सचमुच कमाल की स्क्रिप्ट लिखी जा सकती थी। क्रू का हर सदस्य कह चुका था। डायरेक्टर हाथ धोकर पीछे पड़ा था कि ‘यार एक ऐसी स्क्रिप्ट लिख दे जो अवार्ड जीत लाये! देख, अब शार्ट स्टोरी के फेस्टिवल भी बहुत बढ़ गए हैं! मैं आईडिया दे सकता हूँ सीन बाई सीन!’ और वह हर बार उतने ही जोश के साथ, बताने लग जाता था कि कितना धांसूं प्लाट था इस लॉकडाउन के अंदर एक कपल की दिनचर्या का! कपल झगड़ालू न हों, थोड़े से चुप्पे टाइप के हों और अंदर ही अंदर टेंशन चल रही हो! समझ गई न तू! तू तो वह ऐसे बोलता था कि अक्खे बचपन की, वही एक दोस्त बची हो! झक तक मार कर बैठने का मन नहीं होता श्यामली को!
एक तो वो खुद इस लॉक डाउन में बुरी तरह सेट पर फंस गए थे। सेट बोले तो मराठवाड़ा का एक इंटीरियर गांव, जहाँ से एम पी का नक्सल प्रदेश ज़्यादा दूर नहीं था। फिल्म नक्सल मूवमेंट पर नहीं थी, उसके बैकड्रॉप में एक लव स्टोरी थी। फिल्म में होता क्या है कि एक टेलीविज़न चैनल के दो जर्नलिस्ट नक्सलाइट लोगों पर एक स्टोरी करने दंतेवाड़ा के पास के एक गांव गए होते हैं। तभी, गांव पर सचमुच का एक नक्सल हमला होता है और उन्हें प्लान से कहीं ज़्यादा दिन रुकना होता है।
इसी रुकावट के बीच दोनों पत्रकारों के बीच लव तो नहीं लेकिन अफेयर हो जाता है। यानि कि पत्रकार मेल और फीमेल होते हैं। दोनों की आउटस्टेशन पी टू सी फेमस होती है। मेल पत्रकार मैरिड होता है और उसका बेटा भी साथ गया होता है। फिर जो लव ट्राइंगल बनता है वो एकदम विशाल भरद्वाज टाइप शेक्सपियर अडॉप्टेशन! लेकिन, एक दिन भी शूटिंग होने से पेहलेइच नक्सली हमला हो गया। अगले दिन कोरोना का लॉक डाउन हो गया। यानि पूरा बंटा धार! हज़ार बार एकिच कहानी सुना सुना के पक गयी है श्यामली अपने हर दोस्त को! अब तो मराठी वाली हिंदी भी सोचने बोलने में मज़ा नहीं आ रहा। हफ्ता से ऊपर होने को है। कोई ट्रांसपोर्ट नहीं। रोड पर इच निकलना अलाउ नहीं है!
लेकिन, स्क्रिप्ट तो लिखी जा सकती है। क्यों नहीं लिखी जा सकती? कैरक्टर भी सोच लिए हैं। लड़का बंगाली होता है। लड़की बिहारन होती है। उसी की तरह! अब्बी क्या है, वो अपने मन का लिखेगी। बिहारी मज़दूरों का एक्सोडस भी चालू हो गेला है। दोनों बैठ कर टीवी देख रहे हैं और पेहलेइच दिन लड़ लेते हैं। लड़का बोलता है, “गंद मचा दी बिहारी मज़दूरों ने! पूरा लॉक डाउन तोड़ दिया!”।
लड़की बोलती है, “कैसी विभीषिका है! मेरी आँखों में आंसू आ रहे हैं और तुम कैसे पत्थर दिल की तरह बोल रहे हो” और फाइट चालू हो जाती है। क्या है कि दोनों में पहले से इशूज़ चल रहे होते हैं। पुराने टेंशन की याद करके दोनों थोड़ी देर में चुप भी हो जाते हैं। कुछ भी रिसॉल्व नहीं होने का! दोनों अलग अलग कमरे में चले जाते हैं। लड़की गूगल करके बंगाली मज़दूरों का डेटा भी निकाल लेती है। कभी आराम से बात करेंगे सोच के। ये ऐसी लड़ने वाली बात तो नहीं होनी चाहिए। फिर, वो बात क्या करेंगे?
