ज्यों दुनिया के अधिकतर देशों में सेकंड स्ट्रीट होती है, ज्यों हर हिल स्टेशन पर मॉल रोड, वैसे ही यह एक चमचमाती नई सड़क है जो लगभग हर गाँव, हर शहर, हर देश में उपस्थित है। अनजानी राहों पर चलने के लिए हौसला चाहिए। शुरू में झिझक हुई लेकिन अब इसका अजनबीपन मुझे सुहाता है। यह सड़क ज्यों एक अलग ही दुनिया में ले जाती है। जगमगाती हुई सुंदर, स्वप्निल, परीलोक सी! यूँ भी कह सकते हैं कि इस सड़क पर आ, आप पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कैद कर सकते हैं। हर शाम मैं यहाँ दूर तक निकल जाती हूँ। कोई मुझे जज नहीं करता, मैं भी किसी को नहीं पहचानती। यहाँ अनगिनत जगमगाते घरों में, असंख्य खिड़कियाँ हैं जो अपनी सुविधानुसार खुलती, बंद होती रहती हैं। कब कौन सी खिड़की खुलेगी… कौन सी बंद होगी इसका कोई नियम न होने पर भी पिछले कुछ महीनों की अपने वॉक में कुछ खिड़कियों का पैटर्न मैं समझ पाई हूँ। अब मैं उनके सामने से गुज़रती हूँ तो कई खिड़कियाँ मुस्करा देती हैं…एक औपचारिक मुस्कान जिसके कोई मायने नहीं होते हुए भी कई मायने होते हैं। कभी यह मुस्कान हम परिचय बढ़ाने के लिए देते हैं… कभी आगंतुक से अपना भय छुपाने… कभी उसकी औचक उपस्थिति से अचकचाकर …तो कभी इस भाव के साथ कि चलो, अब आ ही गए हो तो हँस कर ही झेल लिया जाए।
इस सड़क की चकाचौंध और शोरगुल से निस्पृह गुज़र जाना किसी साधना जैसा लगता है… ज्यों एक आत्मिक संतुष्टि! अब इस सड़क से मेरा परिचय बढ़ता जा रहा है और मैं बंद आँखों से भी इस पर चलना सीख गई हूँ तब मैं यहाँ की चहल-पहल और अधिक स्पष्ट देख पा रही हूँ। आजकल पीले गुलाबों वाली खिड़की पर खड़ी महिला मुझे आत्मीय मुस्कान देती है। उसे देखते ही मेरा भी हाथ स्वतः ही अभिवादन में उठने लगा है। गुलमोहर के पेड़ के नीचे खुलने वाली खिड़की किसी गायक की है। एक वेदना है उसकी आवाज़ में। उसकी आवाज़ के साथ बहते मैं निर्वात में पहुँच जाती हूँ। जहाँ अंदर-बाहर का सब शोर शिथिल पड़ जाता है। मैं प्रायः इसी गुलमोहर तले सो जाती हूँ। उससे कोई संवाद कर मैं उसके एकांत में बाधा नहीं डालना चाहती। 
आज एक नई खिड़की खुली है। लुभावनी मुस्कान लिए एक हमउम्र पुकारती है। मैं पलट कर देखती हूँ लेकिन पीछे कोई नहीं है, वह मुझे ही बुला रही है। मैं झिझकते हुए पास जाती हूँ। भूरी आँखों वाली लड़की मासूम अदा से अपने बाल झटकती है और कहती है-
 ‘मैं आपको प्रतिदिन यहाँ से गुज़रते देखती हूँ।’ 
किसी का यूँ मेरी उपस्थिति का संज्ञान लेना हर्षित कम शंकित अधिक करता है। मैं उसे पढ़ने की कोशिश करती हूँ। एक निष्कलुष मुस्कान उसके चेहरे पर खिली है। उसके उजास की किरणें मेरे अँधेरों को स्पर्श कर रही हैं। मैं तेज कदम बढ़ा वहाँ से दूर जाना चाहती हूँ। आज मैं और आगे निकल आई हूँ। यहाँ अपेक्षाकृत शांति है। मकान हैं लेकिन अधिकतर खिड़कियाँ बन्द। कुछ जो खुली हैं वह मुझे नहीं देख रहे।। कोई चिंता नहीं। मैंने आँखे बंद कीं, एक गहरी साँस ली। कई चेहरे और घटनाएँ आँखों के सामने घूम रही हैं। सब चेहरे गड्डमड्ड हैं।
मेरे बॉस की शक्ल मेरे पापा से मिल रही है। मैं उसे देख मुस्कराती हूँ। वह भी मुस्कराता है और शैतान में बदल जाता है। लिफ्ट अचानक रुक गई है।
माँ का चेहरा निकुंज दीदी का हो गया है। कपड़े वह दादी जैसे पहने है। सिलाई मशीन पर झुकी वह हम सब के लिए दीवाली की नई पोशाकें सिल रही है। मैं पास जाती हूँ। कहती हूँ बहुत देर हुई अब सो जाओ। माँ उठती है। सिर पर लिया पल्लू सरकता है। मैं चीख पड़ती हूँ। माँ कहाँ गई? यह तो कंकाल है।
सफेद छींटदार फ्रॉक में मैं हूँ लेकिन शक्ल गौरी की। मैं भाग रही हूँ…. तनु और लीना भी…. हमें पकड़ने चिंकी हमारे पीछे भाग रही है। भागते-भागते हम पार्क के अलग-अलग कोनों में निकल गए हैं। बड़े लोग हमारे नाम पुकार रहे हैं। वापस लौटते हैं। लीना  वापस नहीं लौटी। कहाँ गई? वह तनु के साथ थी लेकिन बस फव्वारे तक। वहाँ से वह अलग ओर भागी थी। पार्क के कोने में बने गार्ड रूम की दीवार के पीछे झाड़ियों में लीना सोई है। लेकिन क्यों? थकी थी तो घर क्यों नहीं गई। मैं पास जाती हूँ जगाने। लीना गौरी बन जाती है। मैं सहम कर आँखें खोल लेती हूँ। गौरी अकेली है घर पर। मुझे लौटना ही होगा। मैं दौड़ रही हूँ। मैं यह सब किसी से साझा नहीं कर सकती। मुझे सब अपने तक ही रखना होगा। बताने से कोई करेगा भी क्या? खिड़कियों पर काले पर्दे लगाने वाले कई हाथ स्वयं भी दागदार हैं। लौटकर गौरी के कमरे में झाँका। वह सोई है… अपनी गुड़िया को साथ सुलाए है। गुड़िया को हटा, मैं उस से सट कर सो जाती हूँ। वह अपनी नन्ही बाहों में मुझे भर लेती है।
 2
मुझे लगता है कुछ निर्णय लेना ज़रूरी है। उलझनें बढ़ती जा रही हैं। उपाय दिखाई नहीं देते। गौरी कोई बार्बी मूवी देख रही है। मेरे पास एक घण्टा तो आराम से है। बाहर आकर एक सिगरेट जलाई। पिछले चार महीने में यह सातवीं बार मैं सिगरेट छोड़ने में नाकामयाब हुई हूँ। मैं बुरी माँ नहीं हूँ… चाहती हूँ सिगरेट छोड़ना… लेकिन नहीं छोड़ पाती। नहीं छूटतीं कुछ चीज़ें जीवन में… हम स्वीकार क्यों नहीं लेते! सिगरेट के कुछ लम्बे कश खींच मैंने उसे फेंक दिया। बूट्स से उसे रगड़ते मैंने देखा कि सिगरेट बॉस जैसी दिखती है… धीरे धीरे मुझे लीलती हुई।
मैं फिर जगमगाती सड़क पर बढ़ चली। पीले गुलाबों वाली खिड़की मुझे पुकार रही है। मैं नहीं रुकती। नई खिड़की वाली लड़की मेरे पीछे-पीछे आई। मैंने गति और बढ़ा दी। मैं गुलमोहर के पीछे छुप गई। यह खिड़की आज बन्द क्यों है। खुलती क्यों नहीं। मैंने खिड़की खटखटा दी शायद। वह अचानक से खुल गई। मैं घबरा गई लेकिन कहती हूँ- आप कुछ गाते क्यों नहीं? वह अचरज से मुझे देखता है  फिर गाने लगता है। उसकी स्वरलहरियों की थपक से मैं सो जाती हूँ। सुबह आँख खुली तो देखती हूँ वहाँ मैं अकेली नहीं हूँ। एक बड़ा समूह इसी छाँव तले सो रहा है। यह भीड़ मुझे पहले क्यों नहीं दिखी? यह कैसा मायाजाल है? मुझे लौटना है।
3
आज मौसम सुहावना है। ऑफिस की भी छुट्टी। गौरी और मैं उसकी फ्रेंड कियारा के फार्म पर जन्मदिन की पार्टी में गए। खूबसूरत दिन जल्दी ढल जाया करते हैं। शाम भी आज जल्दी ही चली आई है। गौरी रिटर्न गिफ्ट देख रही है। उसने दो गेम भी जीते, वह खुश है। मुझे उस बच्चे का चेहरा भी याद है जो कोई भी गेम नहीं जीत पाया था। हमनें उत्सवों को भी प्रतियोगिता बना दिया है… जीत को खुशी का पर्याय। हर सुख की नींव में किसी का दुख दबा है। हर हँसी किसी के आँसुओं से तर। सांझ की लालिमा बढ़ रही है। कियारा और गौरी का गलबहियाँ करते, मुस्कराता हुआ फोटो मेरे सामने है। मुझे लगता है इस खुशनुमा मन से घूमना अच्छा रहेगा। मैं सड़क पर निकल चली हूँ। आज मेरी चाल धीमी है। मैं चारों ओर देख रही हूँ। किसी से नज़रें नहीं चुरा रही। मैंने जाना यह चोर बाज़ार है…कई बेशकीमती नगीने छुपाए। कभी समय हुआ तो तलाशने पर बहुत कुछ पाया जा सकता है। पीले गुलाब वाली खिड़की मेरे हाथ में फ़ोटो को देख चिल्लाई है- 
‘तुम्हारी बेटी?’
