Sunday, October 6, 2024
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प्रदीप श्रीवास्तव की कहानी – रिश्तों के उस पार

वह कब क्या कर गुजरेंगे इसका अनुमान लगा पाना बहुत कठिन है। उनका ‘यदुकुल होटल’ करीब-करीब बीस-बाइस वर्षों से शहर में अपना विशेष स्थान बनाए हुए है। जब भी मैं उनके यहाँ कुछ  खाता-पीता हूँ, तो मेरे मन में उनमें कुछ गड़बड़ होने का संदेह जरूर पैदा होता।  
           सुबह से लेकर, देर रात तक होटल पर कम से कम एक हज़ार कस्टमर आते हैं। बहुत से वहीं बैठ कर खाते-पीते हैं, तो बहुत से पैक करा कर ले जाते हैं। कस्टमर को यहां कई तरह की चाय, समोसा, खस्ता, छोला, पकौड़ी ही मिलती है। 
          खाली दूध में बनी गिलास भरकर चाय और भीमकाय समोसा खाने के बाद, अगले कई घंटे तक कस्टमर को कुछ भी खाने-पीने की जरूरत नहीं रह जाती। तंदूरी चाय की मांग विशेष रूप से बनी रहती है।
        जब पहली बार उन्होंने  होटल में यह शुरू किया था तो मैंने कहा कि, ” यार ये तंदूरी चाय के नाम पर लोगों के साथ धोखा-धड़ी क्यों कर रहे हो ?” 
         तो उन्होंने कहा,” पहले बैठो यार, एक तो बार-बार बुलाने पर आते हो, कुछ खाते-पीते बाद में हो, बमबाजी पहले शुरू कर देते हो। पहले तो तुम ये बताओ कि, अब की आने में दो महीने क्यों लगा दिए ? और जब-तक तुम दो महीने का हिसाब दो, तब-तक मैं तुम्हारे लिए स्पेशल तंदूरी चाय बनवाता हूँ।”
         उसने अपनी बगल में ही पड़ी कुर्सी पर बैठने का संकेत करते हुए कहा। कुर्सी पर बैठते ही मैंने फिर व्यंग्य किया कि ,” यह तो धोखा-धड़ी की पराकाष्ठा है। तंदूरी से अब स्पेशल तंदूरी। यह करने के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए। कहाँ से लाते हो इतनी हिम्मत?”
         यह सुनते ही वह खूब जोर से हंस कर बोले ,” यह हिम्मत तो तुमसे ही पाता हूँ। जिसका तुम्हारे जैसा यार होगा, उसमें भला हिम्मत की कमी होगी।” इसके साथ ही उन्होंने पकौड़ी, खस्ता, स्पेशल तंदूरी चाय के लिए अपने कर्मचारी को संकेत कर दिया। 
         उनके कर्मचारी  जानते हैं कि, मेरे लिए उन्हें क्या ऑर्डर मिलेगा। आलू, हरी मटर, पनीर, मशरूम से भरा भीमकाय समोसा मेरे वश का नहीं होता, इसलिए मित्र उसके लिए नहीं कहते। मैं दो महीने बाद क्यों पहुंचा, उन्हें इसका हिसाब देते हुए, तंदूरी चाय को भी बनते हुए देख रहा था। एक बड़ी सी गोल भट्ठी में कोयले की आग धधक रही थी। उसमें पड़े कई कुल्हड़ भी अंगारों से धधक रहे थे। 
          उसी में से दो कुल्हड़ निकाल कर, उनके आदमी ने एक बड़े भगोने में खौल रही चाय में डाला, उसमें जैसे भूचाल आ गया। करीब मिनट भर बाद उन्हें निकाला, अलग केतली में बन रही स्पेशल चाय को उसमें भर कर, स्टील की प्लेट में हमारे सामने रख दिया। बाकी चीजें भी। मैंने कहा, ” ये तुम्हारे तंदूरी कुल्हड़ में ज्वालामुखी के लावा सी खदबदाती चाय पीने लायक कितनी देर में हो जाएगी ।”
         ” जैसे ही खाना शुरू करोगे, लावा वैसे ही चाय बन जाएगा ।” यह कह कर वह जोर से हँसे। चाय का टेस्ट मुझे वाकई कुछ अलग और बहुत अच्छा लगा। मैंने कहा, ” ये तंदूरी चाय तो वाकई स्पेशल है। कौन सी पत्ती यूज़ करते हो, बताओ तो घर पर भी वही यूज़ करूँ।”
       ” आया न फुल मजा, अब बताओ  स्पेशल तंदूरी चाय रियल्टी है या धोखा-धड़ी की पराकाष्ठा। ”
        यह कहकर हँसते हुए उन्होंने बहुत ही तीखी कड़वी हरी चटनी में एक पकौड़ी आधी डुबो कर खानी शुरू कर दी, बड़ी सी हरी मिर्च से भी एक टुकड़ा काट लिया। मैंने कहा, ” देखो चाय कितनी भी स्पेशल हो, टेस्टी हो, लेकिन मैं अपनी बात पर अडिग हूँ। क्योंकि तुम्हारा खुराफाती दिमाग कुछ न कुछ एक्सपेरिमेंट किए बिना रह नहीं सकता। 
         मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि, चाय का टेस्ट कुछ कह रहा है, सारा कमाल चाय की पत्ती, दहकते कुल्हड़ का ही नहीं है, कुछ और भी है, जो अपने होने का मूक संकेत दे रहा है। बताओ मैं सही कह रहा हूँ कि नहीं? ”
        यह सुनते ही वह फिर जोर से हंस कर बोले, ” संकेत समझने की कोशिश करो, समझ में न आए तो बताना, तब बताऊंगा कि, संकेत सही है या तुम्हारा भ्रम। वैसे यार ट्रेड सीक्रेट बताना सही रहेगा क्या ?”   
