Saturday, October 12, 2024
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पद्मा मिश्रा की दो कविताएँ

1 – बहुत दिनों के बाद …
बहुत दिनों के बाद ,खिली  है,
पल पल कितन सजाती धूप ,
सूरज का संदेशा लेकर ,
पात पात इठलाती  धूप .
गया शीत ,अब जगी उष्णता ,
मन में प्यास जगाती धूप .
जल दर्पण में झांक रही है ,
लहरों से शर्माती धूप .
नव प्रभात के स्वर्णिम रथ पर ,
किसी परी सी आती धूप ,
अंधियारे को जीत जगत में ,
शख की सुबह दिखाती धूप .
घर -आंगन में चौक पूर कर ,
तुलसी को नहलाती धूप ,
चौबारे के ठाकुर जी को ,
झुक कर शीश नवाती धूप .
राह -बाट ,गलियां ,गलियारे ,
सबसे प्यार जताती धूप ,
खलिहानों में उतर रही है ,
सूरज की शहजादी धूप …
अमराई में तनिक ठहर कर ,
गीत सुरभि के गाती धूप ,
सुन कर मंजरियों की गाथा ,
गंध गंध बौराती धूप .
बंद झरोखों के अंदर भी ,
जहाँ तहां मुस्काती धूप ,
राग रंग की सभा सजाये ,
किस किससे  बतियातीधूप ,
माया की छाया बन बैठी ,
इंद्रजाल फैलाती धूप ,
पगडण्डी पर बलखाती सी ,
धरती पर लहराती धूप ….
2 – पावक हो गए लोग
लाल भभूका सूरज लगता,
झुलस रहे धरती के प्राण,
गर्मी की बेरहम दुपहरी,
मांग रही है त्राण
बादल को तरसे हैं नैना,
बूंद बूंद की चाह,
पीपल की छाया भी सिमटी,
ढूंढ़ रही है छाँह.
ज्वाला ही ज्वाला है तन में,
हों कैसे शीतल गात?
गर्म भट्ठियों सी तपती लू,
ग्रीषम के उत्पात .
गर्म स्वेद से क्या बुझ पाए,
मन की शाश्वत प्यास.
जल ही जीवन रटते रटते
टूट रही है आस..
जल-अर्जन क़ि लिप्सा जितनी,
उतने ही उद्योग,
उस पावस की बाट जोहते,
पावक बन गए लोग,
नदिया सुख़ गई जल भीनी,
उथली हो गई थाह,
रेतीले तट सा जीवनहै,
विकल हो गई आह.
ओ मतवारे, कजरारे घन,
प्यास बुझा हर मन की,
अब तो आओ मन के नभ पर ,
तुझे कसम अंसुवन की
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