अब्बी क्या है, दोनों के बीच जो इशूज़ हैं, मेंटल हैं। मेंटल बोले तो इमोशनल। लेकिन अब्बी क्या है, श्यामली खुदिच इतने इशूज़ से डील कर रही है कि इमोशन के वर्ल्ड में जाइच नहीं पा रई। रात में बोतल इतनी पी ली, बोतल बोले तो बाटली, कि माथा टनटना रहा है। अगर मराठी वाली हिंदी में नहीं लिख सकती तो बिहारी वाली हिंदी में भी नहीं लिख सकती। डायलेक्ट भी नहीं। अपनी वाली हिंदी चाहिए। और अब्बी क्या है कि श्यामली के अपने इशूज़ इतने चल रहे हैं कि पूछो मत। लॉक डाउन के बीच में ऑनलाइन सर्वेलेंस! बढ़ईच गया है।
कोई इंग्लैंड से मिलने आया, फ़ौरन विदेशी पक्षी की चर्चा! दवा की दुकान में वह स्टेफ्री की ओर घूर घूर कर ऐसे देख रहा था जैसे पहली बार देख रहा हो! जल्दी ही, संतानोत्पत्ति प्रसंग की सभी चर्चाएं! मेनका समेत तमाम अप्सराओं के नृत्य, ऋषियों के श्राप, इंद्र के दरबार, सब लौकिक पार लौकिक कथाएं गर्भ धारण, वंश वृद्धि की, आधुनिक युग के उपचार, राजा निरबंसिया और कमलेश्वर का सम्पूर्ण साहित्य, अनाथ बच्चे और खर पतवार सब! सर घूमकर रह जाता था श्यामली का।
हर बार लगता था हद हो गयी, हर बार पार हो जाती थी हद की सीमा! सबसे मुश्किल था कि ज़रा देर व्हाट्सएप्प पर सुकून से बातें करना सम्भव नहीं था अपने प्रोस्पेक्टिव मैचेज़ के साथ! इधर फ़ोन पर बातें और फेसबुक पर मैचिंग पोस्ट! एक वाक्य का चैट व्हाट्सएप्प पर और दे दनादन मेसेज मेसेंजर पर! करे तो कैसे बात वह, लिखे तो कैसे लिखे श्यामली? कई बार सोचा, नदी में जाकर फेंक दे इस फोन को, लेकिन कोई नदी नहीं थी पास! और जीती कैसे वह बिना फोन के? फिर भी, सबसे कारगर, यही इमेजरी थी।
कर्फ्यू के से दिनों में, श्यामली खुद को नदी किनारे तक जाते देखती। थोड़ी देर टहल कर फेंक देती फोन को नदी में। देखती रहती खुद खड़ी होकर। गड़प गड़प गड़प, फोन फ़ौरन पानी के भीतर गायब हो जाता। परेशान होकर ढूंढने लगती उसे श्यामली। और काबिले बर्दाश्त हो जाता कमरे में थोड़ी दूरी पर रखा फोन। थोड़ी देर और दूर रखेगी उसे। कागज़ उठा लेती श्यामली!
स्क्रिप्ट की नायिका बैडरूम से निकल कर शाम का खाना पकाती है। गीत गाकर अपने नायक को डिनर टेबल पर बुलाती है। ‘डिनर’।।। नायक अपना सूजा सा चेहरा लेकर आ बैठता है डाइनिंग टेबल पर। खाने लगता है चुपचाप। अंकुरित मूंग का पोहा, मूंगफली चाट, गर्म दूध, संक्रांति के बचे हुए तिल के लड्डू! डाइनिंग रूम केवल कांटे चम्मच की ध्वनियों से भर जाता है।
“कैसा है?”, नायिका अपनी आवाज़ को यथा सम्भव मुलायम बना कर पूछती है। “क्या?” नायक बेरुखी से पूछता है। “खाना”, नायिका डिनर का हिंदी रूपांतरण करती हुई समय का सारा कांसेप्ट बाहर कर देती है। अलबत्ता, अब भी उसकी कलाई पर घड़ी बंधी है। वह जाने कब से यह नाटक कर रही है। किसी भी क्षण टूट सकता है, उसके सब्र का बाँध! कसकर बाहों में थाम रखा है उसने समूची नदी, सारे सैलाब को! “यार, नाश्ते की चीज़ें खिला रही हो डिनर में! ब्रेकफास्ट में सीरिएल्स, लंच में सैंडविच, डिनर में स्नैक्स! कमाल है!” भवें उठाकर कुछ मुस्कुरा भी देता है नायक! एकदम से बिछ जाती है नायिका। “क्या करूँ  यार! मेड भी नहीं आ रही। डिशवाशर खरीदते डर लगता है। कहीं पूरी बिल्डिंग की फ्यूज़ न उड़ जाए!” इतना ही कहती है वह! नायक थोड़ी और उदारता से मुस्कुराता हुआ, गेस्ट रूम में सोने चला जाता है। उठते वक़्त अपनी प्लेट उठाने का उपक्रम करता है तो नायिका उसके हाथ से ले लेती है सब। “अरे लाओ न!” किचन की सिंक तक आते आते बहुत कुछ बिखर चुकी होती है वह। गुस्सा दांतों से होकर कनपटियों तक पहुँचता है उसके। जानता है वह उसे चपाती बनानी नहीं आती। क्या रात दिन सब्ज़ी काटती रहे बैठकर?
