वह जितनी देर आइने के सामने खड़ी होती, तो अपनी ही सूरत देखकर अजीब सी घबराहट तारी होने लगती। इतनी बेचैनी क्‍यूंकर मेरे सीने में दर्ज है महीनों से ? पिछले कुछ सालों से कितना कुछ इन खुली आंखों ने देखा और इस कद काठी ने भी तो उतने ही दर्द भुगते हैं। उद्विग्‍नता इतनी तेजी से बढ़ती जैसे हवा का साथ मिलने पर आग की लपटें चौगुने वेग से चौतरफा फैलने लगी हों। सब कुछ बिगड़कर विकृत होता गया जैसे जिंदगी की रूई भरी रजाई पर किसी ने बेरहमी से लाठियां चला दी हों। जैसे तेज धूप में नंगे पांव चलकर कुएं की रेहट से पानी खींचने की हिम्‍मत की, फिर पानी भरने की आस में देर तक भरी बाल्‍टी को कुएं से ऊपर खींचते हुए वह तृप्ति की उम्‍मीद संजोए रही लेकिन बाल्‍टी के ऊपर आने पर उसके खालीपन का पता चले, जैसे किसी नामालूम से छेद से सारा पानी बूंद बूंद करके रास्‍ते में ही टपक चुका हो। खाली बाल्‍टी देखकर माथे पर हाथ धरे देर तक सोचते हुए उसकी आंखें भर आईं । अब कैसे तृप्‍त करेगी वह अपनी आकुल प्‍यास ? अनजान किस्‍म की आशंका और अनहोनी के काले बादल विनीता को डराने लगे। उम्र के इस मोड़ तक आकर लगा जैसे कुछ भी तो नही बचा पाई वह।  तभी ऐसे लगा जैसे कोई उसके कंधे पर हाथ टिकाकर कह रहा हो- विनीता, ऐसे हिम्‍मत हारोगी तो कौन तुम्‍हें वीरांगना कहेगा ? कॉलेज में यही टाइटल तो मिला था न तुम्‍हें ?  सोचते हुए अनगिनत यादें चित्रावलियां बनाने लगी।
ये स्‍मृतियां आखिर हैं क्‍या ? महज बिताए क्षणों की पुनरावृत्ति या हमारी बेशकीमती धरोहर ? अनायास पंछी दशकों पुराने समय में उड़ान भरने लगा। नामी खानदान में जन्‍मी विनीता अपने भाई बहनों में सबसे बड़ी, निड़र, चतुर, बड़बोली और फुर्तीले चीते की तरह चुस्‍त। बोलने में तो उसने जैसे सारा जग जीत लिया था। जितनी पढ़ाई में तेज तर्रार, उससे कई गुना ज्‍यादा डिबेट जीतने में मशहूर। निडरता के तो उसके अनगिनत किस्‍से थे। मसलन कोई कहता, चल, अमुक जगह चीते शेर घूम रहे हैं, चलेगी ? तो वह पलटकर जवाब देती- चल, चलकर आंखें मिलाकर छूते हैं। उसे तो ऐसे रोमांचक कारनामों का खूब शौक था। उसकी मित्रमंडली भी लंबी चौड़ी और हर फन में माहिर लड़के लड़कियों से दोस्‍ती गांठने में खूब उस्‍ताद । किसी से काम निकालने का विशेष जादू जानती थी वह जैसे, मुस्‍कराकर ऐसे बोलती कि सामने वाला उसकी मैदा की लोई जैसी गोरी सूरत पर और मीठी आवाज पर रीझ जाए। 
‘ऐ लखन, कितना बढ़िया कार चलाता है तू तो।‘ अपनी बिल्‍लौरी आंखों से उसकी तरफ नेह भरे अंदाज में इठलाती मीठी इमली को मुंह में चुभलाते हुए बोली- ‘ सिखाएगा मुझे ? ‘ इस आवाज में अपनेपन की सोंधी गंध सूंघने को मिली – ‘ लखन, तेरे लिए मेले से एक टीशर्ट खरीदे थे, पीले रंग की। सोचे थे, किसी खास दिन, तेरे जन्‍मदिन को दूंगी, कब पड़ता है ?’ 