        बड़ी देर तक हमारी बातें, चाय-नाश्ता चलता रहा। उसके बाद स्पेशल तंदूरी चाय के स्वाद में डूबता-उतराता मैं वापस चल दिया। कस्टमर बार-बार आएं, होटल की चाय सहित, बाकी चीजों के भी लती बन जाएँ, इसके लिए पोस्ते के साथ-साथ एक प्रतिबंधित पदार्थ का अनुचित प्रयोग मुझे गलत लगा, साथ ही बच्चों, परिवार को लेकर उनकी बातें रह-रह कर मन कसैला कर रहे थे।            
         अक्सर बात-चीत में जब मैं उनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की बात करता हूं तो, वह बहुत तनकर कहते हैं कि, ” देखो मैं तुम्हारी तरह कलम तोड़ने वाला नहीं हूं। मैं पक्का अहीर हूं। वह भी प्रगतिशील अहीर। इसलिए ग्वाले से लेकर होटल तक, खेती-किसानी से लेकर मार्केट तक संभालता हूं।”
           मैंने उनकी प्रगतिशील वाली बात पकड़ते हुए कहा, ” जब इतने प्रगतिशील हो तो चीन की  खुराफ़ातों, षड्यंत्रों के परिणाम कोविड-१९ को लोगों के पापों के कारण दैवीय आपदा होना क्यों बता रहे हो , उससे बचने के लिए बताई गई सावधानियों को लेकर गंभीर क्यों नहीं हो, संभावित लॉक डाउन की अभी से खिल्ली क्यों उड़ा रहे हो ?”
         तो हँसते हुए बोले, ” यार तुम समझोगे नहीं, और मैं समझा भी नहीं पाऊँगा।”  
         वास्तव में वह अपने को बहुमुखी प्रतिभा का व्यक्ति कहते हैं। और पूरे घमंड के साथ यह बताते हैं कि, ” मैंने उन्नीस सौ चौरासी-पिचासी में मैकेनिकल प्रोडक्शन इंजीनियरिंग में बी-टेक किया था। जब इसके कुछ मायने हुआ करते थे। एक चीनी मिल में एक साल तक नौकरी भी की थी।
          नौकरी करने की इच्छा नहीं हुई, तो फाइन आर्ट में डिप्लोमा किया। और ये जो बड़े-बड़े आर्टिस्ट हैं न, इनमें से कुछ को छोड़ कर बाकी पर उन्नीस नहीं बीस ही पड़ूँगा। लेकिन यार एक बहुत बड़ी कमी है मुझमें कि, इनमें से बहुतों की तरह मैं जोकरों जैसा भेष बनाकर घूम नहीं पाता कि, आर्ट के नाम पर काम-धाम कुछ न करूँ, बस भेष बना कर बड़का आर्टिस्ट बना घूमता रहूं, जोड़-तोड़ करके पुरस्कार गड़पता रहूं।”
           यह सच है कि, उनमें एक अच्छे आर्टिस्ट के सारे गुण हैं। आर्ट को लेकर उनका विज़न बहुत स्पष्ट और आक्रामक है। लेकिन कुछ शानदार पेंटिंग्स बनाने के बाद आर्ट को एक दिन सेकेण्ड भर में हमेशा के लिए ऐसे छोड़ दिया, जैसे कोई तीन सेकेण्ड में तलाक-ए- बिद्दत देकर अपनी बेगम को घर से बाहर निकाल देता है। वह तलाकशुदा बेचारी दर-दर की ठोकरें खाती, अपनी तबाह हुई ज़िंदगी पर आंसू बहाती एक दिन ख़त्म हो जाती है।
          उनकी आर्ट भी उनसे तलाक पाने के बाद आंसू बहाती चली आ रही है, लेकिन निष्ठुर शौहर की तरह वो उसकी ओर पलट कर भी नहीं देखते, ईजल, ब्रश, कलर आदि उनकी वर्क-शॉप में पड़े धूल खा रहे हैं । पूरा वर्क-शॉप मकड़ी के जालों, धूल-धक्कड़ से भरा हुआ है। और  सच यह भी है कि नौकरी उन्होंने माता-पिता के दबाव में छोड़ी थी । 
          आर्ट छोड़ने के बाद खेती-किसानी के विषय पर डेढ़-दो साल अखबारों, कृषि सम्बन्धित पत्रिकाओं में खूब लिखा भी। स्वध्याय से उन्होंने कृषि सम्बन्धित व्यापक जानकारियां अर्जित की थीं । एक दिन अचानक ही इस फील्ड को भी अंतिम प्रणाम कर लिया।
