यह पुरुष भी न, पता नहीं किस मिट्टी के बने होते हैं ? महिलाओं को न जाने क्या समझते हैं, मुँह हिलाते वक़्त यह भी नहीं सोचते कि, जो वो चाहते हैं, वो होना मुमकिन भी है या नहीं। मैं शोर भी नहीं मचा सकती थी। क्यूँ कि मैं अपनी बहन को मिलने चंडीगढ़ आयी थी। मन ही मन बड़बड़ाने लगी, बस रवि नें तो मुँह हिला दिया, कहता है, कल, यानी पाँच मार्च को दिल्ली पहुँच जाओ …छः मार्च को तुम्हारा कार्यक्रम है। हडबडाहट में मैंने अपने सभी कार्यक्रम रद्द किये। चंडीगढ़ से दिल्ली के लिये शताब्दी ली। हैरान भी थी कि रवि ने अचानक कल का कार्यक्रम क्यूँ फ़िक्स कर दिया है, कम से कम पूछ तो लेता,कुछ तो समय देता। हाँ मैसज ज़रूर कर दिया था। भीतर से ख़ुश भी थी, कि उसे दिल्ली विश्वविद्यालय में कहानी पाठ के साथ -साथ-साथ वाद-विवाद का अवसर भी मिल रहा है।
चिंतित भी थी कि बिना तैयारी के कैसे निभा पायेगी। पलक झपकते ही दिल्ली आ गया। उबर ले के घर पहुँची। थोड़ा आराम किया, कल के लिए साड़ी इस्त्री की, पेपर तैयार किये। चिंता कहानी पाठ की नहीं थी। चिंता थी कि अभी तक मैं व्याख्यान का विषय नहीं जानती थी। इधर रवि कहते रहे, चिंता मत करो, तुम कर सकती हो। रात के नौ बज चुके थे। अचानक विश्वविद्यालय का वाटस-अप आया तो देख कर साँस में साँस आयी। हाँ एक बता देना चाहती हूँ, कि रवि मेरे पति नहीं हैं। पिछले पाँच दशक से वह मेरे एक आत्मीय मित्र हैं। रवि क्रिकेट के महाज्ञानी हैं। उम्र भर हिंदी में कमेंट्री करते रहे हैं। जब भी मैं लंदन से दिल्ली जाती हूँ तो वह मेरे लिय कोई न कोई कार्यक्रम का प्रबंध अवश्य करते हैं।
अगले दिन रवि दस बजे पहुँचने वाले थे। रात भर की बारिश ने मेरी साड़ी का प्लान रद्द दिया। मजबूरी में मुझे सूट पहनना पड़ा। हम उबर से वहाँ, समय पर पहुँच गये। कार्यक्रम अत्यंत सफल रहा। सभी ने जी भर कर सराहा। इतना सफल की मैं स्वयं पर हैरान थी, ख़ुशी पचा नही पा रही थी। सभी से अनंत स्नेह मिला। मेरे विचार से यह सराहना मेरी नहीं सुनने वालों की उपलब्धि थी। अगर श्रोतागण ही साथ न दें तो, सफलता कैसी। मेरी ओर से सभी सुनने वालों को धन्यवाद। मैं नशे में सातवें आसमान पर मँडरा रही थी। जब तक घर पहुँचते शाम हो चुकी थी। रवि तो अपने घर चले गये। मैने देखा मेरे फोन पर मेरी बेटी राशि और नाती ऋषि की दस मिसड क़ौल थीं।