‘दशहरे के दो दिन पहले बताती हैं अम्‍मा, सकुचाती आवाज में जवाब दिया उसने। 
‘गाड़ी चलाना सीखेंगी आप ? वैसे गाड़ी चलाना आसान नही। अभी बहुत छोटी हो, कद भी तो छोटा । ‘  
‘अरे नही, पांच फिट दो इंच की हूं। ऐ लखनवा,  अब उस आवाज में भरसक मुलामियत लाते हुए बोली-  मेरी लंबाई का कार सिखाने से क्‍या ताल्‍लुकात ? वो छोटे कद का लल्‍लू कितनी अच्‍छी कार चलाता है, याद है लल्‍लू ? अरे मेरे बुद्धूराम,सीधे सीधे बता, आज शाम को चलेगा पोखर पार की लंबी सड़क पर, पर किसी को बताना नही है, हां ?’ इस बार विनीता ने उसकी नाक पकड़ते हुए अनकहे नेह के अनगिनत रंग बिखेर दिए। 
‘पर वहां तो सुनसान सड़क है और उसके बाद से जंगल शुरू होता है जहां किसी को आते जाते नही देखा आज तलक. . उसने डरते सकुचाते बात टालनी चाही। 
‘तभी तो वहां सीख पाएंगे हम। सुन, तू है बकलोल, शाम 6 बजे चलेंगे आज़। तुझे तो 8 बजे कचहरी जाना पड़ता है, फिर काहे इतना बहाना ? सुन, ये रख ले सौ रूपए, कुल्‍फी खा लेना स्‍पेशल वाली़, हां. . विनीता ने मुस्‍कराते हुए उसकी तरफ ऐसे देखा कि वह मना नही कर पाया। धीमी आवाज में बोला- ‘ किसी ने देख लिया तो ? वहां सुनसान सड़क पर गाड़ी खराब हो जाए तो बड़ी मुसीबत, अक्‍सर जंगली जानवर आते जाते रहते बीचोंबीच सड़क पर। सुना है, एक बार जंगली हाथी ने कार को उठाकर पटक दिया था़।‘ 
‘अरे, इतना काहे डरा रहा है, साथ में चलेंगे ? ठीक ? ‘ 
‘कौन कहां जा रहा ? विनीता, कहां ले जा रही हो इसे ?’ 
‘अम्‍मा, कहीं नहीं। ऐसेई कुएं के पास वाले मंदिर जाने की सोच रहे, लखन की गाड़ी से। ‘
’मंदिर तो इतना पास है कि पैदल ही चली जाओ। गाड़ी की जरूरत नही।‘
‘अम्‍मा, नही समझोगी तुम। ‘ कहते हुए वह तेजी से वहां से हट गई। 
अचानक से समय बदल दिया। भरी दुपहर में जब सारा घर सो रहा था, तब उसने लखन संग जाने का तय किया। उस समय न तो स्‍टीयरिंग पकड़ने में डर लगा, न तेज दौड़ाने में । तेज धूप में पिघलते तारकोल की सड़क पर कार दौड़ाते हुए लखन को बगल में बिठाकर हवा से बतियाती विनीता। रोमांचक काम करने में पहल तो वह शुरू से ही करती रही है । कार सिखाते समय कई मौके ऐसे आए, जब लखन ने उसकी हथेलियां छुई मगर इससे बेखबर वह अपनी धुन में गाड़ी चलाती रही। अपनी लगन और धुन की पक्‍की विनीता को जो रूचता, उसे करके ही चैन मिलता पर अगर कोई उसे ताना कस दे तो पलट वार करने से कतई नही चूकती। एक बार पिताजी से दुबारा पैसे मांगने पर उन्‍होंने पूछा- ‘ कल जो सौ रूपए दिए थे, कहां खर्च हो गए ?‘ 
‘ याद नही . .उसने लापरवाही से जवाब दिया लेकिन भाई बीच में कूद पड़ा- ‘ जब कुछ कमाएगी, तभी तो पैसे का दर्द पता चलेगा। बैठे बिठाए बाप की कमाई पर ऐश कर रही है। ये क्‍या जानें पैसे कमाने का दर्द ? लड़कियों को तो वैसे भी बैठे बैठे ही खाने की लत लग जाती है।. . ‘  भाई के बोल ऐसे लगे जैसे तड़कते चटकते अंगारे पर किसी ने घी डाल दिया हो, तैश में आकर उबल पड़ी- ‘ ऐ विकास, ऐसे कुबोल न बोल। मैं भी पैसे कमाकर दिखाऊंगी।‘ 
‘ हुंह, तुम कमाओगी ? घंटा ? बड़े बाप की लड़की को पैसे कमाने की क्‍या जरूरत ? किसी बड़े अफसर संग ब्‍याह होकर सारी जिंदगी बैठी बैठी खाती रहना। ऐशोआराम तो नसीब में लिखाकर लाई हो. .  
‘ विकास, मेरी बात लिखकर रख लो, पिताजी मेरी शादी चाहे जितने बड़े अफसर से करें मगर मैं खुद बड़ी अफसर बनूंगी, खुद कमाऊंगी। हां,  बिल्‍लौरी आंखों से जैसे गुस्‍से का धुआं निकलने लगा था। 
‘ कैसे कमाओगी ? और कौन तुम्‍हें इतना पढ़ने देगा ? ये बड़ी बड़ी बातें मत बोल। ‘ 
‘ मैं पीसीएस बनूंगी, हां, गांठ बांधकर रख लो। ‘ इस बार आवाज में मजबूती की खनक सुनाई दी। 
न जाने किस घड़ी में क्‍या क्‍या बोलती गयी वह लेकिन वक्‍त ने सचमुच उसके लफ्जों को साकार कर दिया। शादी के साल भर बाद जब पति अपने छोटे भाई को पीसीएस परीक्षा के सवाल हल करवा रहे थे कि किसी सवाल पर उसने रसोई में बैठे बैठे जवाब देने की गुस्‍ताखी कर डाली तो वे तंज कसते हुए हंसने लगे- ‘ ये क्‍या जानें इस सवाल का जवाब ? इनसे तो मटर विरयानी या कोई रेसिपी पूछ सकते हो।‘ 
बात फिर से तीर की तरह कलेजे को पार कर गयी। तभी देवर बोल पड़ा- ‘ आपका जवाब एकदम सही निकला भाभी. . 
