वह सिटी हॉस्पिटल में वार्ड नम्बर छह की सफ़ेद, सपाट छत की ओर देखे जा रहा है, उसने मुट्ठियाँ कसकर भींच रखी हैं । वह देखे जा रहा है ? नहीं, शायद वह देख नहीं रहा है, उसकी बस आँखें खुली हैं । देखने की प्रक्रिया तो तब पूर्ण होती है जब सामने वाली किसी वस्तु या दृश्य को देख कर देखने वाले का मस्तिष्क भी प्रतिक्रिया देता हो । आँखें खुली होने मात्र से देखने की क्रिया पूर्ण नहीं होती । वह बात – बात में डर जाता है, खुद में सिमट जाता है, किसी से मिलना नहीं चाहता । ऐसा क्या हुआ है उसे ? वह तो भारत के पितृसत्तात्मक समाज का योद्धा है, वह योद्धा जो उन्नत क़िस्म के बख्तरबंदों से सुसज्जित और सुरक्षित होता है और सदा विजेता होने की स्थिति में होता है । अलिखित ही समाज के सारे नियम उसके पक्ष में हाथ जोड़ कर खड़े हैं, फिर वह इस प्रकार जड़ होकर क्यों रह गया आख़िर !
वह खुद अपने छोटे से जीवन में जहाँ तक पीछे जाता है वहाँ तक उसे एक अँधेरे से भरी सुरंग दिखाई देती है । जिसमें सघन अंधकार ने प्रकाश का हर मार्ग अवरुद्ध कर दिया है । वह सुरंग अंतहीन है, वह उससे बाहर निकलने के लिए अपने पूरे दमखम के साथ दौड़ने लगता है । वह देह से स्थिर है, यह उसकी मानसिक दौड़ है । सुरंग लम्बी और लम्बी होती जा रही है जैसे वह सुरंग ना होकर आदियोगी शिव की अंतहीन नाभि हो, जिसमें जो चला जाए हज़ारों बरस यों ही घूमता रह जाए बस, वह चाहे विश्व के पालनहार भगवान विष्णु ही क्यों न हों । वह भी अपनी हाँफती – काँपती साँसों के साथ दौड़ता ही जा रहा है अनवरत । क्या वाक़ई कोई रास्ता नहीं मिलेगा, जो उसे इस अंधकार भरी सुरंग से बाहर निकालने में सक्षम हो । रास्ते हो भी सकते है, पर अत्यधिक उलझन में मनुष्य का मस्तिष्क उनके सूत्र खो देता है । अतीत की भित्तियों पर इतना बोझ है कि वर्तमान का बोझ उनसे उठाए नहीं उठता । — उसकी आँखें वार्ड नम्बर छह की सफ़ेद छत पर गड़ी हैं, आख़िर क्या दिखाई दे रहा है उसे छत पर ? उसके लिए वह छत जैसे छत न होकर पंखे के पार लगा कोई प्रोजेक्टर हो गई है । जिस पर बारी – बारी उसके अतीत के कई चित्र उसे दिखाई दे रहे हैं । उसे अपना बचपन दिखाई दे रहा है ।उसकी माँ एक स्कूल में टीचर है, साथ ही वह बहुत दबंग स्त्री है, सशक्त स्त्री का पर्याय या फिर स्वयंसिद्धा । पूरे घर का भार है उसके कंधों पर और उसकी मर्ज़ी के बिना उसके घर में कभी कोई एक पत्ता भी नहीं हिल सकता । वह अपने इकलौते बेटे पर न्योछावर है । उसकी दोनों बड़ी बहनें भी तो माँ के अनुकरण में उसे अपना अनमोल हीरा ही मानती हैं । और पिता ? पिता के द्वारा किया गया बेतहाशा प्यार उसे पूरी तरह से याद है भले उनके चेहरे पर समय की धूल चढ़ गई है । उसका मन तरसता है वही प्यार पाने के लिए । अकेली माँ कितना भी प्यार क्यों न करे पर उसके लिए वह आधा ही है । वे घर में क्यों नहीं हैं, वह जानना तो चाहता है, पर जानने का कोई ज़रिया उसकी पहुँच में नहीं है । फ़िलहाल वह तीन छोटी – बड़ी स्त्रियों वाले घर का नन्हा ही सही पर इकलौता पुरुष है, जिसकी एक आवाज़ पर तीनों पंक्तिबद्ध खड़ी हो जातीं । बहुत ही बहुत खूबसूरत है बचपन का यह संसार, जैसे उसे सदा बिल्कुल ऐसा ही और इतना ही खूबसूरत रहना है । सबको उसकी एक पुकार पर उसकी ज़रूरत पूरी करने के लिए दौड़ पड़ना है हमेशा । आश्वस्ति में उसने आँखें मूँद ली हैं । — आँखें पुनः छत पर टिक गई हैं, अब वह स्कूल जाने लगा था । उसे अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल में भर्ती कराया गया है । नहीं, वह रिक्शा या स्कूल बस में तो स्कूल नहीं ही जा सकता । उसका स्कूल बहनों के