अवधेश प्रताप सिंह लखनऊ के जाने माने धनी व्यक्ति थे उनका कपङे का कारोबार था। सुदंर और संस्कारी पत्नी सुनंदा और एक साल का बेटा पर्व।
आज एकादशी थी और पर्व का जन्मदिन भी था, इसलिए अवधेश की पत्नी सुनंदा ने घर पर हवन करवाया उसके बाद अवधेश अपनी पत्नी और सुनंदा के साथ मंदिर दर्शन के लिए गये ।
नन्हा पर्व मंदिर की घंटी की आवाज सुनकर प्रसन्न हो रहा था । वह सुनंदा की गोद से उतरकर इधर उधर भागा दौङी करने लगा । अवधेश ने पर्व को तेज गति से जाकर पकड़ा, छोटा बच्चा है गिर सकता है.. “सुनंदा तुम  पर्व को गोद मे लेलो, मंदिर मे बहुत भीड़ है.. चलो पहले प्रसाद लेते हैं” यह कहकर अवधेश दुकान से प्रसाद लेने लगा उधर पर्व सुनंदा की गोद से उतरने की हठ करने लगा ।
सुनंदा ने पर्व को गोद से उतार तो दिया पर मजबूती से पर्व की ऊँगली पकड़ ली । पर्व का ध्यान एक बच्चे की ओर गया जिसके हाथो में फिरकी थी, अचानक पर्व माँ के हाथो को काटने लगा क्योकि उसे फिरकी लेनी थी  सुनंदा ने दर्द से तिलमिला कर जैसे ही पर्व की ऊँगली छोङी,  पर्व भीङ में फिरकी लिये बच्चे की ओर भागने लगा, पर्व को भागते देख सुनंदा घबरा गयी और पर्व के पीछे भागी। अवधेश प्रसाद लेकर मुड़े तो पीछे सुनंदा और पर्व को ना देखकर परेशान हो गये ।
अवधेश की आखें सुनंदा और पर्व को खोज रही थीं, तभी उन्हे सुनंदा रोती हुई नजर आयी अवधेश भागकर सुनंदा के पास पहुंचे और बोले पर्व कहाँ है सुनंदा । सुनंदा रोते रोते बोली मेरा हाथ छुङाकर पर्व अभी भीड़ की ओर भागा, मैं भी पीछे भागी पर जब तक मै पर्व तक पहुंचती पर्व भीड़ में गुम हो चुका था,  मुझे कही भी पर्व नहीं दिख रहा , यह कहकर सुनंदा दहाड़े मारकर रोने लगी ।
अवधेश दिन भर यहाँ वहाँ बेसुध होकर पर्व को ढूढते रहे परंतु उन्हे पर्व नहीं मिला ।
अवधेश और सुनंदा की खुशियों को नजर लग चुकी थी, सारे जतन करने के बाद भी पर्व  का कुछ पता नहीं चला था ।
सुनंदा मानो निर्जीव सी हो चुकी थी एक माँ का बच्चा उसकी ही आखों के आगे से ओझल हो जाये तो उस माँ की क्या दशा होगी•••  यह वही बता सकता है जिस पर यह विपदा पङी हो•• |  कहते भी है,  ” घायल की गति घायल जाने, जो जन घायल होय”… दिन महीने और महीने साल मे बदलते गये । आखों के बहते आँसू सूखकर पत्थर बन चुके थे ।
अवधेश और उनकी पत्नी सुनंदा हर एकादशी को पर्व के जन्म दिन पर गरीब बच्चो को भोजन खिलाते रास्ते में कोई भी भिखारी दिखता तो रूककर उसके हाथो में कुछ सिक्के रखते ।
समय बीत रहा था साथ ही सुनंदा और अवधेश का धैर्य , स्वास्थय भी बीतता जा रहा था । इसी प्रकार पर्व को खोये हुये  चौदह साल बीत गये ।
अवधेश और सुनंदा आज भी प्रति वर्ष की भाँति मंदिर जा रहे थे आज एकादशी थी और पर्व का जन्मदिन भी  , चौराहे पर कुछ किशोर गंदी सी बनियान और कच्छे  मे खङे भीख मांग रहे थे ।
अवधेश ने ड्राइवर से गाङी रोकने का इशारा किया , गाङी से उतरकर अवधेश उन भीख मांगते हुए किशोरों  को अपनी जेब से सिक्के निकालकर देने लगे तभी अवधेश की नजर एक किशोर पर पङी तो तकरीबन पंद्रह सोलह वर्ष का होगा एकदम गोरा , दुबला लेकिन लम्बा , उस किशोर को देखकर अवधेश मन मे विचार करने लगे कि यदि आज पर्व हमारे पास होता तो इतना ही बङा होता । सुनंदा भी  वात्सल्य भरी आंखो से उस किशोर को देख रही थी,  अवधेश और उसकी पत्नी  के मन एक  ही विचार आ रहा था ।
अवधेश उस किशोर के निकट गये और किशोर के हाथ मे दस का नोट थमाकर बोले बेटा तुम्हारा क्या नाम है  ? चिल्लर,,  किशोर ने उत्तर दिया । ये कैसा नाम है ? किसने रखा ? अवधेश ने किशोर को पूछा ।
किशोर ने उत्तर दिया,  साहब  मै अनाथ हूँ मुझे जिन्होंने पाला उसने ही मेरा नाम चिल्लर रखा था अब वो इस दुनिया में नहीं है तो अब मै  सङक पर भीख मांगता हूँ  । वैसा मेरा नाम बिलकुल सही है चिल्लर,,,
सभी आकर मुझे भीख मे चिल्लर ही तो देते हैं यह कहते हुए किशोर की आँखे डबडबा गईं ।
सुनंदा ने अवधेश का हाथ पकङकर कहा,  सुनो मुझे इसमे अपना पर्व दिखता है मै चाहती हूँ कि इस किशोर को आप घर ले चले इसे माँ बाप का प्रेम मिल जायेगा और मेरे जीवन की कमी पूरी तो नहीं लेकिन थोड़ी कम जरूर  होगी। क्योकि अपना खून तो अपना ही होता है । अवधेश ने किशोर से कहा तुम हमारे साथ हमारे घर चलोगे  । क्यो  ? किशोर ने आश्चर्य से पूछा अवधेश ने कहा तुम्हे सभी भीख में चिल्लर देते हैं । आज मैं तुम्हे एक परिवार देता हूँ। किशोर के चेहरे पर आश्चर्य के भाव थे, सुनंदा के मुख पर प्रसन्नता, अवधेश के चेहरे पर संतुष्टि ।
…और इन तीनो को साथ देखकर नियति मंद मंद मुस्कुरा रही थी
सुनंदा और अवधेश का बेटा पर्व मिला लेकिन वह अपने बेटे पर्व  को पहचान नहीं सके, यह पर्व ही था अवधेश और सुनंदा का बेटा पर सत्य से तीनो अनभिज्ञ ।

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