         ऐसे अवसरों पर जब मैं उन्हें रोकता-टोकता हूँ कि, ” इस तरह तो तुम अपने को नष्ट कर रहे हो।” तो वह कहते हैं कि, ” यार माया-मोह में क्या पड़ना। दोस्तों के साथ मौज-मस्ती में ज़िंदगी कट रही है, इससे ज्यादा बढ़ियाँ और क्या होगा।”
            यह कहते हुए हंस देते हैं। उनकी इस हंसी, बात के पीछे उनका वह दर्द, उनके न चाहते हुए भी छलक ही पड़ता है, जो उनके भीतर बैठा सदैव उन्हें परेशान करता रहता है। जब यह परेशानी ज्यादा हो जाती है, तो चार-छह महीने में एक बार मुझसे चर्चा करके, उस पर नियंत्रण कर लेते हैं।         
          उनकी इस परेशानी का कारण कोई और नहीं, उनके माता-पिता ही हैं। पिताश्री पी.डब्ल्यू.डी. विभाग में एग्जीक्यूटिव इंजीनियर हुआ करते थे। गांव से लेकर शहर तक खूब प्रॉपर्टी बनाई थी। प्रॉपर्टी खेत, बाग सब-कुछ संभालने के लिए उन्हें एक ऐसा व्यक्ति चाहिए था, जो उन्हें मजबूती से संभाल सके।
         मित्र पढ़ाई के बाद जब नौकरी पाकर दूसरे शहर चले गए, तो उनके पिता की व्यवस्था  बिगड़ने लगी। सम्पत्ति के लोभ में उन्होंने बेटे पर नौकरी छोड़ कर घर लौटने का पूरा दबाव बनाया।
        उससे  कहा कि, ‘कहां अकेले दूसरे शहर में पड़े रहोगे। आकर काम-धंधा संभालो। सैलरी से ज्यादा यहीं कमा लोगे।’ मन न होते हुए भी अधिक दबाव के चलते मित्र ने नौकरी छोड़ दी। महीनों गुस्से के कारण किसी से बात नहीं की। 
        उनकी शिकायत इस बात को लेकर भी सदैव बनी रहती है कि, पिताश्री उससे छोटे अपने दूसरे बेटे  को, वह चाहे कुछ भी करे, उसे पूरी छूट बचपन से ही दी हुई है। इतना ही नहीं बिना पूछे ही उसकी शादी भी उस जगह कर दी, जहां वह नहीं चाहते थे।
        उन्हें अपने मन से परिवार के बारे में भी कुछ सोचने करने की छूट नहीं थी। शादी होते ही  बच्चे की ज़िद होने लगी। अंततः जल्दी-जल्दी दो बच्चे हो गए। हर बात पर अनवरत दबाव की स्थिति का परिणाम यह हुआ कि, उनकी पत्नी तनाव के कारण हमेशा बीमार रहने लगीं । क्योंकि वह हर तरफ से बंधनों को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थीं। 
        लगातार चिंता तनाव उन दोनों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल रहे थे। जाने-अनजाने उनके आचरण पर भी। एक स्वाभाविक प्रतिरोध उनके कामों में दिखना शुरू हो गया था। अब वह कई निर्णय पिताश्री की बरगदी छाँव से अलग हट कर लेने लगे थे। होटल खोलना, वह भी पिताश्री के सख्त विरोध के बावजूद उनका एक ऐसा ही निर्णय है।     
        खेती-किसानी का काम सीजन में पूरा करने के बाद उनके पास काफी खाली समय रहता था तो, एक दिन उनके दिमाग में आया कि, होटल खोलते हैं। और फिर देखते-देखते उन्होंने होटल खोल दिया। उनकी हिम्मत मेहनत रंग लाई, और ‘यदुकुल होटल’ चल नहीं बल्कि सरपट दौड़ पड़ा।
         बच्चे बड़े हुए तो उन्हें स्कूल भेजना शुरू कर दिया। बेटी तो पढ़ने-लिखने में तेज निकली लेकिन बेटा कुछ खास नहीं था। हाई-स्कूल पास करते-करते उसका मन पढ़ाई से ज्यादा पिता के बिजनेस में लगने लगा। जब-तक मित्र का ध्यान बेटे की इस हालत की ओर गया, तब-तक वह पढ़ाई-लिखाई से विमुख हो चुका था।
            पढ़ाई छोड़ कर वह बाकी सारे काम खुशी-खुशी करने लगा। जवाब देने, अपनी इच्छा व्यक्त करने में वह किसी प्रकार का कोई संकोच नहीं करता। बाबा-दादी हों या चाचा-मामा वह किसी को भी छोड़ता नहीं। बाबा-दादी को उस पर बहुत गुस्सा आता है कि, उनका साढ़े छह फिट का विशालकाय बेटा, उनके कहने पर नौकरी छोड़ कर चला आया। आज भी उनके सामने झुका खड़ा रहता। और पोता है कि, फटाफट जवाब देता है। उल्टा चुप रहने तक को कह देता है।
