मनुष्य के अंदर कई बार परोपकारी कीड़ा तब फुदक कर बाहर आता है जब वो खुद किसी भयानक परिस्थिति में निर्जीव असहाय से साक्षात्कार करता है। और कुछ लोग, नारद मुनि की तरह नारायण नारायण करते सभी परिस्थितियों में परोपकार करने पर तुले रहते हैं। कुछ श्रमजीवी ऐसे भी कम नहीं, जो परोपकार और स्वयंसेवा को स्वप्रसिद्धि का कारक मानते हैं। इसलिए वे ऐसे परोपकारों से कोसों दूर रहते।
लेकिन स्वयंसेवक तो स्वयंसेवक ठहरा। उसे कहाँ इस तरह सोचकर श्रम-जीवी कहलाना आता है। उसे तो बस दूसरों की सेवा से मतलब। फिर चाहे कुँए में कूदकर डूबत को बचाना पड़े, बाढ़ में थमती साँसों को जगाना पड़े या किसी माहमारी के सामने ढाल बनकर रक्षक की भाँति तनना पड़े।
वहीं, कुछ श्रमजीवी ऐसे हैं, जिनका सारा श्रम इसी में लग जाता है कि खुद की सेवा का मौक़ा किस-किस को दिया जा सकता है। ‘सेवा लेकर मेवा लेने का अन्दाज़ ही निराला है’। मतलब स्वसेवा का मौका देने से नहीं चूकते। संकट की ऐसी घड़ी में जब किसी वैश्विक महामारी द्वारा विश्वयुद्ध-सा उद्घोष हुआ हो, ऐसे लोग भी हमारे बीच में उपस्थिति दर्ज कराते चलते हैं।
इन सारे प्रकार के जीवियों के बीच एक हैं हमारे ‘बाला’। ना तो ‘बाला ओ बाला’ गाने पर ठुमकने वाले बाला हैं। और ना ही ‘बाला फ़िल्म’ के ‘बाल्ड’ वाले। घर में सबसे छोटे हैं, तो बाला कहे जाते हैं। एक कहावत के हिसाब से ‘छोटा सो खोटा’ ज़रूर होता है। लेकिन बाला ठहरा बत्तीस कैरट वाला पूरा का पूरा स्वयंसेवक। ना, ना वो वाला नहीं,,, वॉलंटियर वाला स्वयंसेवक। वैसे, जिसको जौन सा वाला मानना है, मान सकता है। आख़िर दोनों ही कभी भी, किसी भी समय परोपकार को तैयार रहते हैं। जैसे परोपकार का भूत चढ़ा हो, सर पे। भूत इतना भयंकर कि उतारने वाला भी सेकंड के अंदर नौ दो ग्यारह हो जाए।
बाला की सोसायटी में इन दिनों कर्फ्यू लगा है। दुनिया जब लॉकडाउन हो तो, उसकी सोसायटी भी किसी अलग खेत की मूली तो है नहीं। इस भयावह दौर में, बाला और उसके जैसे कई युवा, उम्मीद का हाथ बढ़ाते हैं। हाथ बढ़ाना और हाथ थामना ये दो दृश्य, हमारे जैसे पुरातन देश में, विकट समय में ज़रूर देखने मिलते हैं। बाक़ी समय चाहे ये हाथ बाल नोचने, सर पर लट्ठ मरने, चोरी करने, ख़ून करने, बलात्कार करने आदि आदि स्वैछिक कामों के काम आते हों। पर इस समय तो ये एक और एक ग्यारह का काम कर रहे हैं।
लोग जहां हैरान परेशान हो, धैर्य की गोलियाँ खाने को मजबूर हैं। वहीं बाला अपनी टीम के साथ दूसरों की सेवा के लिए सज्ज है। उसके दोस्तों में क्या लडकियां, क्या लडके, सब के सब कर्मठ।
देखने को तो यों भी मिल रहा है कि मट्ठ बुद्धि वाले भी, समय की माँग को देखते हुए कर्मठ बने हुए हैं। फ़ोटो खिंचा खिंचाकर, मीडिया पर चस्पा करके, परोपकार से दहशतगर्दी का माहौल फैला रहे हैं। बंद कमरों में बैठे लोग इस दहशतगर्दी से घायल हुए जा रहे हैं। वे कंफ्यूजिया रहे हैं कि ऐसे  समय में बंद कमरे में बैठना परोपकार है या दान में दी हुई बछिया के साथ फ़ोटो खेंचना, परोपकार।
बाला की ऊपरी मंज़िल बुद्धि से ठसाठस भरी हुई है। सो, उसकी सोच में औरों से भिन्नता होना लाज़िमी है। टीम जब शहर की मदद के लिए आगे बढ़ती है, तो लगे हाथ अपनी सोसायटी की मदद का भी ख़याल दिमाग़ में पकने लगता है। ख़ुद भूखे रहकर भूखों को ओढ़ने, पिनाने, खिलाने में लगे होने के बावजूद, मदद करने वाले विचारों में कोई कमी नहीं आती। विचारों का भूत ऐसा ही लदा होता है। बिलकुल विक्रम के बेताल सा।
बाला की टीम ने सोसायटी के एप पर अपने ग्रुप का नाम ‘बाला ग्रुप’ के नाम से अंकित कर दिया। मदद का हाथ आगे बढ़ाया ही था कि खींचकर माँगने वालों की लाइन लम्बी होती गई। बाला ग्रुप को विश्वास नहीं हो रहा था कि उनकी सोसायटी में इतने लोगों को मदद की ज़रूरत है।