मैंने राशि को फोने मिलाया,वह दोनों ने मुझे कोरोना वायरस का सिला दे दे कर,हिटलर के लहजे से जल्दी से जल्दी लंदन वापस आने को कहा। मेरा समस्त उत्साह गर्म पानी की भाँप की भाँति उड़ गया। क्यूँ कि इस बार मेरा दिल्ली में ठंहरने का सिलसिला लम्बा था। मैंने बहुत कोशिशें कीं, अनेकों बहाने मारे,ऋषि ने इतना तक कह दिया कि अगर आप एक दम नहीं आओगी तो मैं ख़ुद आ कर ले जाऊँगा। उन दोनो के तर्क के सामने मेरी जिद्द और, बहाने हार गये। मैंने भी गम्भीरता से सोचा अगर, मुझे कुछ हो गया तो अस्पताल में दाख़िल होने से पहले मेरे लिये दो लाख रूपये कौन जमा कराएगा ? और कौन मुझे देखने आएगा। सच कहूँ तो मुझे लंदन की नैशनल हैल्थ सर्विस ( National Health Service ) पर अधिक भरोसा है। मुझे बारह मार्च की टिकट मिल गयी।
मेरी वापसी का सुनते ही राशि और ऋषि की साँस में साँस आयी। आने से पहले मैंने अपनी तीन – चार सहेलियों को फ़ोन किया,कि कोरोना वायरस बहुत फैल रहा है। मैं बारह मार्च को लन्दन वापस जा रही हूँ। आप भी टिकट बुक करा लो। कोरोना की स्थिति बत से बत्तर होने वाली है। अब नहीं गये तो फस जाओगे। मुझे सब तरफ़ से यही उतर मिला”हम तो ठीक रहेंगे, मेरे तो बहुत रिश्तेदार हैं यहाँ पर। दस दिन में तो अनिल के पापा भी आने वाले हैं। ” लन्दन पहुँचते ही मैंने देखा, हिथ्रो हवाई अड्डा ख़ाली पड़ा था। अब मुझे भी चिंता होने लगी थी। मैं भी इस भयानक वायरस के इतने गहरे प्रकोप से अनजान थी। राशि मुझे सीधी मेरे घर छोड़ गयी। जाते जाते मेरे लिये एक लक्ष्मण रेखा खींचते बोली …माँ आपने अपने घर की दहलीज़ तक नहीं लाँगनी है। आपके लिये बाहर जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। आपको शुगर,बी पी, और दमा भी है। घर में राशि ने छः महीने का राशन डाल दिया था। यह सब देख कर घबराहट और बढ़ने लगी। अचंभित थी कि यह सब क्या हो रहा है? क्यूँ हो रहा है ?
दो दिन बाद पंद्रह तारीख़ को भारत से आने वाली सभी उड़ाने बंद कर दी गयीं। और भारत में दो तीन प्रयोगों के पश्चात् शीघ्र ही लौक़ -डाउन भी कर दिया गया। लंदन में स्थिति बहुत शीघ्रता से बिगड़ती जा रही थी । मुझे भारत में बैठे मित्रों की चिंता होने लगी। सोशल मीडिया ने चौबीस घंटे नकारात्मक ख़बरें दे दे कर दिमाग़ को संभ्रमित कर दिया था। मैंने तुरंत भारत फ़ोन करने शुरू के दिये। जो मित्र मेरे साथ भारत गये थे। सबसे पहले पुष्पा को किया। पुष्पा बहुत ख़ुश थी बोली”तुम तो बेकार की चिंता कर रही हो …बहुत ख़ुश हूँ। सारा दिन धूप का आनंद लेती हूँ। शाम को दोस्तों के साथ गोलगप्पे, चाट के मज़े ले रही हूँ। घर में अकेली हूँ। बहादुर ( नौकर) है ख़रीददारी कर देता है, खाना बना देता है। बाक़ी घर के काम भी अच्छी तरह से कर देता है। कमला आ कर मालिश कर देती है। ऐश कर रही हूँ। और क्या चाहिये ? तुम बेकार में चली गयी। आयी थी तो, रुक जाती। बच्चे तो छोटी सी बात का पहाड़ बना देते हैं। ” उसने लापरवाही से कहा। मैं उसकी बातों पर हैरान थी”पुष्पा तुम आजकल टेलिविज़न नहीं देखती क्या ? टी,वी में ,एक दूसरे से दूरी रखने को कहा है, तुम्हारे साथ बहादुर है, कमला भी आती है।” मैने पूछा।