मैंने ‘हाँ’ में सिर हिलाया।
‘तुम जैसी ही सुंदर है।’
अपनी प्रशंसा सुने मानो युग बीत गए हैं। मुझे अच्छा लगा। तभी कई खिड़कियाँ तेजी से खुली हैं। वे सब कह रहे हैं कि बच्चियाँ कितनी प्यारी हैं।  दोनों को दुआएँ दे रहे हैं। दुआओं की मुझे ज़रूरत है। मैं सहेज ले रही हूँ। मैं उन्हें गँवा नहीं सकती। मैं नई खिड़कियों की पहचान याद रखने का प्रयास कर रही हूँ। अपने शुभचिंतकों को याद न रखना अनुचित होगा। आज मैं आगे नहीं जा पाई। यहीं ठहरी रह गई। मुझे अहसास हुआ कि इस सड़क पर अनुरागी लोगों के घर हैं। किसी अपरिचित पर इतना स्नेह कौन लुटाता है? मुझे अपने खोल से निकलना होगा। मैं घर लौट रही हूँ लेकिन कल पुनः आने की एक बेताबी है।
4
डिवोर्स की पहली डेट थी। प्रसून नहीं आया। अगली डेट दो महीने बाद की मिली है। जब हम मिलना चाहते थे… शादी करना चाहते थे तब परिवार साथ नहीं था… कोर्ट ने हाथ बढ़ाया, विवाह कराया। अब हम अलग होना चाहते हैं, परिवार साथ है पर कोर्ट अड़चनें लगा रहा है। समर्थन की नदी कभी भी अपना रुख बदल लेती है। तान्या का फोन आया था वह कह रही थी-
 “प्रसून गौरी की कस्टडी चाहता है।”
मैं हँस पड़ी। मैंने कहा-
 “कोई चिंता नहीं। मैं किसी भी बच्ची को गौरी कह, उसके सामने खड़ा कर दूँगी। वह उसे ही गौरी मान लेगा। वह गौरी की शक्ल भी पहचानता है क्या?”
 मैं देर तक हँसती रही।
वह बोली- “ऐसे क्यों हँसती हो? तुम्हारी चिंता हो रही है। अपना ध्यान रखो।”
फोन रख दिया था पर भय ने मुझ पर क़ब्ज़ा कर लिया। मैं गौरी को नहीं खो सकती। मैं प्रसून को खो सकती हूँ क्या? नहीं, प्रश्न यह है कि मैं प्रसून को पा सकती हूँ क्या? प्रसून को कभी मैंने पाया भी था क्या?
मैं लिख रही हूँ-
‘हम दुख के नहीं सुखद स्मृतियों के सताए हुए हैं।’
खिड़की पर दस्तक हुई है। मैं आगे नहीं लिख पाती। अपने घर की इस खिड़की से मैं अनजान थी। कभी खोली ही नहीं। दस्तक बढ़ती जाती है। खिड़की खोलती हूँ-
‘स्मृतियों को दंश न बनाओ। उन्हें प्रसून-सा महकने दो।’
‘…और दंश प्रसून के ही दिए हों तब?’
‘तब घास बन जाओ। सब पर छा जाओ,’
वे मुस्करा रहे हैं।
मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा।
‘आपको मेरा पता किसने दिया।’ 
‘आत्मा अपना पता स्वयं तलाश लेती है।’
मैं इस कथन का अर्थ नहीं जानती पर अनुभूति सुखद है।
‘शुभरात्रि। keep smiling …. मुस्कान सौंदर्य निखारती है।’
मैं यह खिड़की खुली रखना चाहती हूँ। यहाँ से आती हवा में एक ख़ुशबू है।
सुबह किसी आवाज़ से नींद उचटी है। मैंने समय देखा। अभी छह ही बजे हैं। गौरी निश्चिन्त सोई है मेरे हाथ पर। भ्रम हुआ होगा। मैं आँखे मूँद लेती हूँ लेकिन फिर कोई आवाज़ है। मैं उठती हूँ। रात को खुली छोड़ी खिड़की के पल्ले हवा से हिल रहे हैं। मैं उनींदी आँखों से चली आती हूँ खिड़की पर। यहाँ से सनराइज़ दिखता है। 
‘तुम मुस्करा दो तो सुबह खिले
जो अटक गई थी तुम्हारे जाने से
जो लौट आओ तो
ठहरी हुई वह साँस मिले’
‘गुड मॉर्निंग’, मैं कहती हूँ। हालाँकि मेरे लिए यह रात ही है।
‘अहा, एक कली खिली।’
मैं क्या कहूँ? बस एक मौन।
 ‘तुम्हारे साथ रहकर
अकसर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।’
(सर्वेश्वरदयाल)
मैं खिड़की से आती हवा की गिरफ़्त में हूँ।
‘आप कवि हैं?’, पूछे बिना नहीं रह पाती।
‘कुछ भले मानस ऐसा मानते हैं,’
 वे मुस्कराते हैं। आगे कहते हैं-
‘मैंने कब कहा
कोई मेरे साथ चले
चाहा ज़रूर’
(सर्वेश्वरदयाल)
क्या वे मेरा मन पढ़ रहे हैं? 
‘आप सुंदर लिखते हैं’ ,मैं कहती हूँ।
‘सर्वेश्वरदयाल को जानती हो?’