          वह पहले की तरह उस पर हाथ उठाने की भी हिम्मत नहीं कर पाते हैं, क्योंकि वह भी अब अपने पिता की ऊंचाई छू कर उनसे आगे निकलने की कोशिश कर रहा है। और पोती! वह तो उससे आगे निकल जाना चाहती है।
         वह भी मां की ही तरह बहुत गोरी और लम्बी है , लेकिन अच्छी पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ वह भी किसी की बात सुनना बिल्कुल पसंद नहीं करती। दोनों की इन आदतों के चलते बाबा-दादी से लेकर चाचा-चाची तक उन्हें फूटी आंखों देखना पसंद नहीं करते हैं। बाबा-दादी की तो अवसर मिलते ही उन दोनों को कोसते रहने की आदत बन गई है।
         हालांकि सामने कुछ नहीं कहते। क्योंकि वह दोनों सुनते ही पलट कर बड़ी तीखी बातें कह देते हैं। मित्र कहते भी हैं कि, ” यार मैं आज भी इतनी उम्र हो गई, लेकिन अम्मा-पापा के सामने इतना बुरा क्या, तेज बोलने की भी हिम्मत नहीं कर पाता। इन दोनों बच्चों के सामने मैंने कभी भी कोई गलत व्यवहार नहीं किया, कि इन पर गलत असर पड़ेगा, फिर भी न जाने कहां से यह दोनों ऐसी बदतमीजी सीख गए हैं।”
         मैंने कहा, ” यह बीते जमाने की बात हो गई है कि, बच्चे मां-बाप के व्यवहार से आचरण सीखते हैं। अब हम उस युग में जी रहे हैं, जिसमें इंटरनेट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा जो कुछ दिखाया, सुनाया जा रहा है, उसका नई जनरेशन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।”
         बच्चों के व्यवहार से चिंतित रहने वाले मेरे यह मित्र खुद जाने-अनजाने एक ऐसे चक्कर में पड़ गए हैं कि, मां-बाप के लिए पोते-पोती से भी ज्यादा बड़ी समस्या बन गए हैं। कारण भी कोई साधारण नहीं है।
       वह अपनी लड़की से मात्र दो-तीन साल ही बड़ी एक लड़की के प्यार में पड़ गए हैं। प्यार भी इतना गहरा कि, उसका फोन आ जाए तो वह सारा काम-धाम छोड़ कर चल देते हैं। चाहे होटल का हो, या खेती-किसानी, बाग का। काम रुकता है तो रुक जाए, जितना भी नुक़सान होना है, हो जाए, लेकिन उसके पास जाना टाल नहीं सकते।
      लड़की चार्टर्ड एकाउंटेंट है, उनके बिजनेस, टैक्स वगैरह संबंधित सारे काम देखती है। उससे छोटी दो बहनें और एक भाई भी है। उसके फादर की असामयिक मृत्यु के कारण उसकी एक बहन को उनकी जगह नौकरी मिल गई। क्योंकि भाई बहुत छोटा था, मां की पढ़ाई-लिखाई कुछ कम थी। वह अपने घर की सबसे दबंग, अनियंत्रित सदस्य है। 
        मित्र के करीब अट्ठासी-नवासी वर्षीय मां-बाप, पत्नी और बच्चों के लिए यह एक विकट समस्या है। उम्र को देखते हुए उनके मां-बाप शारीरिक रूप से बहुत ही ज्यादा स्वस्थ हैं। अपनी उम्र से करीब बीस वर्ष कम ही दिखते हैं। लेकिन उनकी कल्पना से परे इस प्रकरण ने उन्हें हिलाकर कर रख दिया है।
        बहुत आहत मन से एक दिन फोन करके मुझसे कहा, ” बेटा तुम्हारी उसकी तीस साल से दोस्ती है, उसको तुम समझाओ न कि, क्यों अपना घर-परिवार बर्बाद कर रहा है। हर तरफ बात फ़ैल गई है। समाज, रिश्तेदारी में कितनी बदनामी हो रही है। वह ये क्यों नहीं सोचता कि, इस बदनामी से खुद उसके बच्चों की शादी होने में अड़चनें आएंगीं। ”