‘तुक्‍का लग गया होगा . . पति ने फिर से हिकारत से उसकी तरफ देखकर जवाब दिया। बस उस एक लाइन ने उसकी जिंदगी बदल डाली। दिन रात की मेहनत करने का असर था या उसकी जिद या जुनून था कि पहले प्रयास में ही पीसीएस परीक्षा पास कर ली। हैरत, असमंजस, अचंभे और कौतुहल से देखा था पति ने उसे तो विनीता ने सवालिया नजरों से पति को जवाब दिया- ‘ तुक्‍का लग गया होगा . . 
सुनकर वे खामोशी से नजरें नीची किए रहे। सांवले, लंबे और मितभाषी उसके पति उसे अपने से हीन साबित करने के लाख जतन करें मगर तेजी तो विनीता के रग रग में भरी थी। दुनिया में न जाने क्‍या क्‍या हासिल करना बाकी था अभी ? पैर एक जगह टिकता ही कहां था ? बेशुमार दोस्‍तों के जमावड़े के बीच उन्‍मुक्‍त ठहाकों से भरी जानदार महफिल और उच्‍चाधिकारियों के बीच घर बाहर का संतुलन साधती विनीता क्‍या सचमुच सही से संतुलन पा रही थी ? कितनी बार कितनी तरह की उड़ानों का लुत्‍फ एक साथ उठाना चाहती थी विनीता ? एक तरफ पति से मिलती उपेक्षा का दंश तो दूसरी तरफ नौकरी में तेजी से ऊंची सीढि़यों पर चढ़ने की जद्दोजहद, ऊपर से बेटे की जिम्‍मेदारी, उनके रिश्‍ते दो दशक तक खिचे पर तनी हुई रस्‍सी पर चलते नट की तरह हर लम्‍हे संतुलन बनाने में ही जिंदगी के इतने साल गुजर गए। 
 पुरूषों से दोस्ती करने में उसे कोई हिचक नही होती बल्कि बाहरी दुनिया में उसकी मित्रमंडली दिन ब दिन लंबी चौड़ी होती गयी जहां से उसे जीने की ऊर्जा मिलती और नए सिरे से नया करने का जज्‍बा जिंदा बना रहता। वह अपने साथियों को समुचित मान सम्‍मान देती लेकिन उसके स्‍वभाव में अडि़यलपन भी कम नही था। पति की ज्‍यादतियों से लहुलुहान मन पर सांत्‍वना का लेप उसके पुरूष मित्र ही लगाते। अपने जीवन में नित नए प्रयोग करने से उसे कोई एतराज नही था। 
बातूनी, स्‍मार्ट, दबंग, खुद्दार और अंग्रेजी बोलने में दक्ष लेकिन भीतर से परंपरागत जीवन मूल्‍यों को जीने वाली विनीता के जीवन में अनुपम एक जोरदार आंधी तूफान की तरह आया। दोनों के बीच नेह के चकाचौधी रंग चेहरे पर चमकने लगते ।  आपसी लगाव इतना जबरदस्‍त कि मोबाइल हमेशा संदेशों से भरा रहता। एक बार गलती से बेटे के हाथ में मोबाइल आया जिसके संदेश खोलकर पढ़ने लगा- आपका रंग तो सूरज से ज्‍यादा सुनहरा और चांद की तरह सफेदी के अलग अलग रंगों को लजाती आभा, आप तो लाजवाब है । ‘’ ममा, ये सब क्‍या है, किसने लिखी है ऐसी कविता ?’ बेटे ने दुबारा पूछा।  
‘हैं एक शायर, हमारे ग्रुप में…. कहते हुए उसने बात पलटनी चाही तभी ऐन मौके पर पति टपक पड़े। उन्‍होंने झपटकर मोबाइल बच्‍चे के हाथ से छीन लिया। फिर क्‍या था, उस समय से शुरू हुई मानसिक शारीरिक हिंसा का वो लंबा दौर, रूह को कंपा देने वाली घटनाएं, सिलसिलेवार याद करेगी तो जी नही पाएगी वह। पर होता इसके उल्‍टा है, जितना भूलने की कोशिश करती है, वे दर्दनाक हादसे दुगुने वेग से उसके सीने पर धमाचौकड़ी मचाने लगते, किसी जिद्दी बच्‍चे की तरह। न जाने किस अवसर पर टकराया था विवेक जिसने उसे धर्म, अध्‍यात्‍म, योग और दर्शन की दर्जनों किताबें पढ़ना सिखाया। इस नए झरोखे के खुलने से उसने जिंदगी के नए आयाम तलाशने शुरू किए। बेटा बाहर पढ़ने निकल गया और वह सीढ़ी दर सीढ़ी अपनी ऊंची होते ओहदे से जुड़े कामों में व्‍यस्‍त होती गयी लेकिन जब अकेली होती तो सीने में जज्‍ब हुए उन नुकीले जहरीले बोल याद करके बेचैनी होने लगती । उसने हर संभव कोशिश की कि सब कुछ ठीक ठाक चले मगर उसके चाहने के बावजूद सारा संतुलन लड़खड़ाता गया। कहीं न कहीं सब कुछ खत्‍म होने के कगार पर था। 
ऐसी ही किसी बात पर गालियों की बौछार के बाद तांडव हिंसा की शुरूआत हुई। जैसे ही पति ने विनीता के बालों को अपनी मुट्ठी में भरा कि वह पूरी ताकत से चीख पड़ी- ‘ निकल जाइए मेरे घर से ।लिसन, ये सरकारी बंगला मेरे नाम है, जहां किसी भी किस्‍म की हिंसा अब और बर्दाश्‍त नही । आयी बात समझ में ? सीधे सीधे नही निकले तो इसी वक्‍त पुलिस को कॉल करूंगी और घरेलू हिंसा में बंद हो जाएंगे। चलिए, निकलिए. . अभी और इसी वक्‍त .  ‘ 