मैं अपने आस-पास सभी चेहरों को याद करते कहती हूँ – ‘नहीं’
‘पढ़ना इन्हें।’ 
वे स्नेह छोड़ चले गए हैं। मैं दूसरी खिड़की खोल, ‘सर्वेश्वरदयाल’ तलाश रही हूँ।
5
गौरी के लिए उसके पसंदीदा पेनकेक्स बनाकर उसे जगाती हूँ। वह चहकी- ‘मम्मी आप कितना प्यारा गाती हो’, तब अहसास हुआ कि अरसे बाद मैं गुनगुना रही हूँ। यह गुनगुनाहट पूरे दिन तारी रही। पिछले दिनों चार जॉब्स के लिए अप्लाई किया था एक से इंटरव्यू की कॉल आई है। मेरी कैरियर कंसलटेंट का कहना है कि इंटरव्यू बस फॉर्मेलिटी है। नई जॉब के लिए शहर बदलना होगा और केस इस शहर में चलेगा। मुक्ति का मार्ग सरल नहीं होता पर आज मैं इन सब के बारे में नहीं सोच रही। मैं आज को जीना चाहती हूँ।
लंचब्रेक में मैंने आज एकांत नहीं तलाशा… सबके साथ ही लंच किया। बॉस वहाँ से गुज़रा पर मेरी हँसी नहीं छीन पाया। मैं सुरुचि का हाथ पकड़े रही। शायद उसी समय अमन ने भी मेरे कान में शलभ का कोई सीक्रेट बताया था और शलभ उसे मारने दौड़ा था। अमन वहीं बैठा रहा लेकिन बॉस डर कर भाग गया।
जाने क्यों ऑफिस में मैंने कई बार वह सड़क तलाशी। मुझे लगता है कि यहीं-कहीं आस-पास है पर काम की अधिकता से मैं तलाश नहीं पाई। आज दिन और शाम के बीच दूरी कुछ ज़्यादा ही है। मैं अपनी बेताबी पर हैरान भी हूँ और खुश भी। 
6
यह सड़क अब सड़क भर नहीं है। मेरा दूसरा घर बन चुकी है। क्या हैरानी है? जिनके अपने घर नहीं होते सड़कें सदा ही से उनका घर बनी हैं। भले ही वह बुरे मौसम से आपकी रक्षा न कर पाए… भले ही किसी अनियंत्रित गाड़ी के नीचे आप कुचल दिए जाओ… भले ही अपेक्षित निजता यहाँ अप्राप्य है लेकिन हर प्रकार की दरिद्रता का विकल्प सड़कें ही हैं। सड़कों ने कभी किसी के लिए भी अपनी बाहें नहीं सिकोड़ी।
 पीले गुलाब वाली खिड़की पर आजकल मोगरा खिला है। मैं उसे देख मुस्कराती हूँ। वह खिड़की मेरे मुँह पर ही बन्द कर देती है। मैं हतप्रभ खड़ी हूँ। बराबर वाली खिड़की से नीली आँखों वाली लड़की कहती है- वह तुमसे नाराज़ है। तुम आजकल उसके पास रुकती जो नहीं।
मैं नहीं रुकती यह सच है क्या? हो भी सकता है। एक लंबे समय से मैं अपने पास भी नहीं रुकती।
मैं किसी अपराधिनी की तरह नज़रें झुकाए आगे बढ़ जाती हूँ। प्रेम की अभिव्यक्ति न हो तब वह प्रेम नहीं कहलाता पर अप्रेम व्यक्त न करने पर भी उसकी तरंगें द्रुत गति से संदेश सम्प्रेषित कर देती हैं। कवि की खिड़की पर चिनार की पत्तियां  बिखरी हैं। चिनार..विरह का सुनहरा रंग!
‘इन सूखे पत्तों में इतना आकर्ष किसने भर दिया?’,
मैं पूछती हूँ।
कवि के चेहरे पर एक रहस्यमयी  मुस्कान पल में जन्मी और क्षण में ही बिखर गई।
‘साहित्य और कला में दुख का रूप मोहना है। जो अनिश्चितताएँ जीवन में डराती हैं, गल्प में वही लुभाती हैं। ‘
वे मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करते हैं। न मिलने पर आगे कहते हैं-
‘अधिकतर प्रसिद्व उपन्यास दुखांत हैं- हेमलेट, जूलियस सीज़र, निर्मला….,’
‘न न! दुख की मार्केटिंग नहीं होनी चाहिए,’
 मैं उन्हें बीच में ही टोक देती हूँ।
‘सुख की शॉर्टेज है… सुख की डिमांड है …वही क्यों न सप्लाई किया जाए? सुख क्यों नहीं बिक सकता?’, मैं पूछती हूँ।
‘औरों का सुख हमें और दुखी जो करता है। अपने से अधिक दुखी पात्रों से गुज़रते अवचेतन में हमारा अहम् तुष्ट होता है, चेतन में हम इसे संवेदना कहते हैं…हम किताबें पढ़… फिल्में देख रोते हैं। ज्यों सच ही विकल होते तब क्या अपने आस-पास दुख हरने का प्रयास न करते?’
‘हम्म’,
शायद वे सही थे।
‘जो तुम कहो तो मैं लिखूँ एक सुखांत कहानी?’,
 यह कहते उनके स्वर से उम्र झर गई। यह स्वर कैसा मीठा है।
‘फिर कौन पढ़ेगा उसे?’, मैं पूछती हूँ।
‘जिसके लिए लिखी जाए क्या उसका ही पढ़ लेना काफी न होगा?’
कवि को अधिक समझ न पाने के बावजूद भी मैं उन्हें सुनना चाहती हूँ पर रहस्यों का एक झुरमुट उन्हें घेरे रहता है। मैं सहजता की तलाश में हूँ।
लौटते हुए नीली आँखों वाली लड़की से पुनः भेंट हो गई। वह मुझे पुकारती है। फिर क्षण भर रुकती है ज्यों कुछ निर्णय करना चाहती हो फिर ससंकोच कहती है- 
‘क्या सच ही सफेद केशधारी वृद्ध कवि तुम्हारे प्रेम में हैं?’
मेरा समूचा बदन काँप रहा है। इतना निर्बल मैंने अपने बॉस के समक्ष भी स्वयं को नहीं पाया। मैं लौट रही हूँ… लौट रही हूँ और सोच रही हूँ कि इस सड़क की विलक्षणता छद्म थी क्या? यहाँ भी वैसी ही ईर्ष्या है… द्वेष है… जजमेंट्स हैं।
मैं घर पहुँच पाती उससे पहले ही किसी ने पुकारा है। आज मैंने पहली बार संज्ञान लिया उनके केशों में कहीं-कहीं चाँदी झलकती है।
 ‘मुझसे बचना चाह रही थी न,’ 
इस स्वर में अधिकार अधिक है, उलाहना या प्यार? मैं निर्धारित नहीं कर पाती लेकिन मैं रुक गई हूँ। शायद मेरी आँखें भीगी हैं।
वे कह रहे हैं कि मैं रो सकती हूँ। मन हल्का होगा। मैं सच ही रो रही हूँ। रोते-रोते जाने कब सो भी गई। देर रात आँख खुली तो जाना कि वह अभी तक ठहरे हैं। वह कहते हैं कि मैं किसी शिशु की तरह रोती हूँ। मैं वही बन जाना चाहती हूँ। मैं माँ का आँचल चाहती हूँ… मैं पिता का संरक्षण चाहती हूँ। मैं एक गोद में सिमट इस दुनिया से छुप जाना चाहती हूँ।
वे कह रहे हैं-
‘ दुनिया से छुपो नहीं, उससे मिलो… मेरी नज़र से मिलो… दुनिया खूबसूरत लगेगी।’
मैं उनकी नज़र उधार ले लेना चाहती हूँ।
वे कह रहे हैं-
‘मेरी नज़र ही नहीं मेरे मन-प्राण भी तुम्हारे लिए हाज़िर हैं।’
मैं सच में किसी पर इतना अधिकार चाहती हूँ। लेकिन नहीं… उनसे मेरा रिश्ता ही क्या है? मैं पूछती हूँ,
‘लेकिन क्यों?’