स्कूल की ठीक विपरीत दिशा में है, फिर भी बड़ी बहन अपनी साइकिल पर बैठा कर पहले उसे उसके स्कूल छोड़कर आती है फिर घर लौटती है, फिर छोटी बहन को घर से लेती और तब स्कूल जाती है । क्यों न करती बड़ी बहन इतना श्रम उसके लिए, वह घर का इकलौता चिराग़ है । उसके कंधों को बलिष्ठ बन कर वंशवृद्धि का बोझ खुद पर उठा कर चलना है । तीन छोटी – बड़ी स्त्रियों वाले उस घर में सारे विशेषाधिकार उसी के हैं । यह तो वह बचपन में ही जान गया है । बहुत ही सुंदर रहा है वह बचपन से । बहनों का रूप भी उसी के हिस्से आ गया है, दोनों साँवली – सूखी बहनों के उलट उसका गुलाबी रंगत वाला तन, उसकी काली, घनी पलकों वाली आँखें, उसके नरम, गुलाबी होंठ, नरम गात और सारा का सारा नरम वह । किसी रियासत का न सही, पर अपने घर का तो निर्विरोध राजकुमार है । — छत के प्रोजेक्टर पर दृश्य बदल गया है । अब बचपन का वह मास्टर है वहाँ, जिसके नाखून बेहद गंदे हैं, भवें छितरी हुई हैं और उनके नीचे बाहर को निकली हुई बेहद डरावनी एक जोड़ी आँखें हैं । स्कूल का स्टोर रूम है, गंदे नाखूनों वाला मास्टर उसे पहली बार वहाँ लेकर आया है और दरवाज़ा बँद कर लिया है । उसे मास्टर के गंदे नाखूनों वाले हाथ अपने साफ़ – सुथरे, नरम – नरम गात पर बेशर्मी से रेंगते दिखाई दे रहे हैं । सहमा हुआ सा वह अपने नन्हें हाथों से बचाव करने का प्रयास कर रहा है । पर गंदे नाखूनों वाले हाथ मज़बूत हैं । वह तो अभी पुरुष नाम के जीव का नन्हा सा अंकुरण मात्र है, वह अभी विरोध की ठीक – ठीक भाषा भी नहीं जानता । परन्तु मनुष्य जात होने मात्र से वह इतना तो जानता ही है कि यह सब ठीक नहीं है ।
वह गंदे नाखूनों वाले हाथों से अपने अंतःवस्त्रों का शरीर से दूर कर दिया जाना देखकर बुरी तरह काँप रहा है । वह ज़ोर – ज़ोर से चीखना चाहता है परंतु उसकी आवाज़ गंदे नाखूनों वाले मास्टर की छितरी भंवों के पीछे वाली भयानक आँखों में गिरकर मर गई है । अगला सीन और भी भयानकता लिए उभरा है । वह उसका बोझ वहन नहीं कर सकता, उसने अपनी सम्पूर्ण ताक़त अपने कंठ में झोंक दी है और वह ज़ोर से चीख उठा है ।
अस्पताल में तैनात नर्स के लिए ये चीखें सामान्य हैं, वह अपनी सामान्य गति से चलती हुई उसके पास आई है । वह पूछ रही है, “क्या हुआ ?” वह नहीं बता सकता, उसने आँखें बंद कर ली हैं और होंठ भी । थोड़ी देर पहले ही उसकी छोटी बहन उससे मिल कर गई है, वह जनता है कि वह अपने पति के साथ कल ही विदेश चली जाएगी फिर भी वह उससे कोई एक शब्द भी नहीं बोला है ।
नर्स के प्रश्न को अनसुना करके वह खिड़की के पार साँझ और सूरज का मल्ल देख रहा है । सूरज बलिष्ठ है और साँझ उसकी तुलना में कुछ भी नहीं, पर वह बलिष्ठ सूरज को निर्बल साँझ की साँवली झोली में गिरते देख रहा है । साँझ, सूरज को नीचे और नीचे खींचती जा रही है और अंधकार बिखरता जा रहा है ।और वह देख रहा है सूरज की कोर में पिघलता हुआ अपना सहमा हुआ सा चेहरा । वह सूरज की कोर में अपना चेहरा पिघलता देख कर बेचैन हो उठा है । उसने पल भर के लिए आँखें बंद कर ली हैं । आने वाले सीन की भयावहता को लेकर आशंकित हुआ उसका मन, आँखों को देर तक बंद नहीं रहने देता । उसकी दृष्टि फिर सिटी हॉस्पिटल के वार्ड नम्बर छह की सफ़ेद, सपाट छत पर टिक गई है । प्रोजेक्टर बनी छत पर पंखे के पीछे फिर एक सीन उभर रहा है ।
