पुरवाई के संपादकीय ‘बिन पानी सब सून’ पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं

डॉक्टर सच्चिदानंद
और पानी से धरती को सूना करने में आम आदमी से लेकर सरकार तक की संकल्पहीनता और अदूरदर्शिता का पूरा योगदान है।
“यथा राजा तथा प्रजा” होती है! हर सुधार और परिवर्तन ऊपर के स्तर के लोगों से शुरु होते हैं। जनता उनके आचरण का अनुवर्तन और उनके आदेश का अनुपालन करती है
भूगर्भ का जलस्तर बढ़ाये रखने के लिए तालाबों का कोई विकल्प नहीं। बरसात के लिए जंगलों का कोई अन्य विकल्प हो नही सकता । लेकिन इन दोनो के विनाश की गति देखकर किसी भी संवेदन शील बुद्धिमान प्राणी को सरकार की लापरवाही और जनता की मूर्खता दोनो पर झल्लाहट हो ही जायेगी।
नदियों का गर्भ छिछला होता जा रहा है। इतने सालों की घोषणाओं के बाद भी बाढ़ मैनेजमेन्ट केवल खयाली पुलाव रह गया। वन विभाग जितना तेज अपना विज्ञापन करता नजर आता है। उतने तेजी से वन का विनाश हो रहा है।
वन्य जीव लुप्त होते जारहे। फिर भी सरकारों कॊ बन विभाग की हर रिपोर्ट पाजिटिव और उत्साह वर्धक ही मिलती होगी। रिपोर्टों में बताया जाने वाला यही झूठ स्कूल से लेकर वन विकास, ग्राम विकास की हर समस्याओं की जड़ है।
डॉक्टर पद्मा शर्मा
भावी समस्या से आगाह कराता बहुत शानदार संपादकीय। पानी के सभी स्त्रोतों पर दृष्टि डालते हुए भारत के कई शहरों की भावी स्थिति से अवगत कराया है आपने।
श्रीहरि वानी
तेजेन्द्र जी, सुन्दर.. समयानुकूल.. मानवीय.. सामाजिक स्तर पर अत्यंत महत्वपूर्ण जीवन के सरोकार से जुड़े विचार.. गहन चिंतन-परक संपादकीय हेतु सादर आभार.. धन्यवाद..
कुसुम पालीवाल
तेजेन्द्र जी आपका लिखा संपादकीय पढ़ा –
बिन पनी सब सून बहुत सही तथ्यों को आपने सामने रखा है। हमारा तो यहाँ तक कहना है कि पीने को पानी और नहाने को, उतना ही गिलास या बाल्टी में लें जितना आप इस्तेमाल कर सकें… लोग शावर के नीचे खड़े हो जाते हैं तो घंटों खड़े रहते हैं , ये पानी की बर्बादी नहीं तो और क्या है ?
अजित राय
भाई साहब, आपने पानी वाले मसले पर बहुत उम्दा लिखा है। आम तौर पर इस विषय पर गंभीरता से बात नहीं की जाती। हमारे देखते ही देखते बोतल बंद पानी का कारोबार केवल भारत में ही हजारों लाखों करोड़ का हो गया। पहली बार हमने बिसलेरी की बोतल देखी थी। आज भी लोग मिनिरल वाटर की बोतल को बिसलेरी कहते हैं। बधाई।
उषा साहू, मुंबई
रहीम कवि का यह अति प्रचलित दोहा,
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सुन, पानी गए न उबरे, मोती, मानस चून ।
इस दोहे में पानी के 2-3 मतलब हैं मगर हम जिस पानी की बात कर रहे हैं, उसका मतलब “जल” से है । ये तो सभी जानते हैं की दिनों दिन पानी की मात्रा कम होती जा रही है, फिर हम पानी के अपव्यय को नहीं रोक रहे हैं । बाल्टी भर गई है, फिर भी नल चालू है, बाइयाँ पूरा नल खोलकर बर्तन धो रही हैं । हालाकि ये छोटी-छोटी बातें हैं, लेकिन बूंद-बूंद से ही घट भरता है । अब भी हम सावधान नहीं हो रहे हैं ।
ऐसे में, मुनाफाखोर भी क्यों पीछे रहेंगे। मुंबई के के उपनगर वसई में, कुछ साल पहले आलम ये था कि वहाँ के मूल निवासी, जिनके घर में कुए थे, वे टेंकर में पानी भर-भर, सोसायटियों को बेचते थे और मनमाना पैसा वसूल करते थे । उनके लिए तो वे तेल के कुए थे । अभी हाल ही में यहाँ की म्यूनिस्पल कार्पोरेशन ने पानी की पूर्ति करना आरंभ किया, तब कहीं जाकर राहत मिली ।
जैसा कि संपादक जी न कहा, वॉटर हारवेस्टिंग एक समाधान है । इसमें बरसात का पानी संग्रहित करके उपयोग में लाया जा सकता है । बरसात के पानी की शुद्धता पर तो शक किया ही नहीं जा सकता है । इस पर अमल किया जा सकता है ।
समस्या की गंभीरता को समझते हुये, हमारे राजनेताओं को इस बात पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। संपादक जी ने तो अलार्म कर दिया है । अनुपालन करना और सावधान होना हमारा कर्तव्य है। संपादक जी, ज्वलंत समस्या को पाठकों के सामने प्रस्तुत करने के लिए साधुवाद । बहुत ही श्रम के साथ लिखा गया स्तरीय संपादकीय।
किरण खन्ना
हर बार की तरह आंखें खोलने वाला, चौंकाने वाला और सोचने के लिए विवश करने वाला संपादकीय संपादक महोदय श्री तेजेन्द्र शर्मा जी का । बहुत स्पष्ट सरल और सम्प्रेषणीय भाषा में लिखा आपने कि जल होगा तो कल होगा…अब स्थिति विकट से विकटतर और विकटतम हो रही है … समस्या हमने पैदा की है तो समाधान भी हमें ही खोजना होगा।
भारत में मानसून की अस्थिरता भी जल संकट का बड़ा कारण है। हाल के वर्षों में एल-नीनो के प्रभाव के कारण वर्षा कम हुई, जिसकी वज़ह से जल संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई। भारत की कृषि पारिस्थितिकी ऐसी फसलों के अनुकूल है, जिनके उत्पादन में अधिक जल की आवश्यकता होती है, जैसे- चावल, गेहूँ, गन्ना, जूट और कपास इत्यादि। इन फसलों वाले कृषि क्षेत्रों में जल संकट की समस्या विशेष रूप से विद्यमान है। हरियाणा और पंजाब में कृषि गहनता से ही जल संकट की स्थिति उत्पन्न हुई है।
तेजेन्द्र जी के संपादकीय पर आशीष जी मुक्ति जी यास्मीन जी तब्बसुम जी शन्नो जी शैली जी की टिप्पणियां सचेती का संकेत तो देती है किन्तु जल संरक्षण हेतु योजना कार्यान्वयन भी होना अनिवार्य है ।

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