दिन के खाने में दाल चावल बनाकर खिलाये। सुबह सुबह सूजी उपमा और साबूदाने की खीर बनाकर खिलाये? तेज़ गति से चलती हुई वह गेस्ट रूम के सामने पहुँचती है और एक ज़बरदस्त दस्तक मारती है। “हैंडवाश”, दरवाज़ा खुलते ही पूरी बत्तीसी निकाल कर वह कहती है। काश उसके बच्चे होते! संभालते नहीं थकती वह उन्हें। ख़ुशी ही ख़ुशी होती घर में! उनकी ज़िद होती, नखरे होते। टेलीविज़न पर भी दिखा रहे, घरों से निकलने को बेताब हो रहे हैं बच्चे। कितनी चुप्पी है उसके घर में, कितनी अलग सुकून भरी शांति से, कितनी दूरियां उन दोनों के बीच!
नायिका याद करती है वो दिन जब लिविंग इन में वो उसके लिए दोई माछ तक बना कर रखता था। पाव भाजी की भाजी, राजमा चावल का राजमा, छोले भठूरे का छोले। इतना ही नहीं चुम्मे के साथ खिलाता था! फिर वो लेट होता गया और वो भी लेट होती गयी। इतने आउटस्टेशन टूर बने कि बात चीत कम होते होते बहुत कम हो गयी। तभी गेस्ट हाउस में भी सोने की आदत डली नायक की। शुरू में, उसने कहा उसे जगा देने के डर से पूरा रिलैक्स नहीं हो पाता। नायिका ने कहा ‘कोई बात नहीं, मुझे अच्छा लगेगा तुम्हारे शोर से जागना!’ लेकिन नहीं माना नायक कि सुबह भी तो होगी। लेकिन, कहाँ गायब हो गयी वो प्यार भरी सुबह? लगभग तभी स्मार्ट फोन भी आया, आई फोन, एंड्राइड और व्हाट्सएप ग्रुप्स। मेसेंजर पर गुड मॉर्निंग मेसेज की बौछार!
आज रात भी उसके पास फोन होगा, नायिका अपना फ़ोन उठाती हुई सोचती है। उसके तो एक पुराने क्लासमेट का मेसेज आया है, जो लव लेटर लिखता था उसे।
‘सोचता हूँ, आज तूने कुछ बहुत टेस्टी बनाया होगा डिनर में!’ व्हाट्सएप पर एक नये नंबर का मेसेज है, साइन ऑफ में उसका नाम है, ‘याद है?’ उसके नीचे लिखा है। आंसू निकल आते हैं नायिका के! लेकिन उसने भी तय कर लिया है आज झरना नहीं बहायेगी। तलाक़ की मुहर लगने नहीं देगी जीवन पर। अभी उम्र ही क्या है उसकी? २९ साल के बाद शुरू होती है ज़िन्दगी! एक शादी संभाल लेगी वह। राज़ी करेगी उसे एक बच्चे के लिए! जब भी कहा है उसने अतीत में, उसके नायक ने कहा है वह अभी तैयार नहीं। क्यों नहीं? खुल कर कोई बात नहीं! कहीं कोई दूसरी लड़की….. नायिका एकदम नायिका की तरह सोच रही है। शादी के वक्त ही एक दरार पड़ी दोनों के बीच। खूब ताने सुनाये दोनों के परिवार ने एक दूसरे को। नायिका ने बहुत कोशिश की, वे दोनों उन तानों के पार पहुँच जाएँ लेकिन वह सफर है कि ख़त्म नहीं हो रहा!
कहीं, अपनी ही कहानी तो नहीं लिख रही श्यामली? लेकिन, ये घर घर की कहानी है।
“श्यामली!” दरवाज़े पर दस्तक होती है। “डिनर”, वह डायरेक्टर की आवाज़ पहचानती है।
“बॉस कांदा पोहा खा खा के पक गेला रे”, कैमरा मैन दुखड़ा रो रहा है।
“चुप बे! बेवड़े! सुबह वड़ा पाव खा लियो!” साउंड तकनीशियन एक कुहनी मारता है उसे!
“तेरी तो”, दोनों हंस पड़ते हैं……………
“कमरे में बंद बंद खाना पचता कहाँ है?” श्यामली कहती है।
“चलो टहलने चलते हैं”, डाइरेक्टर निर्णय ले चुका है, “ज़्यादा दूर नहीं, यहीं आस पास”
“अँधेरा है”, आंगन से निकल कर श्यामली कहती है। उसकी चाल हल्की सी डगमगाती है। डाइरेक्टर हाथ पकड़ लेता है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। बाकी सब आगे चल रहे हैं, एक्टर्स, एक्ट्रेसेस भी।
रात चांदनी है। श्यामली हाथ छुड़ाने की कोशिश करती है। वह नहीं छोड़ता। ‘अपन को नयी इंजुरी नहीं मांगता! क्या?’ उसकी आवाज़ में मुस्कराहट है। लेकिन पकड़ में एक लगाव। लड़के लड़की स्त्री पुरुष वाला लगाव!