‘कुछ क्यों के उत्तर दिए नहीं जा सकते केवल महसूस किए जा सकते हैं।’
मैं मौन उन्हें देख रही हूँ। हमारे चेहरों पर क़िरदार जाने कौन सी लिपि में लिखे जाते हैं, मैं पढ़ नहीं पाती हूँ।
‘उत्तर तलाशना। प्रतीक्षा करूँगा।’
वे लौट गए हैं। मैं भी लौट आई हूँ। सुबह की गुनगुनाहट दम तोड़ चुकी है। एक सन्नाटा साँय-साँय कर रहा है। गौरी का माथा चूम उसे देखती रही। उसके कमरे से बाहर आ कर आखिरी सिगरेट सुलगा, मैं फिर इस नई खिड़की पर बैठी हूँ। न कोई दिख रहा है… न किसी की प्रतीक्षा है। रात की नीरवता को चीरती पंखों की फड़फड़ाहट सुनाई दे रही है। छोटे-छोटे कई चमगादड़ मेरे चारों ओर घूम रहे हैं। कुछ के चेहरे मैं पहचानती हूँ कुछ से पूर्णतः अनभिज्ञ। अचानक वे सब मिलकर एक बड़ा चेहरा बन गए हैं। मुझे निगल जाना चाहते हैं। गौरी को भी निगल सकते हैं। मुझे जीतना होगा। मैं हिम्मत करके उन्हें बाहर धकेलती हूँ। खिड़की बन्द करती हूँ।
7
एक भयावह रात की सुबह मोहक भी हो सकती है। यह कल्पनातीत लगता है किन्तु सत्य यही है। सुबह अंशुकिरणों ने हौले से मुझे छुआ है। उठ कर देखती हूँ तो खिड़की पर हरसिंगार गमक रहा है। मैं अंजुली में भर लेती हूँ। काश कुछ लम्हों को,जीवन को भी यूँ ही सहेजा जा सकता।
‘बेहद खूबसूरत’
बिना किसी पदचाप चला आया कवि का यह स्वर मुझे चौंका देता है।
‘न, न! आप नहीं आपके पीछे लगी वह चिनार की पेंटिंग। आपने बनाई है?’
 ‘जी’,
मैं सकुचा कर जवाब देती हूँ। मेरे एकांत पर उनका यह अतिक्रमण मुझे इस पल भला नहीं लग रहा।
‘चिनार ने फिर बिखरा दी है
एक सुनहरी चादर…..
पत्तों के बदलते रंग जैसी
ख़्वाहिशें भी कुछ और
अमीर हो गयी हैं.
पेड़ो से छनकर आती किरणों ने
छितरा दिए हैं
यादों के इंद्रधनुष……
पलाश के दोने में
एक सुर्ख़ नाम सहेज रखा है मैंने’
कविता वे अपनी जेब में लिए ही चलते हैं शायद।
‘तुम जानती हो हम सब कोई न कोई नाम सहेजे हैं। हम अपने दोने के नाम में खोए रह जाते हैं यही दुख का कारण है। हमें तलाशना उसको है जो हमारे नाम का दोना लिए हो’,
वे कह रहे हैं मैं उन्हें मौन सुन रही हूँ। अचानक मुझे एहसास हुआ कि उन्हें सुनना मुझे अच्छा लगने लगा है। मैं चाहती हूँ कि आज दिन रुका रहे। वे यूँ ही बोलते रहें…मैं यूँ ही सुनती रहूँ।
‘कब लौटोगी?’,
 वे पूछ रहे हैं।
ओहो, यह इशारा है कि वक्त थम नहीं सकता। मुझे ऑफिस जाना होगा… गौरी को स्कूल।
‘वही शाम तक। मैं कहती हूँ’
‘मैं इंतज़ार करुँगा। बाय’
‘बाय’
मैं उन्हें पुकारना चाहती हूँ पर पुकार नहीं पाती। एक सन्देश छोड़ती हूँ।
‘आपके साथ रहकर
अकसर मुझे लगा है
कि मैं असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरी हूँ।’
(सर्वेश्वरदयाल)
वे मुड़ते है और मुस्कराते हुए पर्ची उठा लेते है ज्यों वे जानते हों कि मैं पुकारना चाहूँगी।
‘तो जान ही लिया सर्वेश्वरदयाल जी को तुमने। अब उनके प्रेम में मुझे न भूल जाना।’ 
वे मुस्करा रहे हैं। उनकी मुस्कराहट का संक्रमण मुझे भी छू रहा है।
8
आज गौरी को बुखार हुआ। सुबह वह बिल्कुल ठीक थी। करीब दस बजे स्कूल से फोन आया। ग्यारह बजे क्लाइंट से मेरी इम्पोर्टेन्ट मीटिंग थी। बॉस से कहती तो दिक्कत होती। मैंने शलभ और सुरुचि को बताया और चली आई। गौरी को सीधे डॉक्टर चेतन को दिखाया। वह बोले कोई चिंता की बात नहीं। मौसमी बुखार है। कुछ दवाइयाँ लिखी हैं। गौरी का बदन गीले कपड़े से पोंछ उसे दवाई दी। वह मेरी गोदी में ही सो गई। मैं उसके बाल सहला रही हूँ। मेरे कुछ आँसू उसके बालों में उलझे हैं। मैं कहना चाहती हूँ कि मैं थक गई हूँ…. मैं रोना चाहती हूँ…. मैं रोने के लिए एक कंधा चाहती हूँ।
जाने वह कौन सा पल था जब मैंने स्वयं को पुनः इस सड़क पर पाया। आज मैं अदृश्य होकर यहाँ से गुज़रना चाहती हूँ। पीले फूलों वाली खिड़की की महिला से राह में कई जगह सामना हुआ। शायद यह उसके वॉक का समय है। मन में एक टीस ज़रूर उठी पर मैं वहाँ से बिना पदचाप आगे बढ़ गई। गुलमोहर के पेड़ के नीचे गीत की कोई पंक्ति बढ़कर मेरी राह रोकती है लेकिन मैं नहीं रुकती। मेरी आँखें कवि को तलाश रही हैं। उन्हें उनकी खिड़की पर न पाकर मैं मायूस हो जाती हूँ। पुकारती हूँ पर कोई उत्तर नहीं। मैं निरुद्देश्य आगे बढ़ गई हूँ। अनजान खिड़कियाँ मेरे चारों ओर हैं। एक खिड़की के बाहर कवि को देख मैं ठिठक जाती हूँ। यह किसी कॉलेज गर्ल की खिड़की है। वह लज्जाकर कवि को सुन रही है। उसके चेहरे के सुर्ख़ रंग को देख मेरे चेहरे का रंग सफेद पड़ गया है। कवि जाने के लिए मुड़ते हैं। मैंने देखा उनका चेहरा बॉस से मिलता है। चेहरे पर वही विद्रुप मुस्कान है।
वे उस खिड़की से दूसरी खिड़की पर जा पहुँचे है। उन्होंने चिनार के कुछ पत्ते हर खिड़की पर छितरा दिए है। हर खिड़की का रंग सुनहरा होता जाता है। एक डोर इन सुनहरी खिड़कियों से उनकी खिड़की तक बँधती जाती है। उन्हें बस डोर खींचनी है। हर खिड़की पर एक कठपुतली है। वे काला जादू जानते हैं? वे मुझे भी कठपुतली बना देंगे?
भीड़ में अकेलापन और तीता हो जाता है। मैं अपने अकेलेपन को समेट लौट आई हूँ। गौरी की दवाई का भी समय हो गया है। पहले दलिया देकर तब उसे दवाई खिलानी है।
 “हाऊ आर यू फीलिंग नाउ?”,
 मैं उसका माथा छूते हुए पूछती हूँ। वह मुस्कराती है। कमरा फूलों से भर जाता है।
“मम्मी मैं खेल लूँ?” वह पूछती है। 
मैं उसका डॉल सेट उसे पलंग पर ही दे देती हूँ।
बॉस की कॉल है। मैं नहीं उठाती। फोन स्विच ऑफ कर मैं लैपटॉप खोल लेती हूँ। चिनार की पत्तियाँ खिड़की से अंदर आ रही हैं। मुझे खिड़की बन्द कर देनी चाहिए थी। अब देर हो चुकी। वे कह रहे हैं-
‘बहारों में टेसू हो तुम
खिली-खिली सुर्ख अंगार
पतझड़ में चिनार हो तुम
झरती बन कंचन हर द्वार’
पत्तों का पूरा गलीचा बिछ गया है। न मैं खिड़की बन्द करती हूँ और न ही उत्तर देती हूँ। अनकहे को पढ़ना कठिन होगा क्या?