“टी .वी देखने की तो फ़ुरसत ही नहीं”उसने उत्तर दिया। उसके इस व्यवहार से मैं और चिंतित हो गयी। असमंजस में थी कि एक पढ़ी – लिखी सभ्य महिला इतनी अनभिज्ञ कैसे हो सकती है। मुझ से रहा नहीं गया मैने उसे सुझाव देते कहा”पुष्पा प्लीज़ आज कल से हर रोज़ टी .वी पर समाचार ज़रूर देखा करो “। “तुझे याद नहीं , जब डेंगू फ़्लू चला था, तब कितना शोर मचा था…ठीक है तू कहती है तो टी,वी भी देख लूँगी”उसने सरसरी लहजे से कहा। अब तक मेरे धैर्य की बस हो चुकी थी। उस से विदा लेते मैंने कहा ” आज से तुम ख़बरें देखना शुरू कर दो। मैं तुम्हें फिर फोन करूँगी। उसका यह रवैया देख कर मेरी परेशानी और बढ़ गयी। सोचने लगी समस्त दुनिया मौत से जूझ रही है, चारों ओर महामारी के कारण हा – हा कार मचा है और एक पुष्पा है सातवें आसमान में विचर रही है। उसे भनक ही नहीं कि दुनियाँ में क्या हो रहा है। अनभिज्ञता की भी हद होती है।
उसकी बातें सुनकर मैंने अपने मित्र डॉक्टर कुमार को फ़ोन किया जो स्वयं पिछले चार दशक से बिर्मिंघम में जी . पी ( General Practitioner ) हैं। आजकल वह अपने बीमार भाई को देखने दिल्ली गए हैं। अचानक लॉक- डाउन के कारण अब वहीं फस गये हैं। वह तो स्वयं भी, कई घातक बीमारियों से जूझ रहे हैं। बहुत चिंतित थे,बोले बुरी तरह से फस गया हूँ। इतना लाचार ख़ुद को कभी नहीं पाया …” यह अज्ञात करोना वायरस ने सारी दुनियाँ को अपने चपेट में ले लिया है। कोई नहीं जानता क्या होने वाला है। रात को नींद नहीं आती, अपने भीतर के प्रश्नों के चक्रव्यूह में फँसा रहता हूँ। कभी – कभी सोचता हूँ, इंसान ज़िन्दा किस लिये रहता है। मैं यहाँ हज़ारों मील अपने परिवार से दूर हूँ .. बीबी बच्चों से दूर, शायद यहीं मर जाऊँगा। एक अजनबी की हैसियत से हज़ारों मील दूर मर जाना बहुत भयानक लगता है।
क़ुदरत ने आज दुनिया में सबको एक ही क़तार में ला कर खड़ा कर दिया है। उसके लिये सब बराबर हैं। अब सब कुछ बे माने सा लगने लगा है। सब अपने -अपने बुलबलों में बन्द हैं”। वह परेशान से बोलते गये, मैं सुनती रही। ” सुनो…मेरी दवाइयाँ भी ख़त्म हो गयी हैं। दो यहाँ नहीं मिलीं। अगर मैं परिस्क्रिप्शन ( prescription ) भेज दूँ तुम मेरी दवाई ले कर भेज दोगी ?”। इतना कहते-कहते उनका मन भर आया। ” कुछ पल मौन में गुज़रे। आप अपना ध्यान रखें, दिल छोटा न करें , दवाई भेज दूँगी”। इतना कह कर मैंने बाय कर दिया । उनकी बातें सुन कर मन बहुत परेशान हुआ। इस से पहले मैंने उन्हें कभी इतना डरा-डरा नहीं पाया था। कह तो वह, ठीक ही रहे थे। सोचने लगी, कुमार और पुष्पा की सोच में कितना अंतर है।