श्यामली को हर हाल में लौटना है अपने फोन के पास। जबकि वह थमा है दूसरे ही हाथ में। उसमें एक नंबर है, अजनबी का सही, लेकिन उसे मिलाने पर एक असल जीवन की बातें होती हैं। या कम से कम हो सकतीं हैं। कितना बड़ा छलावा है ये फिल्म इंडस्ट्री। श्यामली कस कर अपना हाथ छुड़ाती है।
“अबाउट टर्न”, डाइरेक्टर ज़ोर से आवाज़ लगाता है। सब पलट कर वापस चलने लगते हैं। अब वे सबसे आगे आगे चल रहे हैं। दूरी ही कितनी है। फ़ौरन आ जाता है बंदी गृह!
“ले बे बेवड़े! आ गयी जेल!” सब साथ मिलकर चुहल कर रहे हैं।
श्यामली को, छोटा सही, एक अलग कमरा दिया गया है। फिर भी, वह महफूज़ नहीं हो पाती। फोन पर ढेरों आत्मीयता जताने के बाद भी करीबी नहीं महसूस कर पाती।
कितनी दूरी है इन तारों में! कितना गणित! कितने किस्मों की पड़ताल! आखिर ऐसा क्या है, श्यामली के बारे में, जो जानना है इतना ज़रूरी? कॉलेज में कितने सहपाठी पुरुष मित्रों, लड़के दोस्तों के साथ उसने कैंटीन में चाय के साथ गप्पें लड़ायीं? आज भी उसके पुरुष मित्रों की संख्या कहीं अधिक है। शायद इसका चुनाव अन्य महिलाओं ने किया है।
प्रेम हिमालय की सबसे ऊँची चोटी पर बैठा एक सिद्धहस्त तांत्रिक है, लगातार अपनी ओर पुकारता हुआ—“योगमाया! चली आओ! मुझ तक पहुँचने की राह बहुत सरल है! भटको मत योगमाया!”
नायक आज बहुत देर से घर आया है। विदेशी डेलीगेशन के साथ डिनर कर के आया है। बोल के गया था फिर भी उसके हिस्से का डिनर एक पर्ची के साथ डाइनिंग टेबल पर रखा है। पर्ची पढ़ने से पहले वह ढक्कन हटा कर देखता है। कढ़ाई चिकन जैसी किसी तरी में से मुर्गे की टांगें झाँक रहीं हैं। दूसरा ढक्क्न हटाता है तो लॉली पॉप दिखाई देता है। चिकन लेग्स नायिका के फेवरिट हैं। तीसरे ढक्क्न से पहले वह पर्ची खोलकर पढता है। खाना माइक्रो वेव में गरम कर लेना। बोना पतीत!
नायिका कमरे में सो रही है। उसकी बगल में अपनी जगह लेकर, नायक उसे चूमने झुकता है। वह अचानक करवट बदल लेती है। हमारी बॉडी की एक डिफेंस मेकनिज़्म है। सेंसेज के काम करने का एक सिस्टम! हमारा अवचेतन जागता रहता है हमारी नींद के भी घंटों में। तो क्या वह अबतक नायिका के अवचेतन का ज़रा सा भी हिस्सा नहीं बना? नायक भी करवट बदल कर सो जाता है। सुबह उसकी नींद अपने अलार्म से नहीं, नायिका के फोन पर होने वाली भीषण घरघराहट से खुलती है। फोन साइलेंट मोड़  में नहीं है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। अटैच्ड बाथ से नायिका के नहाने की आवाज़ आ रही है। शावर का गुनगुना पानी फिसल रहा है उसकी देह के ऊपर से।
किसी नफीस यूडी कोलोन की सी खुशबू आ रही है उसके साबुन से। उचक कर वह उठा लेता है फ़ोन। किसी ने भाड़ी भड़कम वीडियो भेजा है, पता नहीं कितने एम् बी का! वह प्ले के बटन पर उंगली रख देता है। एक खूबसूरत सा प्रेम का संदेशा फूलों की पंखुड़ियों की बरसात और एक मद्धम संगीत के साथ स्क्रीन पर दौड़ने लगता है। आखिर, कितनी अकेली हुई वह कि नौबत यहाँ तक आ गयी? वह वीडियो बंद कर ऊपर के चैट पढ़ने लगता है। वह बार बार याद दिला रही है, वह शादीशुदा है, फिर कह रही है यु आर टेम्पटिंग मी, मेरे धैर्य की परीक्षा मत लो, मैं बहुत अकेली हूँ!