9
हमारी पसन्द-नापसंद महत्वहीन हो जाती है जब कोई चुपके से हमारी आदतों में शामिल हो जाता है।
हर शाम मन आतुर हो जाता है जगमगाती सड़क की ओर। मैं सप्रयास स्वयं को रोकती हूँ। वहाँ की हवाओं में अवश्य ही अफ़ीम घुली है।
ऑफिस और गौरी … गौरी और ऑफिस के बीच कहीं एक रिक्तता है। मैं इसे भरना चाहती हूँ। कभी मंज़िल दिखती है, राह नहीं। कभी राहें अनेक खुल जाती है पर मंज़िल नदारद। यह सड़क कहाँ जाती है? कितने मोड़ हैं? अंत कहाँ?
खिड़की पर आज सहसा चाँद उगा है-
‘चाँद की चाँदनी सा तेरा साथ
हौले हौले कुछ यूँ ही
पसरा है ज़िंदगी में
बिना कोई शोर बिना कोई पदचाप
जैसे चाँदनी बिखर जाती है
हर शाम आँगन में
तारो की कुछ सरगोशी
और मद्धिम-सी दीपक की लौ
निष्काम…निर्लिप्त
बस शीतल सा सुकून भरा 
एक अहसास!
‘मेरे सुख की मार्केटिंग कर दोगी क्या?’
स्वर मासूम है। मैं अपने द्वंद से स्वयं ही आहत। सपने भी हमें रुला सकते हैं। आभासी दुनिया यथार्थ से अधिक करीबी हो सकती है। हर ज़हीन व्यक्ति का अनदेखा एक क्रूर चेहरा होता है। कई क्रूर आँखोंं के आँसूओं ने धोए हैं धरती के दाग। कुरूप सच या मोहक झूठ किस का चुनाव सुखकर है? जो दुनिया को नहीं छल पाते, वे स्वयं को छलते हैं। वे निष्काम प्रेम में विश्वास करते हैं। हर रिश्ते में एक विक्टिम है, एक कलप्रिट। कुछ लोग हर रिश्ते में ही विक्टिम का रोल पाते हैं। क्या मैं एक और रिश्ते में विक्टिम होने के लिए तैयार हूँ? मेरे पास कभी ‘राजा’ की पर्ची क्यों नहीं आती? मैं थक रही हूँ। मैं सुकून चाहती हूँ। किसी बेखुदी में मैं गुलमोहर के पेड़ वाली खिड़की पर झाँक कर आती हूँ। वह अभी भी गा रहा है। भीड़ पहले से भी अधिक है। मैं आँखें बंद कर गीत सुनना चाहती हूँ। कभी कभी लगता है कि मैं गीत पर अपना नाम चाहती हूँ। किसी और के नाम का गीत मुझे नहीं मोहता।
10
बॉस नाराज़ है। बिना बताए नहीं जाना चाहिए था। बताने पर वह उलझा देता। वह कह रहा है- 
“ओवरटाइम करो। आज डेडलाइन है।”
 बॉस के पीछे खड़ा अमन मुझे शांत रहने का इशारा कर रहा है। मैंने गौरी की आया को देर तक रुकने के लिए फोन कर दिया। अमन, शलभ और सुरुचि तीनों मेरे साथ ऑफिस में रुके हैं। बॉस ने दो- तीन चक्कर लगाए और फिर अपना बैग उठा चला गया। शलभ उसकी झल्लाहट की नक़ल उतार रहा है। अमन ने पिज़्ज़ा आर्डर किया। सुरुचि से मैं बहुत कुछ टिप्स सीख रही हूँ। काम खत्म होते-होते आठ बज गए थे। गौरी की चिंता न हो तो यूँ दोस्तों के साथ समय बिताया जा सकता है। प्रसून को गौरी की कस्टडी मिल जाए तो क्या बुरा है?
घर पहुँचते नौ बज गए। गौरी ने खाना नहीं खाया। वह मेरा इंतज़ार कर रही है। पिज़्ज़ा खाते हुए क्या मैंने गौरी को याद किया था? शायद किया था… हाँ पक्का किया था। मैंने सोचा था गौरी होती तो चोकोलावा केक मँगाने की भी ज़िद करती। मैं अपनी नज़रों में गिरने से बच गई हूँ। मैंने गौरी को गले लगा लिया। उसे अपने हाथों से खाना खिलाया। 
“गौरी आई कान्ट लिव विदआउट यु। यु आर माइ लाइफ शोना”,
कहते हुए मैं उसका माथा चूम रही हूँ। वह नन्ही अँगुलियों से मेरे आँसू पोंछ रही है। जब तक वह सो नहीं जाती मैं उसके साथ हूँ। वह जल्द ही सो गई। मैं आदतन जाग रही हूँ। दिन की गतिविधियाँ सुनने-सुनाने वाला कोई पास न हो तो रातों का क्या औचित्य? साइड स्टूल की ड्रावर से दवाई की बोतल निकालती हूँ। बोतल की आखिरी गोली खाते हुए मैं खिड़की पर फड़फड़ाती हुई पर्ची पढ़ रही हूँ-
‘आँगन में हौले हौले पाँव पसारती
सुरमयी सी शाम,
जानती हो जैसे कि
आज भी तुम नहीं आओगी,
तुम तो नहीं….लेकिन वो कुछ
शर्मिंदा सी लगती है
तुम्हें बिना लिए आने का
खुद को दोष देती
पंछियों ने भी मौन रह
मानो शाम का ही समर्थन किया है,
उन्हें कैसे समझाऊँ? तुम ही बतलाओ
धुंधलका बाहर नहीं, मेरे भीतर अधिक है
बाहर तो फैली है दूर तलक नीरवता
पर भीतर का कोलाहल
कई रातों से मुझे जगाए है..!’
यह नीरवता… यह कोलाहल दोनों मेरे भीतर एकरूप  रहते हैं। मैं दोनों से डरती हूँ। मैं इनसे एक मुलाकात चाहती हूँ। मैं इनसे लड़ना चाहती हूँ। मैं एक साथी चाहती हूँ जिसके कहकहे इस नीरवता को भंग करे… मैं एक साथी चाहती हूँ जिसके मृदुल स्वर से सब कोलाहल शांत हो जाए।
‘मुझे अकेला छोड़ दीजिए’, मैं कह उठती हूँ।
‘I am here… with you… for you!’
वे वही क्यों कह देते हैं जो मैं सुनना चाहती हूँ। 
खिड़की की चौखट आँसूओं से भीगी है।
11
रात ही रात में खिड़की की नमी आकाश तक फैल गई। दो स्याह दुखों का साझा रंग इंद्रधनुषी होता है। इंद्रधनुष क्या है? अधूरी धूप और अधूरी बूंदों के
प्रेम भरे साझा हस्ताक्षर! किसी एक के हस्ताक्षर से कोई कॉन्ट्रैक्ट पूरा नहीं होता। कवि के हस्ताक्षर खिड़की पर छूटे हुए है। क्या मैं भी अपने हस्ताक्षर कर दूँ?