       मैंने उन्हें बहुत सी बातें बताते हुए कहा कि, ”ठीक है चाचा जी मैं उनसे बात करूंगा।” साथ ही मन में यह भी कहा कि, चाचा जी वह समझाने-बुझाने की सीमा से ऊपर उठ चुके हैं। इस विषय पर उनके मन की बात ना करो, तो वह एक बात भी सुनने को तैयार नहीं होते हैं।
       कभी बात-बात पर रायफल निकाल लेने वाले मेरे यह मित्र, इस विषय पर अगेंस्ट बोलने वाले पर सेकेण्ड भर में फायर झोंक दें, रायफल की पूरी मैगजीन खाली कर दें, तो कोई आश्चर्य नहीं। आप खुद समझते हैं इन बातों को कि, आपके सामने आज भी सीधा खड़ा ना होने वाला, आपका यह बेटा जैसे ही इस बिंदु पर आपने सख्ती करने की कोशिश की, तो आप दोनों बाप-बेटे के बीच ही रायफलें तन गई थीं।
       आपका छोटा बेटा, पोता-पोती,  पड़ोसी ऐन वक्त पर नहीं आ जाते, तो आप दोनों बाप-बेटे के बीच में फायरिंग शुरू होने में देर नहीं थी। आपने तो बुजुर्ग होते हुए भी बेटे से पहले ही उसके ऊपर रायफल तान दी थी।
        जरा आप भी सोचिए न कि, आप दोनों भयानक आवेश में थे, कहीं फायर हो जाता तो ऐसी स्थिति में कौन किसको मार देता, इसका अंदाजा था आपको। मैं तो सिहर उठता हूँ सोच कर ही।
        ऐसा नहीं है कि, इस प्रसंग पर मैंने उनसे बात नहीं की है। उन्हें यह समझाया नहीं है कि, अपने बच्चों को देखो, सोचो उन पर क्या असर पड़ रहा होगा। क्या सोचते होंगे दोनों बच्चे और भाभी जी। इस प्रकरण के बाद मैं जब भी मिला हूँ उनसे, तो उनकी आँखों में आंसू ही देखे हैं, उन्हें विवश भीतर-ही भीतर घुटते हुए उन आंसुओं में घुलते ही देखा है। 
        उनकी विवशता भरी शांति का यह मतलब नहीं है कि, तुम्हारी सीए मित्र को लेकर उन्हें कोई दुःख, आपत्ति नहीं है। जरा गहराई से उनके दुःख को समझने का प्रयास करो। यह दुःख उन्हें चुपचाप मौत की अंधी खाईं की ओर ठेल रहा है। यह समझने की कोशिश करो न कि, वह सीए तुम्हारी बेटी की उम्र की है ।
           इस पर उन्होंने मजाक के माध्यम से जो जवाब दिया, उसमें उनका संदेश स्पष्ट था कि,  वह अपने रास्ते से डिगने वाले नहीं हैं। आपको पता नहीं मालूम है कि नहीं कि, वह उसे अपनी पूरी फ्रेंड सर्किल में, अपनी पत्नी की ही तरह परिचित कराते हैं। और पूरी शान से कराते हैं। 
         आए दिन उसे लेकर मेरे घर भी आ जाते हैं। उसके सामने ही मुझसे कहते हैं कि, कुछ समय के लिए उसके साथ मैं उन्हें अकेला छोड़ दूँ। वह भी बिना संकोच हँसते हुए उनकी बात का समर्थन करती है।  
        मैं उन्हें एकांत समय दे देता। लेकिन इस बात की जानकारी एक बार किसी तरह मेरी मिसेज को हो गई, तो वह बहुत नाराज हुई। उसने मुझसे साफ-साफ कहा, ‘मुझे यह सब बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है। यह मेरा घर है, कोई होटल नहीं। उन्हें ऐसी बेशर्मी करनी है, तो मेरे यहां आने की कोई जरूरत नहीं है। और आप भी उनसे दूर रहें तो ज्यादा अच्छा है।
         मुझे यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता कि, वह आपके साथ बिल्कुल सट कर बैठे। एक घर को तो बर्बाद कर दिया, दूसरे पर भी नजर लगाई हुई। मुझे इसके लक्षण बिल्कुल भी अच्छे नहीं लग रहे। इतनी ही जवानी सवार है तो किसी लड़के से शादी क्यों नहीं कर लेती? बुड्ढों के पीछे क्यों पड़ी हुई है? बसे-बसाए घरों को क्यों उजाड़ रही है?’