पेरेंट टीचर मीटिंग है, उसकी माँ आज अपने स्कूल से आधे दिन की छुट्टी लेकर उसके स्कूल आई है, वह भी आया है । वह गंदे नाखूनों वाला मास्टर उसका क्लास टीचर भी है । वह उसकी माँ से कह रहा है कि वह पढ़ाई में कमजोर है, उसे ट्यूशन की ज़रूरत पड़ेगी । उसने माँ का पल्लू पकड़ लिया है, बेचैनी में वह उसे दाँतों से चबा रहा है । वह माँ के पीछे छिप रहा है, वह उससे कहना चाहता है कि वह ट्यूशन नहीं पढ़ेगा, पर उसकी माँ गंदे नाखूनों वाले मास्टर की बात मान गई है । माँ को उसकी सहमति – असहमति से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, वह तो बस अपने वंश के संवाहक को सफलता के शीर्ष पर देखना चाहती है । उसकी सफलता का माध्यम बनने के लिए वह खुद को सर्वथा अक्षम मानती है, वह हिंदी स्कूल की टीचर है और वंश का संवाहक अंग्रेज़ी पढ़ेगा । वे दोनों घर आ गए हैं । वह बार – बार कह रहा है, “मम्मी मुझे ट्यूशन नहीं जाना ।” “तू तो मेरा राजा बेटा है, ग़लत बात की ज़िद कभी नहीं करता ।”“मम्मी मुझे नहीं पढ़ना है ट्यूशन ।”“पढ़ेगा नहीं तो बड़ा अफ़सर कैसे बनेगा ।” “मम्मी ।” वह कुछ खीझ गया है और कुछ निराश हुआ है । जीतना तो मम्मी को ही है, उसे बड़ा अफ़सर जो बनना है और वैसे भी मम्मी को जीतने की आदत है । अगली शाम से उसकी बड़ी बहन उसे गंदे नाखूनों वाले मास्टर के घर छोड़ने जाने लगी है । वह रोता है, चीखता है, नहीं पढ़ना है मुझे । ज़ोर – ज़ोर से रो – रोकर कहता है । उसकी माँ पूछती है,“आख़िर क्यों नहीं पढ़ना है ? गँवार ही रहेगा क्या ।“ कभी – कभी वह खीझ कर उसके मुँह पर हल्के हाथ से एक – दो थप्पड़ भी लगा देती है । उसके पास ट्यूशन ना जाने का ठोस कारण तो है और उत्तर भी, पर उसका शब्दकोश इतना छोटा है कि उसमें ठीक – ठीक शब्द नहीं हैं । उसमें कारण बताने की समझ और क्षमता दोनों ही नहीं है । फिर भी वह माँ को बताना चाहता है, कोई कुरेद – कुरेद कर पूछे तो शायद वह बता भी दे । परंतु किसी से कुछ कह देने के जो परिणाम और जिस तरह से मास्टर ने उसे बताए हैं, उन्हें सुनकर तो उसमें बता देने का साहस बिल्कुल भी नहीं है । हर शाम ढलते हुए सूरज के साथ ही अंधकार गहरा जाता है । गंदे नाखूनों वाले मास्टर की भीतरी कोठरी में वह बुरी तरह चीख उठता है । छोटी – बड़ी तीन स्त्रियों वाले उस घर में इकलौता वह, उन तीनों द्वारा की गई तमाम सेवाओं के बावजूद गुमसुम होता जा रहा है । उसका चेहरा कांतिहीन होता जा रहा है । उसकी निःशब्दता के पीछे उस गंदे नाखूनों वाले मास्टर का भी कोई हाथ हो सकता है, घर की छोटी – बड़ी तीनों स्त्रियों में से किसी एक की भी सोच के दायरे का विस्तार वहाँ तक नहीं पहुँचता । वे कल्पना भी नहीं कर सकतीं कि ब्रह्म माने जाने वाले गुरु की डरावनी आँखों का भय उस नरम – नरम काया वाले मासूम की आत्मा तक समा गया है । किस बात से इतना डरता है वह कि अपनी माँ या बहन तक को नहीं बता सकता । अचानक भक्क से बिजली के बल्ब के प्रकाश से कमरा जगमगा उठा है । जैसे एक बल्ब ने पल में साँझ और अंधकार दोनों का आखेट कर डाला है । छत पर लगा प्रोजेक्टर भी अचानक से ग़ायब हो गया है । केरल की नर्स ने उसका माथा छुआ है और अपनी माँस रहित उँगलियाँ उसके गालों पर फिराते हुए उसके सुर्ख़ पर मुर्झाए होठों पर रख दी हैं । उसकी इस सबमें कोई दिलचस्पी नहीं है । इसीलिए वह वैसे ही निर्भाव लेटा है जैसे पहले लेटा था ।