कवि की तलाश में मैं सड़क पर हूँ। मैं यह देख कर हैरान हूँ कि कवि के हस्ताक्षर कई खिड़कियों पर हैं। लेखक ऑटोग्राफ देने में अभ्यस्त होते हैं। लेखकों के ऑटोग्राफ पा, लोग गर्वित होते हैं। मैं क्यों उदास हूँ? मुझे कवि नहीं चाहिए… कविता भी नहीं… मैं एक दोस्त चाहती हूँ। मैं दोस्ती में विश्वास चाहती हूँ। मैं दोस्तों की भीड़ नहीं चाहती। मैं एकनिष्ठता चाहती हूँ। कवि पुकार रहे हैं पर मैं भाग रही हूँ। मैं अपनी क्षमता से भी तेज भाग रही हूँ। मैं अपनी आत्मा पर एक और आघात नहीं चाहती। वे पीछे छूट गए है। मैं वह  खिड़की बन्द कर देती हूँ जिससे वे मुझ तक पहुँच न सकें।
मैं गौरी को जगा रही हूँ। आज हम साथ रहेंगे। नो ऑफिस? वह हैरान है। यस, नो ऑफिस। मम्मा- गौरी टाइम ओनली। मैं उसे आश्वस्त करती हूँ। वह मेरे गले में बाँह डाल कर फिर सो गई है। जब ऑफिस नहीं जाना तब घड़ी से क्यों दौड़ लगानी। मैं भी कुछ और देर सो सकती हूँ।
तान्या का फोन आया है। वह कह रही है कि प्रसून मिलना चाहता है। घर का दरवाज़ा अचानक खुल गया है। मैं गौरी को पूछ रही हूँ- 
‘क्या मम्मा-गौरी टाइम में एक नाम और शामिल किया जा सकता है?’,
प्रश्न खत्म होने से पहले ही गौरी ‘पापा’ कहते हुए हाथ फैलाकर दरवाज़े की ओर दौड़ गई। प्रसून उसे गोदी में लिए मुस्करा रहा है। वह प्रसून को देख मुस्करा रही है। वह पापा को किस्सी दे रही है। पापा उसके लिए खिलौने लाए हैं। हर मूवी में पापा से बच्चियाँ यूँ ही मिलती हैं। बस मूवी के अंत में मम्मी-पापा एक हो जाया करते हैं लेकिन यह तो जीवन है… नहीं यह सपना है…. भयानक सपना…. आँख खुलती है…. शरीर पसीने से भीगा है… गौरी मेरे बराबर गहरी नींद सोई है। समय देखा सुबह के सात। सुबह का सपना सच होता है…. माँ कहती है… है नहीं, कहती थी जब कहने लायक थी। अस्थिपंजर कब बोलते हैं? माँ के अस्थिपंजर होने का तो सपना नहीं आया था। वह अस्थिपंजर कैसे बन गई? पहले माँ की आवाज़ बदली फिर खाना फँसा और फिर पानी भी। आवाज़ बदलने को कौन पहचानता, माँ इन सालों में पूरी ही बदल गई थी कोई देख पाया था क्या? वह स्वयं भी तो नहीं। और गले में तो औरतों के जाने क्या-क्या फँसा ही रहता है। जो बातें वह कभी बोल नहीं पाईं, उपेक्षा से ऊब, उन बातों ने बगावत की … यूनियन बनाई और एकत्र हो, एक गाँठ बनकर फँस गईं। चीरा लगा… दवाइयाँ दी गईं… मशीन से जलाया गया…. लेकिन यह माँ थी … जो बातें मन में दफना ली वह कभी पिघलने ही नहीं दी फिर। पिघली तो माँ के शरीर की वसा..  गाँठ ज्यों की त्यों। बाती के अनवरत तिल-तिल जलने पर वसा का उपभोग कोई आश्चर्य नहीं।
मिले हो तुम मुझको बड़े नसीबों से… मिला नहीं कोई बस मेरे फोन की रिंगटोन है जो अनजान नम्बर से बज उठा है। 
“हैलो”, मैंने कहा।
“गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले 
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले”
“कौन?”
“चार दिन की ज़िंदगी में नाराज़गी अच्छी नहीं
अपनों से पूछे हो ‘कौन’ यह अदायगी अच्छी नहीं”
फोन रखने ही वाली थी जब आवाज़ आई-
“यशोवर्धन प्रताप… नाम तो सुना ही होगा!”
“अरे आप…”, उफ्फ! एक खिड़की खुली ही छुटी थी पर मन का कोई ईमान ही नहीं। इस भूल पर भी हज़ार तर्क ठुकरा कर उछल पड़ा।
“नम्बर कैसे मिला?”
“जहाँ चाह वहाँ राह।”
मुझे लगा मैं रो पडूँगी।
“आई क्यों नहीं?”
“पता नहीं था कि कोई इंतज़ार करेगा।”
“तुम्हारा मन तो जानता था। तुम न स्वीकारो चाहे।”
मेरी सिसकियाँ उन तक पहुँच रहीं थीं शायद।
वे बोले- 
“न न रोते नहीं।खुश रहो। मुस्कराती रहो। आज कुछ लिखूँगा तुम्हारे लिए। आओगी न?”
मैंने ‘हाँ’ में सिर हिलाया।
“बोलो? आओगी न?”
“जी”, मैंने आँसुओंं को रोकते, भरे गले से बमुश्किल कहा।
भुरभुरी मिट्टी के पुतले है हम। कोई छूता है और बिखर जाते हैं। सबके साथ रहते भी जाने कैसे एक निर्वात हमारे अंदर बन जाता है। चारों ओर से हवा उसे भरने दौड़ पड़ती है। द्वंद का बवंडर हमें घेर लेता है। आँखों में धूल भर जाती है। कुछ स्पष्ट नहीं दिखता।
12
गौरी को जगाया। दोनों तैयार होकर ‘फ्रोजेन-2’ का मॉर्निंग शो देखने गए। गौरी को कुछ झूलों पर बिठाया। शॉपिंग की। barbeque nation में लंच किया। गौरी ने कहा-
 “काश! आज मेरा बर्थडे होता।”
  मैंने कहा-
“मान लो कि आज ही है।”
बर्थ डे कैप लगाकर केक काटती गौरी के चेहरे पर निर्दोष हँसी खिल उठी। तालियों की गूँज के साथ ‘हैप्पी बर्थडे टू यू’ के स्वर हवा में तैर गए। कुछ मासूम झूठ सच मान लेने भर से खुशियाँ यूँ ही सहज मिल जाया करती हैं क्या? मन में सोचा-
‘Give me the beautiful lie and you can keep your ugly truth. What you don’t know won’t hurt you.’
(Anonymous)
मॉल की दुनिया उस जगमगाती सड़क जैसी ही खूबसूरत प्रतीत होती है पर यहाँ खुशी की कीमत बहुत अधिक है हम बाहर आ जाते हैं।
“गौरी, घर या पार्क?”, मैंने पूछा।
गौरी ने पार्क चुना। वह पार्क में स्लाइड पर दौड़ गई। बच्चों के लिए नीचे गिरना भी कैसा रोचक है। हम जाने क्यों ऊँचाइयों में ही उलझे रहते हैं। गौरी जल्द ही दूसरे झूले पर दौड़ गई। वह पार्क के हर झूले पर बैठेगी। मैं पास ही बेंच पर बैठ उसे देख रही हूँ। मैं उसके आस-पास खेलते और बच्चों को भी देख रही हूँ। मैं उन बच्चों के साथ आए उनके मम्मी और पापा को भी देख रही हूँ। मैं गौरी के पास भी उसके पापा चाहती हूँ। नहीं, मैं एक इरेज़र उठा इस तस्वीर से सब पापा मिटा देना चाहती हूँ। मैं अपने पापा को अपने पास चाहती हूँ। मैं कवि में अपने पापा चाहती हूँ?
एक यायावर दिन का अंत कर हम घर लौट आए हैं। पिछले कुछ सालों में गौरी के लिए ऐसे कम ही दिन जुटा पाई हूँ मैं। मै उसका निर्मल मुख चूम लेती हूँ। ऐसे खूबसूरत दिन का अंत भी मीठा ही होना चाहिए। पिज़्ज़ा और चोकोलावा केक आर्डर किया गया। गौरी डिलीवरी बॉय के डोरबेल बजाने का इंतज़ार करती ‘माशा एन बेयर’ देखने लगी। दरवाज़े से पहले ही खिड़की पर दस्तक हो गई। मैंने झाँका-
‘कुछ सीले से हर्फ़ लिखे थे….. पढ़े थे किया?’
मैंने पूरी खिड़की की तलाशी ली। कहीं कुछ नया नहीं था। कहा-
 ‘कैसे पढ़ती मिले ही नहीं’
वे बोले- ‘जाने क्यों तुम मेरा मन पढ़ नहीं पाती?’
‘मन पढ़ने को ज़रूरी है मन की आँखें
मन ही मर जाने पर कैसे पढूँ मन की बातें’
‘देखो, तुम तो कवि बन गई’, वे मुस्कराए।
मैं स्वयं अचंभित थी। यह क्या हो रहा था? क्या चाहती हूँ मैं? वे क्या चाहते हैं? 