          गुस्से में पत्नी ने सेकेण्ड भर में बुड्ढा बना दिया था। उसकी बुड्ढों वाली बात पर मुझे हंसी आ गई तो वह और तेज आवाज में बोली, ‘हंसिए मत, उसे दुबारा यहां ना लाएं तो अच्छा है। आप भी कम नहीं है। दर्जन-भर पाले हुए हैं। न दिन देखें न रात, जब देखो तब फोन करती रहती हैं ।’ मैंने चुप रहना ठीक समझा।
        लेकिन स्पेशल तंदूरी चाय का सुरूर कहूं या जो भी, मैंने यह सोच लिया कि, जैसे भी हो मित्र को एक बार खुल कर समझाना ही पड़ेगा कि, जो तुम कर रहे हो, जिस रास्ते पर जा रहे हो, वह किसी मंजिल तक जाता ही नहीं।
         उससे सीधे ना कह कर, पहले उस पर उसकी लड़की की शादी जल्दी से जल्दी करने का प्रेशर डालता हूं। कहूंगा लड़की तीस की होने जा रही है, पढ़ लिखकर तीन साल से नौकरी कर रही है। बेंगलुरु जैसे शहर में अकेले रह रही है। जमाने को देखते हुए उसकी शादी का यह सबसे सही समय है।
        मगर अजब है यह दुनिया, और गजब है मेरा मित्र भी।  जब मैं उसकी बेटी की शादी की बात उठाता तो वह उसे अनसुना कर अपनी रेलगाड़ी,  जी हां,  वह अपनी सीए मित्र को अपनी रेलगाड़ी ही कहता है, उसी की बात शुरू कर देता है। 
         उनकी यह रेलगाड़ी इतनी जबरदस्त हो चुकी है, इतनी सिर चढ़ चुकी है कि, अब उसके मन का काम न होने पर वह सीधे-सीधे गाली-गलौज पर उतर आती है। गालियां भी इतनी गंदी, घिनौनी कि अच्छे भले आदमी के कान सुन्न हो जाएँ। 
           अब वह सीधे शादी करने के लिए दबाव डालती हुई, बहुत बिंदास होकर मुझसे कहती है कि, ‘बताइए भैया यह कहां का न्याय है कि, मैं यहां अकेली मर रही हूं और यह उस बुढ़िया के….. इतनी गंदी बात कहती है कि, जुबान पर लाना मुश्किल है। उसकी बातें सुनकर यह कहा ही नहीं जा सकता कि, यह एक पढ़ी-लिखी लड़की है। साफ़ आरोप लगाती है कि, ‘ ऐसे ही धोखा देना था तो मुझे क्यों फंसाया ?’ 