बाथरूम में शावर का पानी बंद हो चुका है। ड्रेसिंग रूम का दरवाज़ा बैडरूम से ही हो कर जाता है, लेकिन वह बाथरूम  से पूरे कपड़े पहनकर निकलेगी शायद, आवाज़ें यही बता रहीं हैं। कभी वह टॉवल में पूरे घर में कैटवाक करती थी! फोन को फ़ौरन उसके सिरहाने रख वह सोने के अभिनय से बेहतर कमरे से बाहर होना समझता है। चैट में नायिका ने पूछा है, अच्छा बताओ, आज क्या पहनूँ? साड़ी, स्कर्ट, वन पीस या ट्राउज़र्स? जवाब पढ़ने से पहले वह तेज़ी से बाहर हो जाता है।
कमरे का दरवाज़ा ज़ोर से बंद होता है। अलार्म तब बजता है जब नायिका परफ्यूम लगा रही है। गुस्से से लगभग फुफकारती हुई, नायिका ने आखिर नायक को ढूंढ निकाला। “तुमने अपना अलार्म बंद नहीं किया?” आखिरी शब्द तक आते आते उसकी उफनती हुई आवाज़ ठंढी पड़ गई थी। गेस्ट रूम का दरवाज़ा खुला था, वाशरूम का भी। नायक के कंधे पूरी तरह सिंक में झुके हैं। “तुम्हारी तबियत तो ठीक है?”  उसकी आवाज़ में घबराहट आ गई है। वह नायक के ठीक सामने आना चाहती है तो वह पलट कर बेडरूम के वाशरूम में चला जाता है जहाँ उसका टूथ ब्रश है।
“तू लिख सकती है श्यामली। तूहीच लिख सकती है!” एक हाथ में कागज़ थामे, दूसरे से कलम चलाती श्यामली रुक जाती है। अतीत में, कहीं भी अंटकने पर वह पूछा करती थी, उन सबसे जिससे इच्छा होती। और ऑफ़ कोर्स डाइरेक्टर से पूछे बिना तो कोई स्क्रीन प्ले नहीं होता। लेकिन वह बहुत आज़ादी देता था उसे। आईडिया के साथ प्लाट के सारे अप्स और डाउन्स डिस्कस करके, रफ पूरा करके ही फिर आगे बातें करती थी। अनलेस की, अंटक जाए! लेकिन इस बार, पूरा पूरी मन माफिक लिख रही है, फ्लो मुताबिक!
बस फ्लो में इतनी डिस्टर्बेंस डालने वाले लोग हैं, कि कागज़ के सफ़ेद पर डी डी का पुराने ज़माने का सन्देश आ गया है, ‘रुकावट के लिए खेद है!’ ये टाइमिच साला बहुत ख़राब है। वो एफ बी पर एक पोस्ट लिखती है, उसी वक़्त एक मेसेज का आना ज़रूरी होता है। पहले से नहीं आ रिया होता लेकिन उस वक़्त पक्का! लॉक डाउन के बाद से हालात बिगड़ गए हैं।
हुआ यों कि, सबकुछ बंद होने के बाद, दिहाड़ी मज़दूर अथवा डेली वेज वर्कर्स सड़क पर निकल आये और सत्ता और विपक्ष के बीच समर्थकों की लड़ाई शुरू हो गयी। दिन भर सोशल मीडिया पर बहसा बहसी होती रही। दो एक जगह श्यामली ने भी, सुरक्षित रहने सम्बन्धी टिप्पणियां लिखीं। कागज़ पर स्याही उकेरते, उसे आधी रात हो गयी। साढ़े दस तो डिनर ही हुआ था।
कमरे में आकर, एक घंटे कागज़ के साथ बिता कर जब वह १२ बजे ब्रश कर के लौटी, फौरन एक मेसेज आया, दिहाड़ी मज़दूरों पर पद्म श्री गायिका का गीत सुनें! मतलब एकदम खाली टाइम को चेंपना! ये एक प्रतिष्ठित संपादक थे जिनसे अच्छे कामकाज़ी सम्बन्ध थे। उसने कुछ भी नहीं कहा तत्क्षण। कमाल था कि उसी दिन उसने फोन में ब्रश सम्बन्धी एक कविता लिखी थी। कवितायेँ लिखना भी उसके शगल में शामिल था। ये भी एक समस्या थी। ऐसे ऐसे व्हाट्सएप ग्रुप में थी जहाँ अदभुत गुल खिलते थे। वैसे श्यामली जानती थी कि फ़िल्मी दुनिया से ज़्यादा गन्दी राजनीति और कहीं नहीं। लेकिन, साहित्य कभी कभी उसे भी मात दे देता था।
उसे लेट नाइट शावर की आदत थी। शावर लेकर आई तो फिर से ज़ोरदार व्हाट्सप्प मेसेज! उस वक़्त उसने देखा ही नहीं। ये सब पहले हो चुका था। नहाने और कपडे पहनने के समय शांत पड़े फोन पर अजब हलचल! उसे लगता था, ये संयोग कैसे हो सकता था? ये तो तभी सम्भव था जब कोई नज़र रखे! लेकिन इसकी तहक़ीक़ात इतनी आसान नहीं थी। और फिलहाल, मुद्दा सर्वेलेंस नहीं, मुद्दा कोरोना का लॉक डाउन था। हमेशा यही होता था कि उसे उलझा दिया जाता था कहीं और! और कनेक्शन की इस क्राइसिस में, कहा जाता था कि बाकियों ने कनेक्ट कर लिया टॉपिक से ज़बरदस्त, और वह सिर्फ अपनी ही बात कहती रह गयी! कितना अख़बारी हो गया है साहित्य खासकर!
