ऐसे ही नहीं छोड़ा था उन्होंने
वह खूबसूरत शहर
जिसकी सुन्दरता पर उन्होंने
गवाँ दीं थीं जीवन की आधी सांसें
ऐसे ही नहीं छोड़ीं थीं उन्होंने
आसमां छूने को मचलतीं
उन्मत्त अट्टालिकाएं
जिनकी पीठ पर चढ़कर वह हुईं थीं इतनी बड़ीं
ऐसे ही नहीं छोड़ आए थे वह सड़क के किनारे की झुग्गियां
झुग्गियों में पड़ी चारपाईं और फूटे हुए वर्तन
जिन्हें जोड़ने में न जाने कितने दिन
लादीं थीं उन्होंने कितनी ही मंजिलें अपनी पीठ पर
ऐसे ही नहीं वह, टांग लाए थे अपनी पीठ पर
उदय होते, सौभाग्य के उस सूर्य को
निगलने को जिसका तेज
बढ़ रहा था धीरे-धीरे, भयावह अन्धकार
ऐसे ही नहीं घसीट लाए थे वह,नंगे पैरों
खूबसूरत शहर से उन अधूरे स्वप्नों को
जिनको पूरा करने लिए छोड़ आए थे वह
आंगन में सिसकती ममता और बचपन का सुख
क्यों कि वह नहीं चाहते थे मिट्टी होना
अपनी मिट्टी से सैंकड़ों कोस दूर
उस खूबसूरत शहर में
लावारिस मिट्टी की तरह ।
(2)
कविता धिक्कारती है तुम्हें ______________________
जूते के तल्ले की तरह उघड़ते तलवे
और पीठ पर भविष्य को लादे पथराई आंखें
जिनमें दम तोड़ती जिजीविषा व सांसें गिनते स्वप्न
जिन्हें देख यह कतई नहीं कहा जा सकता
कि उनकी पद यात्रा ठीक वैसी थी
जैसी होती है उन महानुभावों की
जिनके स्वागत में खड़े रहते हैं न जाने कितने चौराहे
लेकर फूलों के हार
सड़कें ओढ़ लेती हैं जिनके लिए मखमली अम्बर
पाकर आगमन की सूचना
फुटपाथ जिनके अभिवादन में हो जाते हैं पंक्तिबद्ध
करने को पुष्प वर्षा
गलियां दौड़ पड़तीं हैं नंगे पांव, लेकर षटरस व्यंजन
पाने को जिनकी कृपा दृष्टि
आज सूरज के थपेड़ों से उदास
क्रोधाग्नि में जलती वह सड़क
जिस पर आशा की एक बूंद और एक निवाले को मोहताज
अस्तित्व के लिए संघर्षरत जीवन
जिसे पत्थर बन देखता वह शहर
शहर की संवेदनहीन गलियां और फुटपाथ
जिन्हें लगता है मार गया लकवा
तो सुनो
तुम्हें कोई धिक्कारे
या न धिक्कारे
कविता धिक्कारती है तुम्हें
तुम्हारी संवेदन हीनता पर
तुम्हारे दोहरे चरित्र पर ।