          उनकी एक जैसी  बातों, रोज के झगड़ों से कई बार मैं बहुत परेशान हो जाता हूं। इसलिए अब अक्सर टाल देता हूं। मगर फिर भी दोनों नहीं मानते। पता नहीं मेरी भावना नहीं समझ पाते या कि समझना ही नहीं चाहते। मेरा पीछा ही नहीं छोड़ते। 
         कोरोना वायरस ने दुनिया में तबाही मचाई हुई है। हजारों लोग रोज मर रहे हैं,  देश में लॉक-डाउन है। एक तरह से कर्फ्यू लगा हुआ है, बाहर निकलने पर लोग गिरफ्तार हो रहे हैं। 
         लेकिन अजब-गजब इन मित्रों पर कोई असर नहीं है। दोनों अपने-अपने घरों में हैं, लेकिन मोबाइल पर झगड़े जारी  हैं। मित्र मूर्खता इस हद तक कर रहे हैं कि, लॉक डाउन के भयावह माहौल में भी, पुलिस वालों से झूठ बोलकर, दवाओं के पर्चे आदि फर्जी चीजें दिखाकर दो बार उसके घर हो आए, उसने जो कुछ भी मंगाया वह भी उसको दे आए हैं।
        लॉक डाउन तक उसी के पास रुकने की उसकी बात नहीं मानने पर गालियां भी खूब खाईं। मास्क लगाने, सेनीटाइजर यूज़ करने की अनिवार्यता के बावजूद इन सब के बिना उनका आना-जाना लगा हुआ है। इस चक्कर में एक बार पुलिस वालों से भी सख्त बातें सुनी।
         घर पहुंच कर मुझे फोन किया, अपनी गाथा बताने लगे तो मैंने कहा, ” तुम यह सब क्या कर रहे हो। उसकी, अपनी,  पूरे परिवार का जीवन क्यों खतरे में डाल रहे हो। पूरी मानवता खतरे में पड़ी हुई है। लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह मर रहे हैं। रेलवे की बोगी, पानी के जहाज़, हवाई जहाज, होटल सब हॉस्पिटल में बदले जा रहे हैं।
         कोई दवाई तक नहीं है। जिसको हुआ पूरा परिवार खतरे में पड़ जा रहा है, और तुम बिना सावधानी के बेवजह आना-जाना लगाए हुए हो। परिवार में किसी एक आदमी को होता है तो, पूरे परिवार का जीवन खतरे में पड़ जा रहा है। रांची में एक ही परिवार के सात लोग मर गए। अंतिम संस्कार करने वाला भी नहीं मिला। 
        आज ही न्यूज़ में आया है कि, पत्नी ने अकेले ही अपने पति का संस्कार किया। तुम इन बातों पर भी चौबीस घंटे में एक दृष्टि डाल लिया करो। यार स्थिति की गंभीरता को समझते क्यों नहीं।” मैं काफी गुस्सा हो उठा।
          दरअसल मैं उनकी वही पुरानी बातें सुनते ही गुस्से में आ गया था, खुद को रोक नहीं पाया। कई दिन की खीझ एकदम से निकल आई। इस बात का एहसास हुआ तो, मैंने बात का रुख मोड़ते हुए कहा, ”बेंगलुरु में तुम्हारी बेटी अकेले है। उसके पास खाना-पानी है कि नहीं, उसका क्या हाल है, पहले यह तो बताओ।” 
          मैंने सोचा था कि, वह नाराज होकर कॉल डिस्कनेक्ट कर देंगे। लेकिन उसने हमेशा की तरह कहा, ” यार दो  दिन पहले बात की थी। वह बिल्कुल ठीक है। वर्क फ्रॉम होम कल्चर को बहुत अच्छे से अडॉप्ट कर लिया है। वह घर से ही ऑफिस का सारा काम कर रही है।” 
         मुझे आश्चर्य हुआ कि, ऐसे हाहाकारी माहौल में यह आदमी इतनी दूर रह रही बेटी से दो-दो दिन तक बात नहीं करता। इसे बेटी के प्राणों को लेकर जरा भी चिंता नहीं है। कैसे निश्चिंत होकर बोल रहे हैं कि, सब ठीक है। इस सीए के चक्कर में कहां चली गई है इनकी संवेदना। 
         उसके लिए मन में अजीब सी घृणा के भाव पैदा हो गए। मैं खुद पर पूरा नियंत्रण नहीं कर पाया और मुंह से कुछ और सख्त बातें निकल गईं। बात खत्म होते ही मैंने सोचा कि, अब यह गुस्सा हो जाएगा।  कई दिन तक बात नहीं करेगा। उसके बाद छूटते ही कई बातें सुनाएगा। फिर आगे यह जरूर कहेगा, ‘यार चित्रगुप्त, कायस्थों के देवता, तुम क्या सोचते हो, हम तुमको ऐसे ही छोड़ देंगे। हमारी रेल गाड़ी का कंट्रोल तो तुम्हारे ही हाथ में है।’
          मगर इस बिंदु पर उसे लेकर मेरा अनुमान गलत निकला। अगले ही दिन रात करीब ग्यारह बजे उसकी कॉल आई। उसका नाम देखते ही मैंने सोचा कि, निश्चित ही दोनों में फिर से झगड़ा हुआ है। और कुछ ज्यादा ही हुआ होगा, तभी इस समय कॉल कर रहा है। जो भी हो अब साफ कह दूंगा कि, दिन में बात करूंगा। लेकिन हेलो करते ही उसकी हैरान-परेशान उखड़ी हुई आवाज सुनकर मैं सशंकित हुआ कि, कहीं कुछ ज्यादा गड़बड़ हो गई है क्या?
         मैंने अपने पर कंट्रोल करते हुए पूछा, ” क्या बात है भाई, सब ठीक तो है ना?”
तो वह कुछ देर चुप रहने के बाद बोले, ” कल मेरी बेटी का हाल चाल पूछ रहे थे ना…
” हां हां, सब ठीक तो है ना ?”