परेशान है श्यामली। उसने तय किया है इस कहानी में कोई एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर नहीं है। नायिका परेशान है दफ्तर जाए कि नहीं। ब्रश करके नायक अपनी चाय बनाने किचन में चला जाता है तो ज़रा रूककर वह बाहर निकल जाती है। कुछ समय से ये हो रहा है। दोनों टी बैग की अपनी अपनी चाय अपने समय से माइक्रोवेव में बनाते, पीते हैं। अपने समय से टोस्टर में ब्रेड गरम कर खाते हैं। बहुत दूर हो गए हैं शायद!
ऑफिस की मीटिंग के दौरान उसे एहसास होता है, फोन साइलेंट मोड में नहीं है। ये कैसे हुआ? कहीं उसी का हाथ लगकर कोई बटन तो नहीं दब गया? कहीं उसके पति ने उसका फोन उठाकर समूचा व्हाट्सएप तो नहीं छान मारा? नायिका के चेहरे का रंग उड़ जाता है। हाथ पैर ठंढे हो गए। उसने अपने पति को मेसेज किया, “तबियत कैसी है?” जबकि पति की तबियत एक बहाना थी, खुद उसकी डवां डोल हो रही थी तबियत!
जब तक नायक का मेसेज नहीं आ गया, नायिका के हाव भाव से रंग उड़ा रहा। मूड ऑफ, आँखें बुझीँ, चेहरा फक! मेसेज आया तो लगा हाथ पाँव में वही शुरूआती झिनझिनि दौड़ गयी जो प्यार के पहले दिनों में महसूस होती थी। क्या सुकून कि जैसे किसी ने मसाज पार्लर में कंधे दबा दिए हों! या कि इलेक्ट्रिक रिलैक्सिंग चेयर में बिजली की हल्की सी सेंक मिल गयी हो! नायिका ने अपनी पीठ टिका दी कुर्सी से और मीटिंग को कुछ कम पार्टिसिपेशन के साथ गुज़र जाने दिया। लगा जैसे, चैन की कुछ साँसें ले रही हो।
लेकिन, तभी आफ़ियत से लिखती श्यामली की मुद्रा में खलल पड़ गया। फोन में इतना तेज़ वाइब्रेशन हुआ कि लगा वह दो सेंटीमीटर ऊपर उछल गया। यही मुसीबत है। लॉक डाउन में कोई सन्देश अर्जेंट भी हो सकता है। पता कैसे चले? बड़बोलेपन की यही दिक्कत। इतने फालतू संदेशों में कोई एक अर्जेंट सन्देश मिस हो सकता था। इसलिए, फोन सिरहाने रखा था। उठा कर देखा तो विदेशी महोदय ने, जिनके साथ एक अजब दूरी की शिकायत उसे बातचीत के दरमियान भी हो रही थी, बल्कि कहें एहसास, एक लम्बा चौड़ा गुड नाईट मेसेज भेजा था। रिबन खुल रहा था गुलाब के एक ताज़ा बंधे बुके का और एक एक कर टेबल पर फ़ैल रहे थे गुलाब! लेकिन लग रहा था, कसकर कोई काँटा चुभा था श्यामली की ऊँगली में। ये पहली बार उसका कनेक्ट था! इधर नायिका के प्रेमी का सन्देश, उधर उसके प्रेमी का! गजब संयोग! अभी कागज़ से लैपटॉप पर आयी और एक नया खेल शुरू! क्या हैक हो चुका है मनुष्य का सारा जीवन? सोचने का अवकाश कहाँ? क्या रत्ती भर नहीं बचा स्पेस निजता के लिए? उसके गुलाबों के आने की देर थी कि व्हाट्सएप ग्रुप्स और मेसेंजर पर गुड नाईट के संदेशों की झड़ी लग गयी। यानि कि नाइट गुड से बेचैन हो गयी। बिस्तर से उठ कर कमरे में चलने लगी श्यामली!
दुबारा कागज़ पर नज़र डाली। क्या उठा ले हाथों में फिर से? उन्हें मुट्ठी में भींच लेने जैसा कोई आलिंगन नहीं। क्या अभी मेसेज करे डायरेक्टर को? हैप्पी एंडिंग चाहिए या सैड? लेकिन, डाइरेक्टर कभी एक शब्द में जवाब नहीं देता। पूरा लेक्चर देगा। प्लॉट कैसा डेवलप होते हुए कैसे एंडिंग में टर्न होना मांगता! और क्यों भी बताएगा। वो क्या है कि लॉजिक समझने से पूरा स्क्रीनप्ले कन्विंसिंग होता! ऊपर से डर गयी श्यामली कि सबसे पहले फोन न कर दे! अब्बी तक जाग रही है तू! बिंदास! झकास! टॉप की स्क्रिप्ट राइटर है अपनी! पत्ता है तेरे को, और फिर उन तमाम स्क्रिप्ट लेखकों के साथ लिरिसिस्टस के नाम गिनायेगा जो रात को लिखते थे। फिर, उनके भी जो सुबह लिखते थे। फिर, उनके जिन्होंने म्यूजिक कम्पोज़ करने के लिए रात को स्टूडियो खुलवा दिया। और माना कि हर बार उसके पास नए किस्से होते थे, कुछ रिपीट भी हो जाते थे। और इत्ती रात को इत्ती बक बक!
