाती। ये मेरी सीमा है। मेरा सारा लेखन ही अनायास लिखा गया है। सायास मुझसे नही लिखा जाता। बाजार के चलन अनुसार बिकने वाला लेखन या तय सीमा में पूरा होने वाला लेखन मुझसे नहीं सधता। 
पुरवाई टीम – आपके ज्यादातर पात्र मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से छोटे शहरों और कस्बों से आते हैं। आपके यहाँ लोक, गाँव नदारद है। इसकी वजह कहीं आपका अपना परिवेश तो नहीं  ? 
सपना सिंह – ये मानी हुई बात है कि, देखा भोगा हुआ वातावरण और परिवेश लेखक की रचनाओं में अपनी विश्वसनीय उपस्थिति दर्ज करवा लेता है। परन्तु लेखक की पर दुख कातर वाली संवेदनशीलता उसे व्यापक दृष्टि देती है। ‘कनपटी का दर्द’, ‘परी’ जैसी कहानियों ऐसे ही संभव हुई। 
पुरवाई टीम – हिंदी में स्त्री लेखक को किन चुनौतियों से जूझना होता है। उनसे कैसे उबरा जाए। 
सपना सिंह – देखिए, मेरी समझ से तो हिंदी में लिखना ही बेहद चुनौतीपूर्ण है। स्त्री, पुरुष दोनों के लिए। अब हिंदी लेखक का घर रचनात्मक लेखन से नहीं चलता । वह अपनी नौकरी से त्यागपत्र देकर पूर्णकालिक लेखक बनकर घर चलाने की चिंता से मुक्त नही हो सकता । स्त्री लेखक अगर अपने लेखन से सम्मानजनक धनराशि कमा नहीं पाती है तो घर में, उसके आसपास के परिवेश में उसके लेखन को मूल्यहीन ही समझा जाता है। वह अपने काम काज से चुराये समय में दुपहर की झपकी का मोह त्याग कर, अपने आराम शौक की तिलांजलि देकर अगर अपना लेखन कर ले तो ठीक है। अन्यथा राइटिंग टेबल पर बैठी स्त्री शायद ही किसी पारिवारिक सीन मे अटती हैं। 
हिंदी साहित्य की ये दुर्दशा दूर हो इसके लिए लेखकों, प्रकाशकों, संपादकों सबको मिलजुलकर रास्ता निकालना होगा। 
पुरवाई टीम – आजकल संपादित पुस्तकों की बाढ़ आ गयी है। आपने भी वर्जित रिश्तों की कहानियों पर एक किताब संपादित की है। आपका क्या सोचना है, क्या ऐसी पुस्तकें आनी चाहिए ? 
सपना सिंह – हाँ क्यों नहीं । ये तो अच्छी बात है कि  किसी विषय आधारित कहानियां एक जगह संकलित मिल जाए। पाठकों शोधार्थीयों को सुविधा रहती है। इस काम पूरी गम्भीरता और जिम्मेदारी से करने की आवश्यकता है। कभी कभी जल्दबाज़ी में या दोस्ती निभाने के चक्कर में कमज़ोर कहानियों को संकलन का हिस्सा बनाकर संपादक या संकलनकर्ता स्वयं को संदिग्ध बना लेता है। 
पुरवाई टीम – आजकल ऑनलाइन पढ़ने का चलन बढ़ा है। आप ऑनलाइन पोर्टल्स पर प्रकाशन को लेकर क्या सोचती हैं? प्रिंट किताबों के भविष्य पर इससे होने वाले प्रभावो पर भी रोशनी डालें। 
सपना सिंह – हाथ में पुस्तक लेकर पढ़ने के आनंद का कोई विकल्प संभव नहीं । पर समय की मांग है कि पुस्तकें ऑनलाइन उपलब्ध हों । कुछ पोर्टल इस दिशा में शानदार काम कर रहे। युवाओं को भी हाथ में किताब लेकर पढ़ने से ज्यादा सहूलियत अपने लैपटॉप, किंडल और फोन पर पढ़ना लगता हैं। किताबों का हमेशा के लिए संरक्षण भी हो जाता है। 
पुरवाई टीम – आजकल फ़ेसबुक पर जो मठाधीशी विवाद आये दिन फैला रहता है, किसी न किसी बात को लेकर लेखक एक दूसरे पर दोषारोपण, छींटाकशी करते रहते, उसे आप किस तरह देखती हैं ? 
सपना सिंह  – बहुत दुखःद है ये सब। हर बात फ़ेसबुक पर कहना जरूरी नहीं है। अगर आपको किसी से कोई मतभेद है तो उसे फोन करिए न, मन नहीं मिलता, छोड़ दीजिए। पर हर बात पर पोस्ट लगाना मेरी समझ से उचित नहीं है। ये आपको और आपके लेखन दोनों को हल्का बना देता। एक दूसरे की टांग खिंचाई, तू-तू मै-मैं किसी भी तरह उचित नहीं। 
पुरवाई टीम  – क्या लेखक लिखकर समाज में कुछ सकारात्मक बदलाव कर सकता है?  आपको कौन सी बात लेखन के लिए उकसाती है? 
सपना सिंह – देखिए, लेखक समाज सुधारक नहीं होता। पर लेखन से समाज, सत्ता के होल्स दिखाया जा सकता है।  किताबें अपने समय का आइना होती हैं । किसी समय को जानने के लिए, इतिहास से ज्यादा प्रमाणिक उस समय का साहित्य होता है। बिना दृष्टि और सरोकार के लेखन व्यर्थ है । बिना डिस्टर्ब हुए लेखक नहीं बना जा सकता। खाये पीये अघाये लोग साहित्य नहीं सिरजते। ए सी से ठंडाये कमरे, भरा हुआ पेट, और मुलायम बिस्तर पर भी जो नरक की आग सा जलता कलेजा लेकर रात भर करवट बदलता है, वो लेखक नाम का प्राणी होता है। अपने कितनी ही चीजें हैं जिन्हें बदल देने का मन करता है, पर नही कर सकते। तो लिखकर कहने का रास्ता चुना। बस यही 
पुरवाई टीम – आजकल क्या पढ़ यहीं हैं और नया क्या लिख रहीं। 
सपना सिंह – आजकल मै महेश कटारे जी का भृतिहरि पर लिखा उपन्यास ‘कामिनी काय कांतारे’ पढ़ रही हूँ। अपने नये उपन्यास पर भी काम कर रही हूं । एक उपन्यास करोना की वजह से प्रकाशन में अटका हुआ है, देखिए कब पाठकों तक पहुँच पाता है…! 
पुरवाई टीम – सपना जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद, आपने पुरवाई  पत्रिका से बातचीत के लिए समय निकाला ।
सपना सिंह – मै पुरवाई पत्रिका और पुरवाई टीम की आभारी हूँ  ।

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