1 – चौखट
“चौखट से पार होकर
जाना तुम्हारा,
बता गया कि
दिलों की दूरियां ;
बहुत बढ़ गयी हैं…!
बढ़ गयी है शिकायतों के लहज़े भी,
जिनमें शोर कम और
खामोशी ज़्यादा है,
ताने कम और नरमी आधा है,
मुफ़्लिसी में जीने की आदत हो जिसे
क्या फ़र्क पड़ता है कि वह ज़िन्दा है
या मुर्दा है…!”
2 – प्रेम-पाश
“सहज नहीं है,
प्रेम-पाश में बंधना…!
वैसे बंधन कोई भी हो
वह कभी सहज नहीं होता,
क्योंकि उनमें,
प्रेम कम और गांठें
अधिक होती हैं,
गांठें…
सपनों के,
वादों के,
उम्मीदों के
और अपनों के…!
इन सबके बीच प्रेम
केवल पूनो का चाँद है
जो कभी-कभी काले बादलों के बीच से
छँटकर निकल आता है,
और बंधन जुलाई के तपते
सूरज की तरह ;
जिसकी तपिश से
चाहकर भी मुक्ति नहीं मिलती…!”
3 – ‘प्रेम का बदलता स्वरूप’
आज का प्रेम
सोशल मीडिया जैसा हो गया है,
कभी अतरंगी
तो कभी सतरंगी जैसा लगता है,
ऐसे में समझ नहीं आता
कौन-सा रंग असली है
और कौन-सा नकली…!
देखा नहीं कि
इज़हार-ए-दिल दे बैठे,
कर बैठे दिल्लगी
शमा तैयार बैठे हैं
परवाने के साथ जलने को…!!
टूटे दिल के साथ आये हैं
तेरे दर पे ;
इकरार-ए-मुहब्बत
कर तो लेने दो,
कह लेने दो, दो लफ्ज़
अपने हाल-ए-दिल का…!
लेकिन यह प्रेम फेसबुकिया और
व्हाट्सपिया प्रेम की तरह
पलभर में छू-मंतर हो जाता है,
ठीक उसी तरह
जिस तरह ;
भभककर जलते हुए दीये की आग
अचानक से बुझ जाती है
इंटरनेट का कनेक्शन
ऑन और ऑफ़ होते ही…!
क्योंकि अब प्रेम
प्रेम नहीं तिजारत अधिक है
इसमें नफ़े और नुकसान की
सट्टेबाजी लगी है,
सुंदर-असुंदर की होड़ मची है,
अहं के उत्सर्जन और विसर्जन
की ठेलमठेल भरी है…!
सच पूछो तो आज ;
गिव एंड टेक का ज़माना है…!
वह ज़माना गया,
जब लोग घंटों बैठकर
चिट्ठियां लिखा करते थे ;
अपने दिल-ए-अज़ीज़ को…!
आज लोग सोशल मीडिया पर ही
दीदार-ए-प्रेम कर लेते हैं,
कर लेते हैं कभी-कभी
वादाखिलाफी भी…!!”
4 – ‘मिट्टी की याद आती है l’
“याद आती है घर की मिट्टी
आँगन का चूल्हा और
माँ के हाथ की गर्म-गर्म
रोटियां…!
जो होती थीं बहुत गोल, नर्म और
हल्की-फ़ुल्की ;
माँ के हाथों की तरह…!
वैसे माँ के हाथों को
हल्की-फ़ुल्की नहीं कहा जा सकता
कहना चाहिए उसे हथौड़ा,
जो मेहनत करते-करते
बन चुकी थी लोहे की तरह
मज़बूत और सख्त…!
याद आती है मेरे गाँव की
भीनी-भीनी सौंधी मिट्टी
जो बारिश की बूंदों से,
महक उठती थी ;
महुए की तरह…!
याद आता है
गाँव का वह तालाब,
जिनमें भरी होती थीं जलकुंभियाँ
और मछली रानियाँ भी…!
मछलियाँ ! स्वभाव से ही चंचल होती थीं,
जो फ़ुदक-फ़ुदककर मचला करती थी
पानी के बाहर और भीतर,
अविराम, असीम और निरंतरता के साथ,
एक लय में पंक्तिबद्ध होकर…!
सोचती हूँ बचपन के साथ-साथ
छूट गया इनका साथ भी,
नदी, पोखर और तालाब भी
अपनों का साथ और गाँव का
रीति-रिवाज़ भी…!
गाँव ! जो अब छूट गया,
घर जो अब टूट गया,
चूल्हा भी बह गया कहीं
क्योंकि माँ…अब
रही नहीं…!!!”
Fabulous. After a long time came to read some very beautiful poems. Which take me to past time and Life