भारी मन से उन्‍हें आधी रात को घर छोड़ना पड़ा। महानिष्‍क्रमण की यही से शुरूआत थी जिसकी भरपाई फिर कभी नही हो पाई। आइने के सामने खड़े खड़े विनीता को अपने अक्‍स के बरक्‍स सैकड़ों टुकड़े देखकर मन वितृष्‍णा से भर गया। पता नही, किस किसके पीछे क्‍यूंकर भागता रहता था उसका मन ? तन भी तो ? आखिर किससे भागती रही वह सालोंसाल ? खुद से या उस सड़े गले सिस्‍टम से ? कई सालों से अकेले पड़ते जाने की मर्मांतक पीड़ा से ? पुरूषों की छांह में बने रहने की परंपरागत आदत के चलते शायद वह पुरूषों से कभी नफरत नही कर सकी। मन की आकुल प्‍यास से बौराई विनीता की ललक तन की यात्रा तय करने जरा भी नही हिचकती थी बल्कि ऐसा करते हुए वह किसी अनिर्वचनीय सुख में खुद को डुबो लेती। आज विगत के उन कटे फटे टुकड़ों को जोड़कर पढ़ना चाहा, आखिर कहां से कैसे पनपता है नेह ? प्रेम है क्‍या ? उस दौरान ऐसे लगता, जैसे आसमान से टपकते मेह में से कोई ऐसी अमृतनुमा बूंद सीधे अंतस तक पहुंचकर प्रेम की नयी पौध रोप गई, तब सब कितना अद्भुत, कितना अप्रत्‍याशित और कितना अनूठा लगने लगता। कुछ साल गहरी संलिप्‍तता में डूबते हुए गुजरता, फिर नामालूम वजहों से टूट जाता जाता। लगता, जैसे अब सब खत्‍म मगर कुछ साल बाद अचानक फिर से जगने लगता वही एहसास, पुर्ननवा होकर। शायद लीक से हटकर कुछ अलग तरह का रोमांच जगने को क्‍या कहें, थ्रिलिंग जर्नी या नएपन की ललक या फिर वही दैहिक लालसा ? आज तक नही बूझ पाई विनीता इस रहस्‍य को। 
बेटे के बाहर जाने के बाद पहले तो भाई संग कुछ महीने रही। दरअसल पति की रंगीन मिजाजी के किस्‍से उसके प्रशा‍सनिक हलकों में गूंजते हुए उसके कानों तक प्रतिगुंजित हुए। इसी दौरान पति से अलगाव के बाद उनकी दूसरी शादी की खबर भी उस तक पहुंची। खाली कुएं में फेंके कंकड़ पत्‍थर की तरह पति की कारगुजारियों के किस्‍से उसके आसपास बजते रहते जिनकी चर्चा उसने अपने विभाग के वरिष्‍ठ अधिकारी मन्‍मथनाथ से की। उन्‍होंने ऐसे कोमल क्षणों में उसे मनोवै‍ज्ञानिक रूप से मजबूत किया बल्कि धीरे धीरे वे उसकी जिंदगी के सूत्रधार बनते गए। पचपन पार के समझदार मन्‍मथनाथ का ऊंचा माथा, मंझोला कद, दूधिया रंग और सुलझी बातें सुनकर विनीता का सूखा तन मन हरिया जाता। उसे लगता, जब पति ने अपने लिए नयी दिशा चुन ली तो अब वह किसके लिए जिए ? वह भी आजाद पंछी की तरह नई दिशाओं की तरफ उड़ान भरेगी। कुछ भी करने के लिए आजाद हो तुम।  दूसरी पारी का लुत्‍फ उठाना सीखो विनीता, मन्‍मथनाथ उसे अपने तर्को से कन्विंस करते रहते। 
‘ पर मैं अब शादी के झमेले में कतई नही पड़ना चाहती। आपका आदर करती हूं मगर अब जिंदगी में नया प्रयोग करने में कोई दिलचस्‍पी नही रही।‘ उसने दोटूक लहजे में बात कही। 
‘ अरे, शदिया करने के लिए कौन कह रहा है ? मेरा मतलब, तू अपनी मर्जी से अपनी जिंदगी की बागडोर थामना सीख। अपने सपनों को जीना शुरू कर। अपना अलग घर बनवाकर उसमें ऐश से रहना। ‘ 
‘ और अकेले रहने लगें उस घर में ? न, अकेले रहने में बड़ा डर लगता है।‘ उसने खरगोश की तरह अपने सफेद उजले पंख फैलाते हुए बच्‍चे की तरह भोली आवाज में कहा- ‘ आप रहेंगे हमारे संग ? बोलिए न, आप रहेंगे तो चलो, अभी, इसी वक्‍त बंगला खरीद लेते हैं, सौदा फाइनल करने में जरा भी देरी नही होगी। ‘ निर्णायक लहजे में बात करती रही वह। 
 इतनी पढ़ी लिखी, ऊंची नौकरी में हो, फिर भी पुरानी सोच से आगे नही बढ़ी। अकेले अपने दम पर जीना नही सीख पाई अब तक। तुम बातें बड़ी बड़ी करोगी मगर संस्‍कारों में अभी भी वही परंपरागत सोच. . पर वे प्रकट रूप में ऐसा कुछ बोल नही पाए। साफ कह देने से कहीं नाराज न हो जाए ये तुनकमिजाज लड़की, सोचते रहे। 
‘ आपने चुप्‍पी काहे साध ली ? जानती थी कि आप अपने परिवार को छोड़कर नही रहेंगे हमारे संग, हां . . जानती थी। सब मर्दलोग एक जैसे, डरपोक, कायर, बुजदिल और केवल बड़ी बड़ी बातें बनाने वाले। 
‘ बात केवल परिवार की नही है विनीता। वे लोग तो वैसे भी यूएस में हैं। मुझे तुम्‍हारे घर वालों की चिंता है, मां बाप, भाई और फिर तुम्‍हारा एकलौता बेटा कुछ कहने लगे, तो ?’ 
