आओ दोस्त केवल चाय पिऍं, घूँट घूँट स्वाद को जिऍं।
बंद हर संवाद हो, बस मौन अपने साथ हो, बिछड़े सपनों को जिऍं।
आओ दोस्त…
अख़बार से चेहरा उठाओ,
आज टी़ वी भी हटाओ, पल भर थकी उदासियों को छुऍं।
आओ दोस्त…
प्याली भी कुछ कह रही,
ताप कितना सह रही।
निज व्यथा को भूल कर, दुख पराए भी सहें ।
आओ दोस्त…
न सिक्कों की झनकार हो,
न मान और अहंकार हो।
आओ दोस्त…
चंद क्षण विराम दे,
थोड़ा सा विश्राम ले, जि़ंदगी को प्यार से जिऍं।
आओ दोस्त…
2 – माँ और मैं
माँ कहती थी कि वो भी कविताएं सोचती रहती थी,
लम्बी-लम्बी कविताएं और स्वेटर बुनती रहती थी ।
स्वेटर पूरा बन जाता था
और फिर थकान से उसकी आँख लग जाती थी
और वो कविता भूल जाती थी ।
माँ ने मुझे भी समझाया कि सिलाई बुनाई सीख ले,
ये लड़कियों के लिए बहुत ज़रूरी है ।
पर मैंने कहा कि नहीं माँ, मैं कविता लिखूंगी,
देखना तुम ।
पर वो सिर्फ कांच का सपना था ।
अब मैं सोचती हूँ कि सिलाई बुनाई ही सीख लेती ।
कविताओं से कोई घर चलता है ?
पर मैं अब भी लम्बी-लम्बी कविताएं सोचती हूँ ।
मुझे पता ही नहीं चलता कि कब मेरे सिद्धहस्त हाथों से
झटपट लज़ीज़ परांठे बन जाते हैं और मैं कविता भूल जाती हूं ।