उसकी आँखें फिर छत पर जा टिकी हैं । प्रोजेक्टर बनी छत पर कुछ चित्र पुनः उभर आए हैं, जिनमें एक चित्र बहुत सुखद है । गंदे नाखूनों वाला मास्टर स्थानांतरित होकर जा रहा है । अहा ! आज वह मन ही मन बहुत खुश है कि वह मास्टर, मास्टर का भय और उसके सान्निध्य से उपजी पीड़ा का अंत इस एक दिन में ही हो गया है । आज वह अपने घर में बहनों के साथ, घर के बाहर अपने साथियों के साथ उन्मुक्त होकर बिना किसी डर के खेल रहा है, उसका बचपन पुनर्जीवित हो गया है । उसकी उदासी से परेशान माँ भी उसके चेहरे पर ख़ुशी देखकर आज खुश है । वह देख रहा है कितनी मूर्ख है माँ अब भी नहीं समझी कि वह उदास क्यों रहता था । कितनी ही बार माँ ने उसे ज़बर्दस्ती ट्यूशन पढ़ने भी भेजा था । कई बार तो चाँटा भी लगाया था और फिर उसे दुलार कर रोई भी थी । उसे याद आ रहा है मास्टर के दिए भय से वह स्कूल जाने से भी कतराने लगा था । उसने खाना खाना भी लगभग छोड़ ही दिया था । तभी तो उसकी माँ उसे लेकर डॉक्टर के पास भागी थी । क्या जाने इस समय उसे वो पापा क्यों याद आए जिनका चेहरा भी उसे बमुश्किल ही याद था । वह खुद से ही एक प्रश्न कर रहा है, अगर पापा होते तो वे समझ जाते क्या, मुझे उस गंदे नाखूनों वाले मास्टर से दूर कर लेते क्या ? उस दिन उसे माँ से पूछा गया अपना मासूम सवाल भी सुनाई दिया है,“माँ, पापा हमारे साथ क्यों नहीं रहते ?”“अभी तुम बहुत छोटे हो समझोगे नहीं, पहले बड़े हो जाओ तब बताऊँगी ।” माँ ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फिराया है और अपनी गोदी में बैठा लिया है । माँ का यह उत्तर उसकी जिज्ञासा को समाधान नहीं दे सका है । उसने अपनी बहन से भी यह प्रश्न पूछा है । बहन कुछ बता सकने में असमर्थ है वह बड़ी बहन से पूछने की सलाह दे रही है । उसने अपना प्रश्न स्थगित कर दिया है । और बाल मन की इस जिज्ञासा पर किन्हीं दूसरी घटनाओं की परत जम गई है । पढ़ाई – लिखाई के साथ – साथ हँसी – ख़ुशी और मौज – मस्ती भी उसके जीवन में लौट आए हैं । वार्ड नम्बर छह की प्रोजेक्टर बनी सफ़ेद, सपाट छत ख़ुशनुमा हो उठी है । बीत गए भयावह समय का साया उसके मन पर शेष है तो परंतु समय की बरसात ने पेड़ – पत्तों पर जमी धूल – मिट्टी की तरह उसे धोने का पूरा प्रयास किया है, हालाँकि ऐसा घटित हुआ पूरा – पूरा धुलता है नहीं । फिर भी आज उसे अच्छी नींद आई है । —अब प्रोजेक्टर बनी छत पर उसकी युवा तस्वीर है, आँखें चौंधिया देने वाला रूप है उसका । अब आशाओं का आकाश अपने विस्तृत रूप में उसके सामने है । उसने सी ए क्लीयर कर लिया है । सफलता का रंग उसकी आँखों में अपनी पूरी चमक के साथ झिलमिला रहा है । जीवन के हर कोंण से उसे सुख की आहट आती है । अब उसका जीवन नीरस नहीं है । जब से उसकी दोस्ती अवंतिका से हुई है तब से तो इंद्रधनुष के सारे रंग उसके जीवन में छिटक आए हैं । सफलता प्राप्ति के साथ किया गया प्रेम भी पूरी तरह स्वीकार्य और मान्य है । अवंतिका स्थानीय विधायक की बेटी है, उन दोनों की घनिष्ठता बाँस की बढ़वार सी दिन पर दिन बढ़ रही है । वे आधुनिक युवा, तथाकथित कुंठाओं में नहीं जकड़े हैं । वहाँ दो युवा मन के साथ बेशक दो युवा शरीर भी अपनी पूरी ताब,अपने पूर्ण अस्तित्व के साथ उपस्थित हैं । नैतिकता और चारित्रिक शुचिता के नियम उनके आधुनिकता से लबालब दिमागों के बाशिंदे क़तई नहीं हैं । उन्मुक्तता और स्वच्छंदता क्षणिक उत्साह और प्रसन्नता देने के अचूक अस्त्र हैं और उनकी पीढ़ी का सबसे महत्वपूर्ण विधान भी । वह वार्ड नम्बर छह के बैड पर लेटे – लेटे उसकी आँखें फिर से प्रोजेक्टर बनी छत पर टिक गई हैं । छत चारों ओर विपुल विस्तार पा गई है और हर ओर का विस्तार सुवासित फूलों से भर गया है । मधुर संगीत की तरंगें उसकी इंच – इंच रिक्ति में इस तरह भर गई हैं जैसे किसी ख़ाली कक्ष में हवा । यह उसके अवंतिका से प्रेम का सुफल है । प्रेम उन्मुक्त होने का पर्याय है जिसे नैतिकता की टूटी – उधड़ी, पुरानी और सड़ी – गली रस्सियों से कभी बाँधा नहीं जा सकता । इस प्रेम का अगला पड़ाव वे निश्चय ही जानते हैं । वैसे तो वर्तमान स्थिति और अंतिम पड़ाव के मध्य उन दोनों के परिवारों की