          उसके बात करने के तरीके से मैं एकदम घबरा उठा। उसने कहा, ”अब बात ठीक और ना ठीक होने के दायरे से बाहर चली गई है।”
          यह कहते हुए उसकी आवाज बहुत भारी हो गई। वह रुवासा हो गया।
          मेरा कलेजा कांप उठा कि, जिस बच्ची को मैंने गोद में खिलाया था, कहीं उसे कोरोना वायरस ने निगल तो नहीं लिया। मैंने बहुत घबराते हुए पूछा, ” उसकी तबीयत तो ठीक है ना?”
         तो उसने बहुत गंदी गाली बकते हुए कहा, ” तबीयत वगैरह सब ठीक है। उसने शादी कर ली है।”
         ”क्या! कब कर ली?” अब-तक मैं नॉर्मल हो चुका था। मैंने सोचा बेवकूफ कहीं का ऐसे बोल रहा है, जैसे न जाने कितनी बड़ी विपत्ति आ गई हो। आजकल लव-मैरिज कौन सी बड़ी बात है। अब तो यह सब नॉर्मल बात है।
         उसने कहा, ” उसे शादी किए हुए दो साल हो गए हैं। थोड़ी देर पहले मां से बात कर रही थी। मिसेज़ बार-बार उससे शादी की बात करती थी, तो वह टालती रहती थी। जब आज उसने ज्यादा जोर डाला, तो उसने अचानक बोल दिया, ‘ मैंने शादी कर ली है।’
         मैंने उसे समझाते हुए कहा, ” देखो, धैर्य से काम लो, अगर लड़का पढ़ा-लिखा है, ठीक-ठाक है, नौकरी कर रहा है, तो समझा-बुझाकर दोनों को बुलाओ, पार्टी देकर सभी को अरेंज मैरिज बता दो। आजकल लव-मैरिज कोई बड़ी बात नहीं रह गई है।”
          इतना सुनते ही वह खीझते हुए बोला, ” अरे भाई लड़के को तब बुलाऊंगा, पार्टी दूंगा, जब उसने लड़के से शादी की हो न।” 
         मैंने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा, ” क्या मतलब ?”
         ” मतलब,  मतलब कि, उसने लड़की से ही शादी की है, लेस्बियन है, अपने रूम-मेट से ही शादी कर ली है।”
         इतना कहकर दांत पीसते हुए उसे कई गालियां देने लगा। बोला, ” ऊपर से मां से बराबर लड़ रही थी। बोल रही थी, ‘समझ लो कि, मैं पैदा ही नहीं हुई। मर गई मैं। अब मैं तुम लोगों से कभी नहीं मिलूंगी। लखनऊ में कदम ही नहीं रखूंगी।’
         इसने मुझे जिंदा रहने लायक नहीं छोड़ा है। पापा को क्या जवाब दूं कि, रोज जिसकी शादी के लिए मुझे टोक रहे हैं , जिसे बचपन में गोद में लेकर प्यार से ढेपुनी ढेपुनी कहकर खिलाते थे, उसने क्या कारनामा कर दिया है। वह तो सुन कर खुद को ही गोली मार लेंगे। मैं कहां जाकर मर जाऊं कि, दुनिया मेरा मुंह ही ना देख सके।”
        मैं भी कुछ समझ नहीं पा रहा था कि, अपने मित्र को क्या समझाऊं, कैसे कहूं कि, हमारी तुम्हारी दुनिया का यह एक सच है। इसे स्वीकार करना ही पडेगा। इसे क़ानूनी मान्यता मिली हुई है। सीए के साथ तुम्हारे रिश्ते को भी। गोली, डंडा-लाठी अब कुछ भी काम नहीं आएगा। मैं चुप था। उधर से भी उसकी कोई आवाज नहीं आ रही थी। शायद वह भी मेरी तरह निःशब्द हो चुका था।
प्रदीप श्रीवास्तव
प्रदीप श्रीवास्तव
प्रकाशित उपन्यास - 'मन्नू की वह एक रात, बेनज़ीर- दरिया किनारे का ख़्वाब, वह अब भी वहीं है प्रकाशित कहानी-संग्रह - मेरी जनहित याचिका, हार गया फौजी बेटा, औघड़ का दान, नक्सली राजा का बाजा. मेरा आखिरी आशियाना, मेरे बाबू जी; नाटक– खंडित संवाद के बाद कहानी एवं पुस्तक समीक्षाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. "हर रोज़ सुबह होती है" (काव्य संग्रह) एवं "वर्ण व्यवस्था" पुस्तक का संपादन. संप्रति : लखनऊ में ही लेखन, संपादन कार्य में संलग्न सम्पर्क : [email protected]
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