‘आप शायद मुझे गलत समझ रहे हैं’, मेरे शब्द सच ही सीले थे।
‘विश्वास रखो, किसी कामनावश तुमसे बात नहीं करता’, उन्होंने कहा।
‘आज थका हूँ। जल्दी सोऊँगा’, आगे कहा।
‘जी’
‘बस तुम्हारी एक मुस्कान के लिए रुका था। मुस्करा दो तो जाऊँ’,
कहीं दूर बेला महका और हवा के संग खिड़की से भीतर चला आया।वह चले गए। मैं उनकी जाने की दिशा में देखती रही।
सुख पर शंका का परछाया है।  विश्वास का टीका लगाना चाहती हूँ। नेह की कुछ बूँद और मन गीली मिट्टी-सा गलता जाता है।
 मैं पुकारती हूँ- ‘सुनिए’
वे दूर जा चुके थे पर लौट आए। इस पुकार की अनुगूंज उनके चेहरे पर मुस्कान बन थिरक रही है।
‘आप न आया करिए। मैं पहले ही टूटी हुई हूँ’
वे स्तब्ध खड़े हैं।
‘नहीं, आऊँगा। पर सज़ा गुनाह पर ही मिलनी चाहिए न। कोई गुनाह किया है क्या?’ 
प्रेम सबसे बड़ा गुनाह है। भीतर तक तोड़ देता है। मैं कहना चाहती हूँ। पर नहीं कहती। उन्होंने कब कहा वह मुझसे प्रेम करते हैं। मैं ही कब उनसे प्रेम करती हूँ। दो टूटे हुए साज़ है जो साथ होने पर एक दूजे के अधूरेपन की तसल्ली बन जाते हैं।
‘यकीन करो। मैं कभी तुम्हें दुख नहीं पहुँचा सकता। जब पुकारोगी आ जाऊँगा। जब उकता जाओगी चला जाऊँगा।’
 ‘और उकताहट आपकी तरफ से हुई तब?’
‘कभी भी आज़मा लेना। मैं यहीं हूँ सदा तुम्हारे पास। खुश रहो।’
आशीष दुखों को साध लिया करते हैं। कितने दिनों बाद मैं बिना गोली खाए भी सो सकी।
आजकल दिन खुद को दोहराने लगे हैं। दोहराव प्रतिक्रिया को कुंद कर देता है। अवसन्नता अब निस्पृहता में बदल रही है। ज़िंदगी हाथ पकड़ जिधर ले जा रही है उधर बढ़ जाती हूँ। जहाँ बिठा देती है बैठ जाती हूँ। मैं तर्क करते थक गई हूँ। 
ऑफिस में जो उकताहट बढ़ जाती है। खिड़की पर आकर झर जाती है। खिड़की के फूलों की महक दिन भर मन महकाती है। मैंने ऑफिस से रास्ता तलाश लिया है। अब शलभ, सुरुचि और अमन के साथ होते हुए भी मन कहीं और अटका रहता है। वह कोई प्लान बनाते भी हैं तो मैं गौरी का बहाना बना मना कर देती हूँ। उनके अपने भरे-पूरे परिवार हैं। उनकी पूर्णता मुझे मेरी अपूर्णता का अहसास कराती है। मैं सड़क पर भी और कहीं नहीं निकलती। मेरी दुनिया ऑफिस और खिड़की तक ही सीमित हो गई है। इस जड़ता को तोड़ते कभी-कभी फोन की घंटी ज़रूर बज जाती है। जिसकी आवृत्ति बढ़ती जा रही है और अवधि भी।
13
गौरी का सातवाँ जन्मदिन है। सात फेरे और सात वचनों के पश्चात भी प्रसून नहीं आया है और न ही कोई सन्देश। मैंने गौरी की सभी सहेलियों को ‘कैफे पामेरा’ में बुलाया। गौरी ने ‘ऐलजा’ के जैसा नीला गाऊन पहना। लगता है परियाँ आज धरा पर उतर आई हैं। मैं नहीं चाहती गौरी को प्रसून की ज़रा भी कमी महसूस हो। उसने जो भी चाहा मैंने वह सब किया। फ़ोटो खींचते हुए सुरुचि कह रही है कि मुझे अब अपने बारे में भी सोचना चाहिए। जन्मदिन की तस्वीरें देखते मैं सोच रही हूँ कि इतनी भीड़ में एक जन की अनुपस्थिति से तस्वीरें कैसे अपूर्ण दिखने लगती हैं। मैंने उन तस्वीरों को अलग कर दिया जिनमें मैं भी हूँ। माँ की उपस्थिति में पिता की अनुपस्थिति बड़ा प्रश्न बन सकती है। केवल बच्चों वाली तस्वीरें ही अपरिचितों से साझा करना उचित है। साझा करना क्या ज़रूरी है? पर और कौन है मेरे पास मेरे सुख-दुख बाँटने। ज़रा-सी खुशी मिलती है तो सम्भाल नहीं पाती। छलक जाती है उसी सड़क पर। मैं जानती हूँ जन्मदिन यहाँ बड़ा उत्सव हैं। सब खिड़कियों पर आ गए हैं। वे सब खुशी से चिल्ला रहे हैं-
‘Happy birthday Gauri!’ 
कहीं न कहीं एक ग्लानि मुझे घेर रही है। उनके बच्चों के जन्मदिन पर पता नहीं मैंने आशीष दिया था कि नहीं! अन्यमनस्कता आजकल हावी हुई रहती है। 
गौरी अपने उपहारों से खुश है। हम दोनों ने डॉल हाउस बनाया। बार्बी के साथ आईं नई ड्रेसेस पुरानी बॉर्बी को भी पहनाई गईं। खेलते-खेलते ही गौरी वहीं सोफे पर ही सो गई। उसे पलंग पर लिटा मैं सड़क निहारने लगी। हैप्पी बर्थडे का शोर अभी थमा नहीं है। कई नई आवाज़ें मेरी खिड़की पर दस्तक दे रहीं है पर मैं  खिड़की नहीं खोलती। जिसकी दस्तक का मुझे इंतजार है वह जाने क्यों आज अनुपस्थित है। दिन का अधूरापन कुछ और बढ़ गया। सोते हुए आँखे गीली हैं।
सुबह देखा आशीषों से झोली भरी है। सोती हुई गौरी को चूम लिया। उसे जगाया स्कूल के लिए तैयार किया। खिड़की पर दस्तक हो रही है। मन खिड़की पर अटका है। आँखें सड़क के ट्रैफिक पर।
ऑफिस पहुँच कर सबसे पहले खिड़की ही खोली। छोड़ी गई चिट पढ़ी-
‘सदा कैमरे के पीछे ही रहना ज़रूरी है क्या? कभी आगे भी आना चाहिए। फ्रंट कैमरा भी इस्तेमाल किया जा सकता है।’
एक गुलाबी मुस्कान चली आई। दिन को कहा आज पाँव ज़रा तेज़ बढ़ाओ। बॉस ने किसी न किसी बहाने चार बार अपने चैम्बर में बुलाया लेकिन अब जाते हुए मेरा मन नहीं काँपता। मैं उसकी आँख में आँख डालकर बात करती हूँ तो वह अपनी नज़र झुका लेता है।
दिन जितनी आहिस्ता से रात की ओर बढ़ा मेरा मन उतनी ही तेज़ी से खिड़की की ओर। आज गौरी की बातें और खेल बचकाने लग रहे हैं। उसके साथ होते हुए भी मन दूर निकल जाता है। खिड़की पर पहली दस्तक के साथ ही मैं गौरी को कहती हूँ कि वह कुछ देर कार्टून देख सकती है। वह रिमोट उठाती है और मैं खिड़की खोलती हूँ।
‘कैसी हो?’
मैं बस मुस्करा भर दी।
‘मुझे मिस किया?’ 
