Saturday, October 5, 2024
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किरण सूद की कविता : मेरा घर बेबस

बुग्याल की हरीतिमा
लाल बुराँस के बीच
खिलखिलाती है हर बरस
अब के बरस भी
बहार तो छाई होगी
तुंगनाथ शिव का
पाने को दरस…..
खाई में फैले हिमखण्ड पर
फिसलने के बाद
कपड़ों को झाड़कर
आगे बढ़ जाने की ज़िद वाले
सैलानी तो घर में हो गए व्यस्त
रोटी खाकर बिस्तर में
सोए हैं बरसों के उनींदे मदमस्त 
चढ़ने को टेढ़े पहाड़ पर
विकल मन कभी दीवार ताकता
जाने क्यों और कैसे
कब डूब जाता अधबची नींद में
कब जाग कर टी वी की धुन में
चिंघाड़ को अनसुना करता
भद्र जन का नाटक बाँचता
यह कैसे विषाणु रेंग रहे
इन्सान से इन्सान तक
न डॉक्टर बचे न बचा राजा
न मन्त्री बचे न ही छूटे जवान
बूढ़े और दुधमुँहे बच्चे तक
पहुँच रहा अन्त बूँद बन बूँद तक
लहू सूखे बिन सूँघे
खाना पलटे मुँह की ओर
साँस में झोंक दिया ज़हर
इन्सान हुआ दुश्मन हर प्रहर
अपने ख़ून के रिश्ते भी
डर से दूर, दूर है प्रियवर 
यह क़हर ज़मीं का अब थककर
आसमाँ से पूछे सिर उठाए
कितनी बलि दी थी किसान ने
मजबूर ही भूखे रहे कई बेरोज़गार
ये भरपेट सोने वाले लोग
क्यों मर रहे खाना भरपेट खाए
विदेश जाने की दौड़ में
आगे रहने वाले कैसे
उलझे मौत के चक्रव्यूह में
क्या हो गया हथियारों को
क्यों न बचा पा रहे
अपने निर्माता को व्यामोह से 
ये कैसी हो गई बदशक्ल
तिलस्म की दुनिया में साक़ी
न मदिरा पर रीझते गर
ज़िन्दा तो रहते अपनी उम्र तक
अब उतावले बावले रेंग रहे
बिन पिये कफ़न ओढ़े सिर पर 
न गाली देने का दम बाक़ी
न रुपए गिनने को साँस रही
न बीबी बची न ही सैकड़ों प्रेयसी
दूर दूर खिसक रही मानवता 
कोई उम्मीद है तो सिर्फ़
बचाने वाले अपने घर की बेबसी
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