सामाजिक, आर्थिक और जातीय असमानता दुर्गम चट्टानें हैं । परंतु उनकी युवा दृष्टि आने वाले कल की मुश्किलों पर क्षण भर ठहर कर बूमरैंग की तरह वापस वर्तमान के प्रेम और उसकी उन्मुक्तता की ओर लौट आती है । उसने माँ को बता दिया है । परंतु माँ जानती है यह रिश्ता निभाया जाना तो दूर, बनाया जाना ही संभव नहीं है । परंतु घर के उस इकलौते चिराग को अपनी बात मनवा लेने की लत है । इस रिश्ते की मान्यता को लेकर वह अडिग है । परंतु अवंतिका के पिता ने गंगू तेली और राजा भोज के इस रिश्ते को मान्यता देने से इंकार कर दिया है । पर वे दोनों ही प्रेमी परम्पराओं और आदर्शों को अपने जूते तले रौंदकर चलने वाले साहसी युवा हैं । अपनी वयस्क आयु के कारण वे अपने मन की करने के लिए खुद को स्वतंत्र मानते हैं । वे क़ानून के आगे – आगे मज़बूत लाठी बनकर चलने वाले बल के क़ानून को नहीं पहचानते । वे नहीं जानते कि बली और निर्बल का एक ही रिश्ता है और वह है हर क़ानून को हाशिए पर धकेल कर, बली द्वारा बलहीन का दमन । दमन की तलवारें चमचमा उठी हैं । चुपचाप शहर को अलविदा कह गए उन दोनों को अवंतिका के नेता, जिसके हाथ क़ानून से भी लम्बे होते हैं, पिता द्वारा ढूँढकर लौटा लिया गया है । जैसे आज़ादी पा लेने की लालसा लेकर पिंजरे से उड़ जाने वाले पंछी को सय्याद ने पकड़कर पुनः पिंजरे में डाल कर उस पर मज़बूत ताला जड़ दिया है । अवंतिका को अपना घर मिला है और उसे जेल । उफ़ ! इस दृश्य से निकली पीड़ा तो उसे मार ही डालेगी । उसने आँखें बँद कर ली हैं ।— वार्ड नम्बर छह के बिस्तर पर लेटा – लेटा वह समय की गिनती क्यों करे ? दिनों का हिसाब भी क्यों रखे ? कोई एक शब्द भी क्यों बोले ! कमरे में सन्नाटा है, हो न हो यह रात का समय है । सभी दूसरे लोग सो रहे हैं । दूर गैलरी में बैठी एक दो नर्सों की आवाज़ें आ रही हैं । वे तेलुगु में बातें कर रही हैं । उसके पल्ले एक शब्द भी नहीं पड़ रहा है । वह समझने का प्रयास भी क्यों करे ? उसे अपनी दक्षिण भारतीय क्लासमेट ‘झाँसी’ याद आ गई है । जब झाँसी नई – नई आई थी तो उससे अक्सर कोई न कोई उसके नाम की स्पैलिंग पूछता रहता और वह अपना मखौल उड़ाए जाने से बेख़बर बताती, “जे यच ये यन यस याई “ सारे के सारे स्टूडेंट्स हँस देते, और वह साँवली मझोले क़द की सलौनी लड़की, भोले बच्चे सी खिसिया जाती । बाद में वह समझ गई और उसने अपने नाम की स्पैलिंग बताना बँद कर दिया । झाँसी की याद से वह बरबस ही मुस्कुरा दिया है, यह न जाने कितने अरसे बाद हुआ है । झाँसी के साथ – साथ याद आ गई है अवंतिका भी । छत पर पंखे के पीछे का प्रोजेक्टर भक्क से प्रकाशित हो गया है । हवा का हल्का सा झोंका आया है । हवा भी जानती है अवंतिका के स्कार्फ़ को किस दिशा में उड़ाना है । उसने हल्की सी शरारत की है और अवंतिका का आसमानी स्कार्फ़ उसके चेहरे को सहला गया है । जैसे स्कार्फ़ नहीं अवंतिका की सुंदर मुलायम उँगलियों ने उसे प्यार से छू लिया है । उसका पूरा शरीर अवंतिका के स्कार्फ़ मात्र के स्पर्श से पुलकित हो गया है । एक विचित्र सा नशा उसकी आँखों में घुल गया है, आँखें खुद में गुलाबी रंगत समेट लाई हैं । वह खुद का चेहरा देखकर स्वयंमुग्धा की तरह मुग्ध हुआ जा रहा है । यही अवंतिका से उसकी बिल्कुल पहली मुलाक़ात है । अवंतिका ने झट से अपना स्कार्फ़ खींच लिया है । अवंतिका कितना सकुचाई यह तो वह अनुमान नहीं लगा सका, परंतु वह स्वयं तो जैसे भीतर तक पिघल गया है । चित्र दर चित्र रिश्ता बदलता जा रहा है । वे दोनों बहुत अच्छे मित्र बन गए हैं । युवा स्त्री – पुरुष की मैत्री है, ज़रूरी नहीं कि सिर्फ़ मन तक ही