मैं चुप। कुछ सच चाह कर भी कहे नहीं जा सकते।
‘तुम न भी करो मेरा इंतज़ार। मैं करता रहूँगा… उम्र भर।’
‘मैं किसी वादे पर विश्वास नहीं कर पाती।’
कुछ सच कैसे दयनीय होते हैं। 
‘न न आँसू नहीं। मुस्कराओ।’
यहाँ अनुभूतियाँ पोस्टरों में सिमटी हैं। मैं मुस्कान का पोस्टर उन्हें पकड़ा देती हूँ। वह प्रत्युत्तर में आशीर्वाद का।
‘अपनी कोई मुस्कराती हुई तस्वीर देना।’
 ‘मुस्कान जीवन से ही रूठी है। तस्वीर में कैसे उतरेगी?’
‘आज एक सेल्फी लेना।मुस्कराना। इतना कर सकती हो न मेरे लिए?’
मेरा स्वयं से कभी औपचारिक परिचय कराया नहीं गया है। मैं मेरे लिए नितांत अजनबी हूँ। क्या कर सकती हूँ क्या नहीं, कब जानती हूँ! पर हाँ, उनके जाने के बाद खिड़की बन्द करके सबसे पहले मैंने सेल्फी कैमरा ही खोला। मुस्करा नहीं पाई, उदासी एक क्लिक के साथ कैद हो गई। मैं मुस्कान तलाशने सड़क पर निकली हूँ। यहाँ कभी सन्नाटा नहीं होता। कुछ तो रात्रिचर ही हैं, दिन में कभी नहीं दिखते। कई नई खिड़कियों को निहारती मैं आगे बढ़ी हूँ। कवि ने अपनी एक खिड़की भूलवश खुली छोड़ी है। इस जगमगाते जग की यही खासियत है। आप जब चाहें भीड़ चुन लें, जब चाहें अकेले हो जाएँ, जब चाहें भीड़ में से किसी एक या कुछ को चुन लें। जीवन चयन की यह सहूलियत कब देता है? उन्होंने बेध्यानी में कॉलेज गर्ल के संवाद में मुझे भी चुन लिया। वह लड़की से कह रहे हैं- मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ। उन्होंने उसे भी आशीर्वाद दिया है और उसकी भी आँखें छलछला उठी हैं। दुख कब उम्र के मोहताज़ है! मैं इस लड़की को गले लगाना चाहती हूँ पर अनामंत्रित मेहमान अपनी उपस्थिति कैसे उजागर करे? मैं उस लड़की के जाने की अपनी खिड़की पर प्रतीक्षा करती हूँ। खिड़की पर हुई असमय दस्तक से कवि हैरान हैं।
‘आपने कहा था कभी भी पुकार सकती हूँ’, मैं कहती हूँ।
उन्हें सयंत होने का समय मिल गया।
‘क्यों नहीं, कभी भी। एक आवाज़ पर सदा पास पाओगी।’
‘क्यों?’, मैं अवरुद्ध कंठ से बमुश्किल कह पाती हूँ।
 एक दम घोंटू चुप्पी।
 ‘ कुछ रिश्ते आत्मिक होते हैं। आत्माओं के कोटरों में हमारे स्थायी पते लिखे हैं। वहीं लौटते हैं… ठहरते हैं।
मैं स्वयं भी नहीं जानता
किस जन्म तुम्हारे
मन वृक्ष के कोटर में,
मैंने बनाया था अपना नीड़
सुधियों की पगडंडिया तलाशता
हर जन्म….
मैं तुम तक पहुँचता हूँ
अवचेतन की स्मृतियों में
गहरे लिखे हैं हम सब के
स्थायी आवासों के पते’
‘और भी कोई है जिससे यह आत्मिक लगाव आप महसूस करते हैं?’, सच की भयावहता मुझे डरा रही है। भ्रम का सुंदर किला सीलन से चरमरा गया है।
‘और कौन हो सकता है। बस तुम!’
‘Hurt me with the Truth, but Never comfort me with a Lie.’ मैं चाह कर भी नहीं कह पाई। बस चली आई।
एक आस थी कि वे पुकारेंगे पर नहीं, कोई पुकार नहीं। खिड़की पर भी कोई दस्तक नहीं।
तारीख़े बदलती गईं पर ज़िंदगी एक पुकार के इंतज़ार में थमी रही। कभी लगता सपना सुखद हो तो क्या अनवरत नहीं चल सकता? आज चुपचाप काँपते कदमों से सड़क पर निकली। देखा, कवि कोई नई कविता सुना रहे हैं। नीली आँखों वाली, कॉलेज गर्ल, गुलाब के फूलों वाली महिला सभी तो मोहित हो सुन रही हैं। कवि ने सबको गुलाब बाँटे पर जाने कैसे दूर खड़े ही काँटे मेरे हाथ में चुभे हैं। सबके जाने के बाद मैं उनके सामने जा खड़ी हुई।
‘एक फूल मेरे लिए भी बचा लेते’, स्वर की विकलता पर मैं स्वयं लज्जित हूँ।
‘तुम्हें फूल देने वाले बहुत हैं’, वे तल्ख़ी से कह पलट चले।
अपमान और क्षोभ से छलनी मन आँखों के रास्ते छलक उठा। 
हम रात भर जागकर अपना विद्रोह दर्ज करा सकते है पर सूरज को जाने से नहीं रोक सकते और मुझमें तो  नियति के निर्णयों से विद्रोह की ताकत भी अब शेष नहीं। मैंने सिरहाने रखी शीशी उठाई उसका ढक्कन खोल पूरा मुँह में उड़ेल लिया। आँधी का तेज झोंका आया। सारी खिड़कियाँ आपस में टकराईं और किरचनें फैल गईं। काँच के महीन टुकड़े मेरे पूरे शरीर में धँसने लगे। जानलेवा दर्द रगों में दौड़ने लगा और फिर सब शांत हो गया। हमारी चीत्कार कोई नहीं सुनता लेकिन चुप होने का निर्णय खबर बन जाती है। मेरी देह भी अब एक खबर थी और मन अतृप्त आत्मा!
माँ का कंकाल हिचकी ले लेकर रो रहा है। रोने से हाथ मे लगी ड्रिप निकल गई, खून बह रहा है। प्रसून कह रहा है कि गौरी को किसी बोर्डिंग में भेजना होगा। वह अपने साथ नहीं रख सकता। बॉस व्यथित हो, सबको बता रहा है कि मैं उसका साथ चाहती थी किन्तु वह अपनी पत्नी से दगा नहीं कर सकता था। कवि ने अपनी एक खिड़की पर मेरी तस्वीर लगाई है। लिखा है कि कोई दुख साझा करने वाला होता तो मैं बच सकती थी।
ओहो! दुख से नहीं मरता कोई, दुख की नुमाइश कर मर जाता है। मैं चिल्लाना चाहती हूँ। शायद चिल्ला ही पड़ती हूँ-
‘एक क़त्ल है हुआ इधर पर क़ातिल कोई नहीं
ख़ंजर है सबके हाथ में पर शामिल कोई नहीं’
गौरी, मम्मी! मम्मी! पुकारती, रुआंसी हो मेरा हाथ खींच रही है। अकबका कर मैं उठ बैठी। सिरहाने रखी दवाई की शीशी वैसी ही भरी है। मैं पसीने से भीगी हूँ।  पानी पीते हुए मैं गौरी को गले लगा लेती हूँ। मैंने गौरी को एक बार ही जन्म दिया है पर वह जाने मुझे कितने जन्म दे चुकी है।
गौरी मेरी गोदी में मुझे कस कर पकड़े सो रही है। चिंता की कुछ रेखाएँ उसके चेहरे पर बनी हैं। कहीं दूर कोई गा रहा है-
ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है 
हद-ए-निगाह तक जहाँ गुबार ही गुबार है।
दूर नहीं मेरे बेहद क़रीब मेरा अंतर्मन ही गा रहा है। मैंने अपनी अँगुलियों से गौरी के माथे की सलवटों को सहलाया। स्पर्श की सुखद अनुभूति स्मित बन झलकी। मैंने आहिस्ता से मोबाइल उठाया और हर उस खिड़की को सदा के लिए बंद कर दिया जिनसे इस स्मित के खो जाने का ज़रा सा भी अंदेशा हो। 

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.