‘ आप मेरे बाबूजी की तरह ही तो हैं सो मुझे किसी से कोई डर नही। पिछले दिनों भाई के साथ रहकर कितना अपमान झेल लिया, आप नही जानते क्‍या ? बस, आप साथ रहने के लिए हां कह दें, बाकी मैं देख लूंगी। ‘ पूरे इत्‍मीनान और भरोसे से बोले गए बोल बजने लगे विनीता के जेहन में। 
जल्‍दी ही वे अपने घर में शिफ्ट हो गए। मन्‍मथनाथ का परिचय वह- हमारे बाबूजी जैसे हैं, कहकर देती। सुबह से शाम तक घर का सारा काम संभालते, चाय से लेकर नाश्‍ते, लंच या डिनर में क्‍या बनना है, वे ही तय करते। नौकरों को हिदायत देते, आने जाने वालों से कायदे से पेश आकर घंटों बतियाते मन्मथनाथ धीरे धीरे उस परिवार का हिस्‍सा बनते गए। विनीता भी उनके खाने व दवाइयों पर विशेष ध्‍यान देती। दोनों की जुगलबंदी देखकर यही लगता जैसे कोई साध्‍वी स्‍त्री अपने पति की अनवरत सेवा व्रत में डूबी है। उनके बीच हंसने हंसाने के दौर चलते और घूमने फिरने के मस्‍ती भरे लम्‍हे भी पनीली हवा की तरह सोए तन मन को जगा जाते। इस तरह उनके बीच सरसता भरे जादुई पल भी जब तक उमग आते जिसे वे सहज ढंग से जीने लेते। सर्र से साल भर बीत गया कि मन्‍मथनाथ को किसी पारिवारिक काम से दिल्‍ली जाना पडा। अपने इतने खास, इतने आत्‍मीय मन्‍मथनाथ को यूं बंटते देखना उसे कतई गवारा नही था। उसे लगता, जब उसने उन्‍हें अपना सौ प्रतिशत प्‍यार दिया है तो वे अन्‍यत्र जाने के लिए क्‍यों उतावले हो उठे। यह भटकाव उसे बर्दाश्‍त नही। शायद यही चूक थी उसकी। मन्‍मथनाथ को अपनी पत्‍नी और बेटों की फिक्र थी, जिनकी खातिर वे कुछ महीने की बात कहकर निकल गए- ‘ जल्‍दी ही लौटेंगे, इंतजार करना। ‘ 
इसी दौरान विनीता का बेटा भी अपना कोर्स पूरा करके घर लौट आया जिसे मन्‍मथनाथ को अपने साथ रखना पसंद नही था। एक दिन उसने खुलकर विरोध जताया- ‘ अंकल को अपने परिवार संग रहने दो। हमें उनको यहां नही रखना, अब, हां। 
‘ पर वे इतने बड़े घर को संभालते थे, इसी वजह से हमने सोचा कि  . . 