सीमित रह जाए, उन दोनों की देहें भी दोस्ती कर बैठी हैं । प्रोजेक्टर बनी छत पर अनगिनत चाँद – सूरज खिल उठे हैं । वह सफलता और प्रेम के खुमार, दोनों की सीढ़ियों पर निर्बाध चढ़ता चला जा रहा है । उन सीढ़ियों के बीच माँ का चेहरा न जाने कहाँ से उभर आया है । वह माँ के चेहरे को ध्यान से देख रहा है । एक खुरदरापन है उसके चेहरे पर, चेहरे पर ही नहीं उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर । सिंगल पेरेंटिंग और अपनी मध्यम वर्गीय सोच के शिकंजे में कसी उसकी वह स्वेच्छाचारी या कहें निरंकुश माँ, अपने फ़ैसलों में किसी को शामिल करना पसंद नहीं करती । दोनों बेटियों को जीवनसाथी तलाशने की कोई किसी तरह की छूट उसने नहीं दी है । वह मानती है कि उसके परिवार के लिए किए जाने वाले सबसे अच्छे फ़ैसले सिर्फ़ उसी के द्वारा हो सकते हैं । वह अपनी सीमाएँ भी ज़रूर जानती है और जानती है आधुनिक लड़कियों और नए समाज का चलन भी । वह बेटे को समझा रही है कि,
“अवंतिका एक रसूखदार सत्ताधारी नेता की बेटी है । हमारा और उसका कोई मेल नहीं । तुम्हें बस इतने रास्ते से ही लौट आना होगा बेटे ।” उसे आज माँ के भीतर से मध्यमवर्गीय पिछड़ेपन की अजीब सी बुरी सी बू आई है ।उसे लगा है कि अकेले रहते – रहते वह एक नीरस स्त्री में परिवर्तित होकर रह गई है । किसी से प्रेम के क्या अर्थ हैं वह समझने में असमर्थ है । “कैसी बात करती हो ! अब यहाँ से लौट आने का प्रश्न ही कहाँ है मम्मी ?” उसने माँ की नीरसता की सूनी खूँटी पर प्रश्न से भरा अपना उत्तर टाँग दिया है । माँ का समझाया जाना व्यर्थ है । उसका सम्बंध सिर्फ़ हरियाली से है, माँ की दृष्टि में वह अकाल का प्रकोप नहीं जानता, जैसे उसकी दृष्टि में माँ प्रेम का अर्थ नहीं जानती । वह प्रेम की पगडंडी पर सरपट दौड़ जाना चाहता है । दसों दिशाओं से मंद – मंद गूँजता प्रेमिल संगीत और परावर्तित होता प्रेम का प्रकाश उसकी राह को निरापद सिद्ध कर रहा है । वह नहीं जानता कि जीवन इतना भी सरल नहीं है । अकस्मात् ही छत अंधकार से भर गई है । वह अवंतिका – अवंतिका चिल्ला रहा है पर अब वहाँ अवंतिका नहीं है । अवंतिका को देख भर लेने की चाह ने उसे आँखें खोलने पर विवश कर दिया है । आँखें खुलीं तो दृश्य बदल गया है जैसे विक्रम के बोलते ही बेताल उड़ गया । — वह कोर्ट के कटघरे में खड़ा है । सामने अवंतिका है, उसके साथ उसके पिता और उनके साथ उनका लाव – लश्कर है । अवंतिका के दाहिने हाथ की तर्जनी ठीक उसके सामने है । अब वह अवंतिका के दाहिने हाथ की तर्जनी मात्र नहीं है । वह सोचा – समझा एक पुख़्ता अभियोग है । वह विश्वास नहीं कर सकता कि यह अवंतिका की वही नरम – मुलायम तर्जनी है जो अनगिनत बार उसे चुप करने के लिए उसके होंठों पर गौरैया सी आकर बैठ गई है । वही तर्जनी जो सैंबल की रुई के फाहे सी नरम है और गुलाब की पंखुड़ी सी गुलाबी है, जिसके स्पर्श में जादू भरा है, एक नशा भरा है । जिसे सैकड़ों बार उसने प्यार से चूमा है और हर बार उस पर उसका नशा तारी हुआ है । पर अब उसे विश्वास करना ही होगा कि अब वह तर्जनी अभियोग के सिवा कुछ नहीं । अवंतिका की अभियोग बनी तर्जनी के अलावा, कुछ असहनीय शब्द भी हैं, जो अभी – अभी उसने कोर्ट में उछाले हैं,“जी हाँ, यही है वह गुंडा जिसने मेरा अपहरण किया और मुझ पर बलात्कार का प्रयास किया । यही है जो मुझे लम्बे समय से परेशान करता रहा है जज साहब । इसे कड़ी से कड़ी सजा दीजिए ।” बहस पर बहस चल रही है दृश्य दर दृश्य बदल रहे हैं । उसके भीतर से जैसे कोई प्राणों को खींचे ले जा रहा है । जैसे उसके पाँवों की सब ताक़त चुक गई है । अब वह खड़ा