इससे तो हमारी नायिका बेहतर! मीटिंग में बैठी बैठी सर हिला रही है और रेसोलुशन बना रही है। पूरे व्हाट्सएप्प की क्लीनिंग करेगी। सारे फालतू के नंबर आउट। उसका नंबर भी हटा देगी। वह कभी भी फ़ौरन जवाब देता है तो क्या? सुबह, दोपहर, शाम हो या रात! इन सबमें उसे सोचने का वक़्त चाहिए।
बैठ जाती है श्यामली। कब्बी भी फोन कर श्यामली। ट्वेंटी फोर सेवन। बार बार कहा है डाइरेटर ने। जितनी जल्दी सम्भव हुआ मैं जवाब दूंगा। और सचमुच सुबह उठकर सारे वर्क मेसेज देखता है सबसे पहले। श्यामली जानती है मैरेड है अपना डायरेक्टर। दो एक अफेयर के बारे भी सुना है। झेल गयी होगी बीवी। डोटिंग हाउस वाइफ है। मिली है श्यामली। पुरुषों के विवाह सब कुछ झेल जाते हैं। खासकर, फिलिम की दुनिया में।
एक श्यामली की शादी ही एक वन नाइट स्टैंड नहीं झेल सकी! वो सोया तो ठीक, मैं सोई तो गड़बड़ झाला! इतनी बहस हुई कि लगभग कौन मांगे माफ़ी और गलती पहले किसकी पे अलग ही हो गए। बंगलौर से मुम्बई आ गयी श्यामली। इंडस्ट्री के हेड क्वार्टर में। जबकि दोनों शहरों में उसे स्विंगिंग कपल्स के बारे में भी पता था। अभी जहाँ है, कम्फर्ट में है। टस से मस नहीं होने का। डाइरेक्टर जानता है श्यामली डिवोर्सी है। लेकिन, ज़्यादा करीब नहीं जाने का। नो मेसेज ऐट नाइट! डाइरेक्टर जानता था डेटिंग साइट पर है लेकिन कोई पक्का बॉयफ्रेंड नहीं।
उधर नायिका भी टेंस मोड में है। ये हुआ ही कैसे? कैसे शुरू हुआ इस नंबर से ऐसा रेगुलर चैट? कोई अफ़ेयर नहीं है और न उसका डिनायल है। बस, इतनी तारीफें, इतनी तारीफें भेजीं उसने कि हार गयी वह अपने अकेलपन और अपनी थकान में। याद आया, ये बातचीत असल में तब शुरू हुई जब नायक के पेरेंट्स आये थे।
डेलिकेसी में जो उनकी देख भाल शुरू की, तो वह बढ़ती ही गयी और हाथ बटाने कोई नहीं आया। न सास, न पति। पहले दिन उसे लगा, ऐसे कैसे चाय के लिए पूछे बगैर दफ्तर चली जाए? तो पूछा, चाय? शक्कर कम का जवाब मिला। ब्रेकफास्ट में टोस्ट चलेगा पूछा और फ़ौरन टोस्टर में पावरोटी डाल दी कि कहीं परांठे की फरमाइश न कर दें! रियल बटर, ‘आई कैन’ट बीलिव इट्स नॉट बटर’ और चीज़ स्प्रेड तीनों का चॉइस दिया और बाहर हो ली।
दिन भर आतंकित रही कि शाम को जाने क्या हो? लंच के लिए नायक ने कहा था डब्बा वाला अच्छा खाना देता है तो सासू माँ ने कहा खुद बना लेंगे! वाह! लौटते में ग्रोसरी स्टोर से सीरियल्स और स्नैक्स की इतनी वैरायटी ले आयी, फिर भी दिल की धक् धक् कम नहीं हुई। सबको कॉफ़ी सर्व की। डाइनिंग टेबल पर खुद ही चिप्स का पैकेट खोलकर, कड़क कॉफी की घूँट के साथ चबाने लगी फिर भी नहीं। ढेरो चिप्स के पैकेट आगे रखे थे।
‘लीजिये न’, उसने कहा तो सास ने आँखें उठा कर ऐसे देखा जो ठीक तरेरना तो नहीं था लेकिन उनकी दृष्टि में ‘हाउ रिडिक्युलस’ साफ़ लिखा था। यानी फचाक की आवाज़ करते हुए वे चिप्स का पैकेट खोले और पैकेट से खाएं। प्लेट लेकर आयी और तीन चार फ्लेवर के चिप्स परोस दिए। कमरे में पुदीना, टोमैटो, सिम्पली साल्ट, मेक्सिकन स्पाइस और स्पेनिश ओरेगनो की खुशबू तैर गयी। सबकी चढ़ी हुई भवें कुछ मुलायम हो गयीं।