‘ मैं घर भी संभालूंगा और जल्‍दी शादी कर लूंगा तो आपका अकेलापन भी दूर होगा।‘ दोटूक लहजे में बात करके वह वहां से चलता बना। 
लंबी सांस ली उसने और आइने के सामने खड़ी हो गईं। अपनी सूरत को कई कोणों से निहारती रही, फिर न जाने क्‍या सोचकर मंदिर जाकर बैठ गई, आलती पालथी मारकर। कृष्‍ण भगवान के सामने आंखें मींचकर कभी मुस्‍कराती तो कभी हंसती तो कभी कई मुद्राएं बनाते हुए भगवान को एकटक देखती रही। अनायास होठों से कुछ बुदबुदाहट, कुछ अस्‍फुट आवाजें आने लगी जैसे वे साक्षात भगवान से सीधे सीधे बतिया रही हो-  हे प्रभु, कैसे कैसे दिन दिखाए आपने। सब कुछ सहती रही मैं सालोंसाल पर ये दु:सह अकेलापन, नही सहा जाता। ये बिस्‍तर काटने दौड़ता है, करवटें बदलते बीततीं हैं रातें।  हम नए सिरे से कुछ लम्‍हे सृजित कर पाएं, यह सबसे जरूरी है। जब जब  जो जो जैसा जैसा होता गया, करते रहे, अनायास उसकी नजरें मंदिर में रखी दर्जनों किताबों पर पड़ी- ओशो का दर्शन, गीता रहस्‍य, विवेकानंद दर्शन, जीने की कला, श्रीश्री के मुख से . . कितना कुछ पढ़ते रहते थे मन्‍मथनाथ। न जाने क्‍या सोचकर एक एक किताब पर धूल झाड़कर पढ़ना शुरू किया। अब वे दिन रात इन्‍हीं किताबों को पढ़ती, गुनती, चबाती और पचाने की कोशिश करतीं रहतीं। अनजान किस्‍म का अनिर्वचनीय आनंद रस महसूसती विनीता ने दिन ब दिन अपने अंदर बदलाव महसूसना शुरू किया। दफ्तर के बाद घर से 2 किलो‍मीटर दूर बनी झाडि़यों तक जातीं। वहां रहते बच्‍चों को किताबें, कापी और फीस वगैरह का इंतजाम करती। ऐसा करके अनूठी खुशी मिलती। वहीं पास में खाली पड़ी जमीन पर कुछ पेड़ पौधे रोपे। एक दिन जब वे बच्‍चों को कुछ पढ़ा रहीं थी, तभी पास से गुजरती गाड़ी अचानक उसे देखकर रूक गयी- ‘ कौन इस सरकारी जमीन पर बागवानी  कर रहा है ?’ इसके पहले कि विनीता कुछ जवाब देती, वे विनीता की तरफ ध्‍यान से देखने लगे- ‘ अरे तुम ? यहां, इस हाल में ? ये कौन सा नया रूप है तुम्‍हारा ? क्‍या कर रही हो यहां ?’ 
‘ अरे अविनाश, तुम अचानक ?’ अनायास सालों पुरानी दोस्‍ती जिंदा हो उठी। 
‘ विनीता, तुमको तो सबसे तेज गति से भागने वाली सुपरफास्‍ट गाड़ी कहते थे न हम सब ? बादलों के बीच उमड़ती बिजली सी कौंध वाली बिल्‍लौरी आंखें . . 
‘ अरे, वो सब छोड़ो। कैसे हो ? शादी की ?’ सीधे पूछ लेने में उसे कभी कोई हिचक नही होती।
‘ चलें, कहीं और बैठकर बतियाते हैं, गाड़ी मोड़ते हुए दोनों पास के पार्क में बैठ गए। देर तक दुनिया भर की बातें करते रहे। उसके बारे में सब कुछ जानकर बोला- ‘ कांट वी फारगेट द पास्‍ट ? ए न्‍यू विग्‍निंग  . . सूखे शब्‍द ऐसे झर रहे थे जैसे पतझड़ से गिर रहे हों बेजान पत्‍ते । 
‘ अविनाश, सब कुछ बदल गया अब। तेज बारिश से सब कुछ धुल पुछ गया है। जिंदगी की तकलीफों का बोझ दिमाग में कचड़ा बनकर सांस नही लेने दे रहा था, सो नष्‍ट हो जाने दिया। नही बचा सकी कुछ भी, पुराने जैसा . कहीं सुदूर आसमान की तरफ देखते हुए सोचती रही वह। तब दिमाग पर किस कदर सब कुछ पाने की बेचैनी या अजीब सी तलब तारी रहती थी। कुछ नया करने, नया रचने की ललक उसे जीने के नए आयाम देने लगती, शायद पागलपन था वह सब कुछ। 
‘ विनीता, तुम्‍हारे संग साथ को नही भूल पाया, कभी। तुम्‍हें छोड़ने का निर्णय आसान नही था लेकिन भूलकर भी नही भूल पाया उस नादान बच्‍ची को, तुम्‍हारा वो मासूम निष्‍कपट चेहरा, भोली बातें और चंचल हिरणी जैसी तुम्‍हारी कूदफांद, सब कुछ रह रहकर याद आता रहता। भूल जाओ, मेरी उस एक गलती को. . आवाज में अनायास याचना के रंग घुलने लगे। 
‘ वही तो, वही तो नही भूल सकती अविनाश। अब ये नया कौन सा तोता पाल लिया तुमने ? अपने रूपजाल में फंसाने का खेल खेलना बंद करो अब। ‘ इन शब्‍दों ने तीर की तरह बेध दिया था कलेजा मेरा। नही निकाल पाई दिलोदिमाग से यह सब . . .लंबी सांस लेते हुए बोली वह।  
‘ विनीता, जस्‍ट लिसन टु मी। क्‍या एक मौका और नही दे सकती ? आज भी तो तुम वैसी ही हो, सरल, सहज और सीधापन तो तुम्‍हारे माथे पर लिखा है। निश्‍छल अनुराग उड़ेलने वाली, केयरिंग एंड लविंग लेडी . . 