भी नहीं रह सकता । वह हैरत में है, विश्वास तो उसे यह भी नहीं हो रहा कि यह वही अवंतिका है जो उसकी साँसों से साँसें लेती थी ? सम्भवतः यह इस वर्चुअल युग की कोई वर्चुअल अवंतिका है । अवंतिका के पीछे खड़े उसके पिता और उनके लाव-लश्कर की तरफ़ से एक ज़ोर की अदृश्य आँधी आई है, जो सिर्फ़ आँखों से आँखों तक पहुँची है । आँधी बस जज साहब की क़लम हिलाकर चली गई है । जज साहब की क़लम मुलज़िम के लिए सजा लिख रही है । वो सज़ा, जो एक अपहरणकर्ता और बलात्कार का प्रयास करने वाले अपराधी के लिए होती है । वो सज़ा जो किसी शरीफ़ मासूम लड़की को मौलैस्ट करने की होती है । वो सजा, जो किसी शक्तिशाली नेता की बेटी को एक निर्बल के द्वारा प्रेम किए जाने का दुस्साहस करने की होती है । उसे अपने सामने खड़ी अपनी माँ भी दिखाई दे रही है, उसकी माँ बेहद परेशान है । ना जाने क्या हुआ कि आज उसे माँ के भीतर से मध्यमवर्गीय नीरसता की बू नहीं आ रही है । —बस वह सिटी अस्पताल के वार्ड नम्बर छह की सफ़ेद सपाट प्रोजेक्टर बनी छत पर एकटक देखे जा रहा है । एक कष्टकारी दृश्य फिर उभर रहा है । यह दृश्य तन पर भी घाव दे रहा है । उसकी आँखों पर पट्टी है, उसे एक सुनसान इलाक़े में ले ज़ाया गया है और ज़मीन पर फेंक दिया गया है । वह अकेला और निरीह है, उसे कुछ गुंडे बुरी तरह पीट रहे हैं । वह कराह उठा है । हर अख़वार में इस अपहरण और बलात्कार कांड की रोज़ आने वाली खबर, अवंतिका को मासूम साबित कर गई है और उसे नेता की बेटी पर हाथ डालने वाला दुस्साहसी अपहरणकर्ता, बलात्कारी । उसके शरीर के घावों का कहीं कोई ज़िक्र भी नहीं है । वह अवाक है, अब उसे कोई शब्द बोलने की इजाज़त नहीं है । सच तो यह है कि अब उसके पास कोई शब्द हैं ही नहीं, जिन्हें बोल कर वह खुद का निर्दोष होना तो दूर, खुद का होना ही साबित कर पाए… — “मेरे बच्चे पर हुए अत्याचार को कोई नहीं देख रहा क्योंकि ये पुरुष है । सबकी सारी सहानुभूति उस झूँठी, मक्कार और कमीनी लड़की को मिल गई, जिसने पहले इसके साथ गुलछर्रे उड़ाए फिर ऐसा घिनौना इल्ज़ाम लगा कर चलती बनी । मेरे कुल का इकलौता चिराग़, देख किस तरह तिल – तिल बुझता जा रहा है ।” उसकी माँ उसकी बड़ी बहन से बात करती हुई रो रही है ।
“मम्मी, यहाँ रोने – गाने से क्या होगा ।”
“मेरा बच्चा ज़िंदगी का रास्ता ही भूल गया । क्या हाल हो गया है इसका । जानवरों तक के पक्ष में क़ानून हैं परंतु समाज की “आधी आबादी” (पुरुष) के पक्ष में आज कोई क़ानून नहीं खड़ा है । लड़की को अगर कोई बुरी नज़र से देख भी ले, तो उसकी भी सजा है और इस निर्दोष पुरुष के साथ इतना कुछ हो गया, कोई कुछ कहने – सुनने वाला नहीं । सब एक तरफ़ा है, अन्याय है ये तो ।” उसकी माँ बेबस और निराश हुई बड़ी बेटी से कहकर अपनी खीझ उतार रही है ।
“कोई संस्था, कोई पुरुष या कोई पुरुष विमर्श है इस धरती पर जो मेरे बच्चे के साथ खड़ा हो सके ?”
“अब खुद के बेटे पर पड़ी है न, अब तो तुम्हें सारे जहान के विमर्श याद आएंगे ही । एक पुरुष है मम्मी, जो आज भी तुम्हारे बच्चे के साथ खड़ा रह सकेगा । भले ही तुम उसके साथ खड़ी नहीं रही थीं, उसके बुरे समय में ।“
“पता है मुझे, कितना ज़हर भरा है तेरे भीतर मेरे लिए ! किसी को विष बुझे तीर सीने पर खाने का शौक़ हो तो तुझसे बात कर ले । सब कुछ घुमा – फिराकर कहने की लत है तुझे, साफ़ – साफ़ क्यों नहीं कहती !”
“पापा हैं वो पुरुष, वे आज भी खड़े हो जाएँगे इसके साथ, हमारे साथ, तुम्हारे साथ मम्मी ।”
“तेरा पापा हुँह । वो किसी लायक़ होता, तो मैं अकेली जूझती रहती ज़िंदगी भर । अब जाकर उस निकम्मे, ग़बन बाज के हाथ जोड़ूँ ?”