हालाँकि मुझे लंदन वापस आए तीन सप्ताह हो गये हैं। अभी तक मेरे घर के आगे का दरवाज़ा नहीं खुला। लंदन के हालत और ख़बरों को सुनते -सुनते मेरी नाराज़गी, पानी में नमक की भाँति घुल गयी। अब मैं ख़ुश थी कि मैं थी, कि ठीक समय पर अपने घर तो पहुँच गयी हूँ। गवर्मेंट के सभी कठोर बंदिशों के बवाजूद, कोरोना वायरस का आतंक बड़ी रफ़्तार से दुनियाँ में फैलता जा रहा था। प्रतिदिन हज़ारों लोग मौत के शिकार हो रहे थे। । पुष्पा को फ़ोन करने पर कोई उत्तर नहीं मिला। मुझे उसकी और भी चिंता होने लगी। उसका बेटा ही उसे, समझा सकता था। मैंने उसके बेटे अनिल को फ़ोन किया, वह भी नहीं मिला।
डॉक्टर कुमार की दवाई को मंगवाने में क़रीब एक सप्ताह लग गया। भेजने से पहले सोचा दिल्ली के पते की पुष्टि कर लूँ। फ़ोन उनके भाँजे ने उठाया, जब मैंने उससे पता पूछने की कोशिश की तू उसने बताया “अब चाचा जी को दबाई की ज़रूरत नहीं है। ”“मुझे उनसे बात करने दो”मैंने अधिकार से कहा”। “माफ़ करना, चाचा जी तो कल हमें छोड़ कर चले गये, कोरोना इन्फ़ेक्शन हो गया था, चार दिन से अस्पताल में थे, साँस लेना मुश्किल हो गया था। वेंटिलेटर भी नहीं मिला। लाश तो मिलेगी नहीं इस लिये, संस्कार भी नहीं कर सकेंगे। चाची जी और उनके बच्चे उन्हें आख़री बार विदा नहीं कह सकेंगे”। मैं निशब्द, मन ही मन रोती रही। जानती थी, उनके भीतर की उदासी और अवसादक महौल ने उन्हें घेर लिया था। उनके जाने से मुझे लगा मानो मैंने अपने मन का टुकड़ा खो दिया है।
ख़ुद को संभालने में मुझे एक सप्ताह लग गया। पुष्पा की चिंता अभी तक मुझे खाये जा रही थी। अनिल को फिर फ़ोन किया। ” अनिल बेटा तुम्हारी ममी फ़ोन क्यूँ नहीं उठा रही , ठीक तो है ?”। “आंटी जी आपको शायद पता नहीं, ममी एक हफ़्ते से अस्पताल में थीं। उनका बुखार उतरने का नाम नहीं ले रहा था। साँस लेने में क़िल्लत हो रही थी। कल वो हमें छोड़ के चली गयी। बहादुर और कमला दोनो इंफ़ेक्टेड थे। कितनी बार कहा था उन्हें, बाहर वालों को घर में मत आने देना, मानी ही नहीं। कमला घर-घर जाती थी,लगता है वही कहीं से लायी होगी। अब कोई ओर तो क्या, पापा भी दिल्ली नहीं जा सकेंगे । सभी उड़ाने बंद हैं। लाश भी नहीं मिलेगी। अभी पापा ने रोते -रोते मुझे एक बैग पकड़ाया और बोले “अनिल तेरी माँ एक लाल जोडे के साथ बिंदी – सुर्खी चूड़ियाँ वैग़रा छोड़ कर गयी थी। कहती थी मेरे मरने पर मुझे पूरी सुहागन बना कर विदा करना”। इतना कहते ही वह सुबक-सुबक कर रोने लगा। उसे तसल्ली देने के किये मेरे पास शब्द नहीं थे।
मैं स्तब्ध और निशब्द …उसका दुःख सोकती रही। मेरे आँसू मेरे सीने में जम गए …………।