उसका दिमाग तेजी से विगत की तरफ दौड़ने लगा। किस तरह की उसकी जिंदगी टुकड़ों टुकड़ों में बिखरी पड़ी है । सारे झमेला इसी अविनाश को लेकर हुआ था, जिसे लेकर कहीं दूर भाग जाना चाहती थी वह, नही हो पाया ऐसा कि बीच में ही धर लिया गया। उसे लगता, हां वह प्रेम में थी। एम.ए के दौरान जब अविनाश आईएएस में निकल गया तो दोनों किसी अनजान जगह पर मिलने के लिए उत्‍सुक थे, विकल थे, पहली बार का पहला पहला प्रेम जो पनप रहा था अंतस में। 
‘ शादी करेगा इससे, बोल ?’ भाई गर्दन पकड़ बमक पड़े थे। 
‘ पिताजी से पूछना पड़ेगा। ‘ गर्दन नवाए धीरे से बोला था वह। 
‘ तो फिर तो प्रेम भी पिताजी से पूछकर करना था न ?’ पिताजी ने ऊंची आवाज में बोल पड़े।
‘ जी, जी , हम लोग तो बस मित्र हैं, ऐसे ही घूमने के लिए निकले थे। ‘ एक एक शब्‍द आहिस्‍ते से सोच समझकर बोल रहा था वह। 
वो दिन और आज का दिन, तब से लेकर आज तक वह सच्‍चे प्रेम की तलाश में भटकती रहीं, बेचैन रूह का बोझ ढोते हुई, कहां कहां की अनजान यात्राएं करती रही मगर फिर भी नही मिला उसे उसका मनमीत। 
अनायास उसे एक प्रसंग याद आ गया जब दफ्तर में एक वरिष्‍ठ अफसर इंटरनेट/ फेसबुक पर टकराई औरत को बेटी बनाकर भुवनेश्‍वर ले आया था। गुस्‍से से कांपती उस औरत की बदहाल जिंदगी टुकड़ों टुकड़ों में बिखरी देखी थी उसने। किस कदर मीठे शब्‍द जाल में- बेटी बनाकर रखूंगा तुम्‍हें अपने पास और फिर कायदे से शादी करवाकर कन्‍यादान का पुण्‍य मिलेगा मुझे।‘ उसकी बातों पर आंखें मूंदकर भरोसा करके चली आई थी वह, गाजियाबाद के दफ्तर में प्रूफरीडर की नौकरी छोड़कर लेकिन आते ही पहली रात ही उसने उसका हाथ पकड़कर विस्‍तर पर खींच लिया था। न जाने कितनी तरह के शब्‍द जाल फेंकता रहता था वो- ‘ तुम्‍हारा पूरा खर्च मैं उठाऊंगा, तुम तो बस यहां आ जाओ, मेरे पास रहने। मैंने अपने दफ्तर में सबको बता दिया है कि मेरी मुंहबोली बेटी मेरे पास रहने आ रही है। ऐसे छलिया पुरूष के शब्‍दजाल में फंसकर हर बार मात खाती है औरत। इनके मीठे बोलों से बिंधकर लहुलुहान होता रहा उसका तन मन। जब उसने पुलिस को फोन करके शिकायत की तो वह चुपके से उसे बिना बताए भाग गया। उसके दफ्तर वालों ने भी उसकी जयादा मदद नही की- यह आप दोनों का निजी मामला है, इसमें हम क्‍या कर सकते हैं ? कोई ऐसा कानून नही कि अपनी बेटी के रहते कोई दूसरी लड़की को बेटी बना ले और आप उस पर विश्‍वास करके यहां इतनी दूर चली आई, ताज्‍जुब है, तमाम महिलाओं ने उसे नसीहत दे डाली- ‘ अखबार में रोज बलात्‍कार की खबरें नही पढ़ती ? ऐसे मुंह उठाए चली आई इतनी दूर, मुंह बोली बेटी या बहन, कुछ भी कह लो।  हुंह, कोई बहन, बेटी नही बनाता औरत को। उनके लिए औरत महज मादा भर है जिसको नोंचकर भभोड़ना ही जानते हैं ये कापुरूष, छि: कैसे भरोसा कर लिया ?  इतनी बेवकुफ लड़की, आज के इस जमाने में, कांट विलीव। कितनों ने मुंह बिदकाया पर विनीता ने उसकी रामकहानी सुनकर छतफाड़ हंसी के टुकड़े बिखेरते हुए बोली – पहले भी कहीं ऐसे ही मुंह उठाकर चल दी थी क्‍या ? ओ गॉड, ये सब कमीने होते है, दो टके के, औरत की देह के लोलुप जानवर। लौट जाओ, जहां से आई थी। गनीमत समझो कि तुम्‍हें बेचा नही गया। हां, सोचो, यही क्‍या कम है ? 
