1- खोज
काँप गए थे हाथ जिन वादों को करते हुए,
उनको निभाने की रस्म ढूंढ लाएँ,
बेसुरी जिंदगी में लय ही नहीं है ,
बेतरतीब लफ्जों से नज्म ढूंढ लाएँ,
रुसवाईयां ही थी जागे हैं जब भी,
हो जो बुलंद वो स्वप्न ढूंढ लाएँ,
बेभरोसे के रिश्तों की इस भीड़ में,
मांग सकें जिसका साथ बेझिजक,
जो समझ सके बहुत कुछ बिन कहे,
अनुभूतियों की ऐसी चलो ढूँढे सूरत,
और इंसा की नयी एक नस्ल ढूंढ लाएँ॰
2- नितांत अपनी
घूँघट की ओट में रतनारी पलकें,
बह जाने को बेकल व्यथा कौन समझेगा ?
कहना है जो उसे केवल वही
शब्दों का अभिप्रेत कौन समझेगा ?
होंगी जहां नाराजगी केवल रुसवाईयां,
प्रीत और सुलह कौन समझेगा ?
बर्दाश्त नहीं चोटों की भरमार है,
छोड़ दें तकरार उलझन कौन समझेगा ?
ये जहां नहीं दिल का अफसोस कैसा,
हर मन की नितांत अपनी है ….
अपनी कहते हैं जिसे वो तड़पन कौन समझेगा ?
3 – आदमी