एप पर डालते ही तारीफ़ों का पुल मिनटों में खड़ा हो गया। ज्यादातर लोगों ने “नाइस जेस्चर” का टैग दे मारा। ‘इस तरह का टैग लगने के बाद हेल्प लेना आसान हो जाता है’।
‘बाला ने आव्हान किया कि सोसायटी में रहने वाले किसी भी सीनियर सिटीजन, या अन्य कोई व्यक्ति को जरूरत हो तो हम सेवा में तत्पर हैं’।
अब सीनियर सिटीजन तो संकोच की गिरफ्त से बाहर ही न निकल पा रहे थे।
वे सोचते कि इस संक्रमण काल में युवाओं को क्यों संक्रमित करना। हमें उन्हें बचाना है। आख़िर वे भविष्य हैं। और इसीलिए उन्हें अपने किसी भी काम के लिए सिरे से खारिज कर देते।
सीनियर की सोच, उस ऊपरी सोच से भी आगे की निकली। जितना घर पर था, उसी में संतुष्ट। कुछ कम भी था, तो जाहिर न होने दिया।
उम्र के आखिरी पड़ाव वाले, पहले पड़ाव वालों के लिए यही सोच रखते हैं। बिरला ही होगा जो पहले खुद की परवाह करेगा।
बाला को सीनियर सिटीज़न से काफ़ी निराशा हुई। सोचता, उन्होंने कोई डिमांड ही ना रखी। उनका दरवाजा खटखटाकर हमेशा निराश ही लौटा।
उन वृद्धजनों ने जब देखा कि ये रोज रोज घंटी बजाता है, उन्होंने अपने गेट के बाहर एक परचा चिपका दिया। उस पर लिखा था, “आम्हाला काहीच नको, आपली कालजी घे” मतलब हमें कुछ नहीं चाहिए। अपना ध्यान रखो। चिरंजीवी भव।
ये पढ़कर दिल तो भरना ही था। उसने भी एक कागज अंदर खिसका दिया। लेकिन नम्बर देने से भी निराशा ही हाथ लगी।
इधर देखते ही देखते एप पर स्व-सेवा करवाने वालों की जैसे बाढ़-सी आ गई। लगा जैसे वर्क फ़्राम होम में ये भी शामिल था। मदद मांगने वालों की लिस्ट कुछ इस तरह थी-
१-क्या आप चकला उपलब्ध करा सकते हैं। मेरा लकडी का था और वो दो भागों में फट गया है। बाहर कर्फ्यू है। रोटी बनाना जरूरी है। बाहर खानावली भी बंद है।
टीम के बदले, एक गृहस्थिन ने उत्तर दे दिया- भाई, प्लेटफार्म को साबुन से रगडकर साफ कर लो। उस पर रोटी बनाओ।
२-क्या कोई मुझे फलाने ब्रांड का फलाना मॉडल का मोबाइल दे सकता है? बंदा आईटी कंपनी में था।
एक ने जवाब दिया- कल के दिन अब आप हमसे टीवी या लैपटॉप की डिमांड करने लग जाओ। मतलब कोई संकोच ही नहीं।
उसने फिर जवाब दिया- संकोच क्यों, जब सामने से कोई मदद का हाथ बढ़ा रहा है तो।
सही है, सं-कोच और एसी टू-टियर कोच में अंतर तो होता ही है। दोनों सबके नसीब में नहीं होते।
३-एक और का मैसेज था- क्या आप हमारे लिए दूध, फल, सब्जी खरीद कर ला सकते हैं? पैसा पूरा देंगे। साथ में आपका अपना पेट्रोल खर्च भी।
बंदा बहुत दिमाग़ वाला था। पेट्रोल की बचत के सपने देख रहा था। आख़िर मिलेगा, तब भरेगा ना।
४-एक को ट्रिमर और दूसरे को उसकी स्पेयर बैटरी चाहिए थी। मतलब मान लिया जाए कि ब्यूटी सलून के नाम पर बेवजह बदनाम होती औरतें, अब ना होंगी।
५-किसी को रेंट पर कूलर और किसी की एसी की डिमांड आ ही गई।
हे राम! इतनी सारी भारी भरकम डिमांड पढ़ने के बाद बाला अपने सर के बाल नोंचने पर मजबूर हो गया। सच ही है, ‘पैरों में जूतों के ब्राण्ड और लोगों के घरों के रिहायशी इलाक़ों से उनकी ज़रूरतों का अन्दाजा लगाया जा सकता है’। और उसने कुछ देर बाद अपनी पोस्ट डिलीट कर दी। ये सोचकर कि इन ज़रूरतों को मैं पूरा नहीं कर सकूँगा।
सोच रहा था कि एक तरफ़ से ये युवा मदद माँगने में लगे थे। वहीं दूसरी ओर वो कचरा बिनकर अपने घर का पालन पोषण करने वाली, प्रधानमंत्री को १५ हज़ार रुपए देकर पेट के ऊपरी हिस्से से मानवता की मिसाल क़ायम करती है। शायद, बाक़ियों के लिए बची मानवता, पेट के नीचे से शुरू होती है।

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