धीरे धीरे समझ में आया कि खाली मन सूखे हुए रीते कुएं की तरह होता है जिसमें एक कंकड़ भी फेंको तो देर तक गूंजता रहेगा लेकिन अंतस में जब निश्‍छल स्‍नेह या करूणा भाव रहेगा तो ये आवाजें गूंजेंगी नही। सूखे कुएं के भीतर से भी कभी न कभी पानी की झिरी रिसते देखा है उसने, बूंद बूंद बूंद जिनका अमृतपान करके जीने लायक ऊर्जा संजो लेती है वह। सालों बाद इस सचाई का एहसास हुआ कि प्रेम व्रेम जैसी कोई चकाचौंध नही, कोई जादू वादू नही होता, चंद मिनट के दैहिक सुख में खुद को खोकर खुदी को पाने की यंत्रणा भर को प्रेम नही कह सकती वह। सच तो यह है कि भीतर बसे अपने ही प्रेम को बाहर फेंकने के लिए हम सब उतावले रहते हैं, किसी न किसी की तलाश में भटकते रहना ही प्रेम है क्‍या ? जिसके मिलने पर हम न जाने कितनी सारी अपेक्षाएं फेंकने लगते हैं और जब वहां से जवाब नही आता तो फिर वही खालीपन और अकेले पड़ने का एहसास गहराने लगता है।हर आकर्षण के कोई न कोई मोटिव जरूर होता है, भले ही वह नजर न आए मगर होता जरूर है। आखेटक अपने स्‍वभाववश या आदतन अपना शिकार तलाशना आसानी से नही छोड़ता। इसी तरह चलता रहता इनका अनवरत आखेट। 
एक समय आता है, जब हम सब भटकते भटकते खुद को पाने की तलाश पूरी कर लेते हैं तो अपने आप मिटने लगतीं हैं तृष्‍णाएं, अपेक्षाएं, लालसाएं या लगाव । वहीं से उगता है सृष्टि का नया नकोरा सूरज जिसकी सुनहरी रूपहली किरणों को देखकर खिल उठती है प्रकृति। भोर की उस मासूम चिडि़यां के कंठ से फूटता है सुरीला अनगढ़ राग जिससे महकने लगता है मन का बगीचा। जो अपने आप से, प्रकृति से या परिवेश से जुड़कर सकारात्‍मक ऊर्जा खोज ले, डुबो दे खुद को उस विलक्षण जादुई एहसास में, ऐसे में सृजित होती हैं बेशुमार कलाएं, फिर चाहे वह पेंटिंग हो, संगीत हो, साहित्‍य हो या जीवन को सुंदर बनाने का कोई भी उपक्रम। ऐसे खिले अंतस से बाहर की दुनिया में रंग बिरंगे इंद्रधनुष बनते रहते जिन्‍हें देखते ही देखते मिट जाना है, यही नियति है हम सबकी। कुछ अनूठा करके अच्‍छा महसूस हो, उसे करती चलो।विनीता के अंदर से ऐसी आवाजें आने लगीं। सचमुच, हमारे आसपास जो कुछ सुंदर सुहावना है, क्‍यों न उसे सांसों के सौंदर्य और लय के साथ महसूस किया जाए । सूर्यास्‍त की आभा को आत्‍मसात करती विनीता की आंखें क्षितिज पार के सौंदर्य पर टिक गईं, ये क्षितिज भी तो एक तरह का भ्रम ही है और हर भ्रम टूटने के लिए ही तो गढ़ा जाता है। 
ऐन मौके पर विनीता का मोबाइल बजने लगा, जिसमें अविनाश का नाम देखकर एक झटके से बंद कर उसने गाड़ी की रफ्तार बढा दी। न जाने कितने पुरूष कब से रंग बिरंगे मोहक शब्‍दजाल बुनकर औरत को अपने पास खींचने की जुगत बिठाते रहते। मीठे बोलों की चाशनी चटाकर लुभाना कभी नही भूलते अविनाश जैसे लोग, हुंह, ये नही सुधरेंगे। कार से बाहर मुंह निकाल कर उसने वितृष्‍णा से सड़क पर ऐसे थूका गोया अविनाश के मुख से निकले बेजान शब्‍दों को बेरहमी से बाहर फेंकने की कोई युक्ति सूझ गई हो। नही चाहिए ऐसे खोखले शब्‍दों का अस्‍थ्‍िापंजर, कतई नही। उसकी गाड़ी पूरी रफ्तार से गंतव्‍य तक पहुंचने वाली थी।  झोपड़पट्टी के पीछे से निकलता धुआं आसमान के रंग से एकाकार होकर बाहरी धुंध को बढ़ाने लगा लेकिन इससे बेखबर अस्‍ताचल जाते सूरज की आभा आसमान में नायाब रंगों की चादर बिछाने लगी।
रजनी गुप्त हिंदी की वरिष्ठ लेखिका हैं. वाणी प्रकाशन, भारतीय ज्ञानपीठ, किताबघर, सामयिक आदि प्रतिष्ठित प्रकाशनों से आधा दर्जन से अधिक उपन्यास प्रकाशित. पांच कहानी-संग्रह भी प्रकाशित हैं. इसके अलावा आलोचनात्मक, आलेख संग्रह, डायरी आदि विधाओं में भी पुस्तकें प्रकाशित. आपकी रचनाओं पर दर्जनों विश्‍वविद्यालय में शोध कार्य सम्‍पन्‍न एवं देश भर के अन्‍य विश्‍वविद्यालयों में शोध कार्य जारी. अनेक सम्मानों से सम्मानित. संपर्क - 09452295943 एवं gupt.rajni@gmail.com

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