थोड़ी देर बाद, नायिका ने खुद को सब्ज़ी काटता पाया। फिर, आंटा भी गूंथा। और किचन से बाहर आकर बोली–‘मुझे चपाती बनानी नहीं आती।’ तो सास ने चपातियां बेलीं, उसने सेंकी। सब कुछ तैयार होते होते नायक भी घर आ गया। होता ये था, वो सुबह यही टोस्ट, सीरियल वैगरह खा कर जाते, लंच कैफेटेरिया में करते, सैंडविच, पास्ता, रोटी, परांठा, थाली, चाइनीज़ या कोई और नायब चीज़, शाम को चावल, खिचड़ी, तहरी, बिरयानी या मिलती जुलती कोई चीज़ खाते।
सब्ज़ी की गार्निश के लिए धनिया काटते वक़्त, आँखें भर आयीं नायिका की। ऐसी क्या अतिरिक्त खुशबू की दरकार हो आयी थी उसे? लंच में सास ससुर ने क्या खाया कोई सुराग नहीं। दो दिन बाद डिनर टेबल पर सास ने दो छोटी कटोरियों में दाल सब्ज़ी नायक के आगे रखी, ‘वैसे तो तुझे कभी बासी नहीं खिलाया, लेकिन आज ये तुम्हारा फेवरेट पकाया तो थोड़ा रख दिया।’ ‘हम बिल्कुल लेफ्ट ओवर्स नहीं खाते।’ बहु की ओर देख कर कहा। उसी दिन, ज़माने बाद  उसका मेसेज आया था। ‘जी करता है तुम्हारी उंगलियां चूम लूँ’। और टूट गया था नायिका के सब्र का बाँध। खूब रोई उस रात तकिये में सर छुपा कर। अलबत्ता, कहा सुबह ही, ‘गुड मॉर्निंग’!
नायिका एक बार फिर प्रण कर रही है, कण्ट्रोल में लाएगी सारी सिचुएशन। श्यामली थक कर सोने को होती है। सुबह की चाय पर चालू है डाइरेक्टर,–“अरे झकास बोले तो एकदम फर्स्ट क्लास! अब्बी क्या है, हैप्पी एंडिंग होने जा  रही है, आर्गेनिकली। हम कोई सरकारी प्रचार नहीं कर रहे, लॉक डाउन कॉन्फ्लिक्ट रेसोलुशन के लिए अच्छा टाइम है, लेकिन थोड़ा सस्पेंस मांगता है।”
“बिल्कुल, ऐसा ही सोच रही थी मैं भी”, श्यामली डाइरेक्टर को बीच में रोक कर बोलती है, “लास्ट सीन में हीरो हिरोइन ड्राइंग रूम में बैठ के वापस टीवी देख रहे हैं। हिरोइन बोल रही है, “ये चौथा दिन है और फिर भी ये लोग बाहर हैं। अब तक घर नहीं पहुंचे।
“अपनी जान के साथ साथ सबकी जान आफ़त में डाल रहे हैं।” नायक अपने स्टैंड पर अडिग है। “पांच दिन की नोटिस भी दी जाती तो पता नहीं कितना मानते?” नायक की राजनैतिक चेतना हमेशा से प्रो इस्टैब्लिशमेंट है। उसे सड़क की क्रांतियां पसंद नहीं।
“ये भी तो सोचो कितने बेचारे हैं। सब खुश हाल होता गांव में तो इतने शहरी मज़दूर होते ही नहीं। हमारे यहाँ एक कहावत है–‘सावन मास बहे पुरवैय्या, बेच बैल खरीद गैया’—यानि मौसम चक्र में जब उलट पलट हो तो खेती फायदेमंद नहीं रह जाती। ग्लोबल वार्मिंग का हल्ला होने से पहले, बेघर और लाचार हुआ हर छोटा किसान! किसान आत्महत्याओं की खबरें कब से”,
“एक मिनट यार, सैड को सुपर सैड बना दो इससे पहले, इनकी और सबकी इतनी जनसँख्या कैसे है? हमें एक पॉलिसी चाहिए, पापुलेशन कंट्रोल की।”
“चाहिए, लेकिन पहले सुरक्षा चाहिए! इनकी ज़िन्दगी ही एक जुआ है, खेती की तरह। चलो, मान लेते हैं तुम्हारी बात। लेकिन हम दोनों तो मिलकर एक नयी ज़िन्दगी दे सकते हैं दुनिया को! एक नया प्राणी ला सकते हैं संसार में?” बोल जाती है हिरोइन अपनी रौ में।
और फिर अचानक खड़ी हो जाती है, कॉफ़ी का कप उठाने। नायक उसे पकड़ लेता है। और जैसे ही, किस करने वाला होता है, नायिका पलट कर बोलती है-“लॉक डाउन में सोशल डिस्टन्सिंग!”
श्यामली के ख़त्म करते ही डाइरेक्टर उँगलियों से सुपर का इशारा कर रहा है कि कैमरा मैन दौड़ा हुआ आता है, “बॉस, ट्रेक्टर मिल गेला  है। शहर तक छोड़ेगा, वहां से गाडी भाड़ा। अब्बी के अब्बी निकल बाप मेरे”।
“पैक अप”, डायरेक्टर चिल्लाता है।

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