“जैसे ये हमारा सबसे बुरा समय है ना मम्मी, वैसे ही वो पापा का सबसे बुरा समय था । मैं छोटी तो थी पर याद मुझे सब है । उतना तब नहीं समझती थी पर अब समझती हूँ । पापा पर उनके ऑफ़िस में ग़बन का इल्ज़ाम लगाया गया था । उनकी नौकरी छूट गई, उसके बाद जिस तरह तुम पापा को हर वक्त बेइज़्ज़त करती थीं वो मुझे अच्छी तरह याद है ।”“तू मेरी बेटी है या दुश्मन ?”
“हूँ तो ख़ैर बेटी ही पर, तुम खुद सोचो मम्मी, अगर पापा ने ग़बन किया होता तो वो रक़म घर में ही तो आई होती, तुमने इतना भी दिमाग़ नहीं चलाया ! कोर्ट तक ने उन्हें निर्दोष करार दे दिया था, पर तुमने उनकी पत्नी होते हुए भी उन पर ज़रा सा विश्वास नहीं किया था और उन पर तंज पर तंज कसती रही थीं ।” “कोर्ट ने क्या फ़्री में मान लिया था निर्दोष, कोर्ट – कचहरी में भी मेरी ही गाढ़ी कमाई खर्च हुई थी ।”
“हाँ मम्मी ये तुम्हारी कमाई का घमंड ही था, जिसकी वजह से उन्हें उस दिन घर छोड़कर जाना पड़ा ।वे ग़ैरों का लगाया लाँछन फिर भी धैर्यपूर्वक सह गए थे पर तुम्हारे अनगिनत लाँछन सह पाना उनकी क्षमता के बाहर हो गया था ।”
“तू अपनी राय अपने पास रख ।”
“हाँ यही, ठीक यही तुम पापा को कहती थीं उन दिनों । उनकी दी किसी भी राय को तुम यह कहकर ख़ारिज कर देतीं कि किसी निठल्ले, निकम्मे की राय की ज़रूरत नहीं है मुझे । खुद तो ऑफ़िस में ग़बन करो, बर्खास्त हो जाओ और घर बैठ कर मज़े से बीवी की कमाई खाओ और उल्टे उसी पर अपनी राय थोपो ।यह कहते हुए मैंने कितनी ही बार सुना था तुम्हें । तुम्हारा एक ही तकिया कलाम हो गया था पापा के लिए, “तुम चुप रहो, तुम्हारी राय की ज़रूरत नहीं मुझे ।” “राय देने का अधिकार भी उसे ही होता है जो इस लायक़ हो, समझी ।”
“लायक़ तो ख़ैर वे थे भी, पर मम्मी तुमने पापा को एक ऐसे नौकर का दर्जा दे दिया था, जो घर के काम करने के लिए था बस । जिसे घर से पैसे गिन कर दिए जाएँ और वो सामान लाकर एक – एक पैसे का हिसाब दे, एक पैसे का हिसाब भी इधर – उधर हुआ तो नौकर की शामत ।”
“तो घर का काम और कौन करता, मेरे क्या दस हाथ – पैर थे ।”
“सिर्फ़ काम की बात नहीं थी मम्मी, मुझे याद है, उनकी चप्पल टूट गई थी । उस दिन वे अपने लिए एक जोड़ी चप्पल क्या ले आए कि तुमने इस कदर खरी – खोटी सुनाई कि वे बर्दाश्त नहीं कर सके । मुझसे कह कर गए थे कि अब और सहन नहीं होता मिनी, मैं जा रहा हूँ । कभी मेरी ज़रूरत हो तो याद कर लेना बेटी ।”“वो आदमी ज़िम्मेदारियों से भाग कर गया, गया तो मुड़कर भी नहीं देखा कि मैंने किस मुसीबत से तीनों बच्चे पाले हैं ।” उसकी माँ की आवाज़ तीखी हो आई है ।
“यह भी तुमने ही कहा था मम्मी कि मेरे बच्चे किसी की कमाई के मोहताज नहीं ।”“हाँ तो मोहताजी उठाई क्या तुममें से किसी ने, मैंने अकेले सब किया या नहीं किया ?”
“हाँ मम्मी तब मैं भी तुम्हें बहुत बहादुर औरत मानने लगी थी, तुम्हारी सहेलियों में भी तुम्हारी खूब वाह – वाही थी । बाद में जब समझ आई तो तुम मेरे लिए पति के बुरे समय में उसे घर से भगा देने वाली निर्दयी औरत में तब्दील हो गईं। फिर यह भी समझ में आया, तुम्हें खुद को बहादुर और शक्तिशाली होने के लिए पापा को कमजोर कर देना कतई ज़रूरी नहीं था ।”
यह सब वह सिटी हॉस्पिटल की प्रोजेक्टर बनी सफ़ेद – सपाट छत पर नहीं देख रहा है । यह तो वह साक्षात अपनी माँ और बहन की झड़प सुन रहा है । वो कब से अपने पिता से मिलने के लिए तड़प रहा है । उसे बहन की बातें बहुत प्रिय लग रही हैं, उसने बहन का हाथ पकड़ लिया है और वह पापा – पापा पुकार कर बुरी तरह रो रहा है । महीनों बाद उसके मुँह से कोई शब्द निकला है । खुद के लिए बेहद कड़वी बातें सुनकर भी उसकी माँ खुश है।

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