“उम्र जितना लम्बा प्यार”
कहानी संग्रह ( सपना सिंह परिहार )
स्त्रीभ्रमों को तोड़तीं कहानियां
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समकालीन कथा साहित्य में नए कलमकार नई उड़ान भर रहे हैं। एक पूरी की पूरी नौजवान पीढ़ी भाषा, शिल्प, कथ्य और अंदाज को लेकर नए प्रयोग कर रही है। स्त्री रचनाकारों की बात करें तो उनका साहस चमत्कृत करता है। वे दिखा रही हैं साहस सामाजिक वर्जनाओं के खांचे से मनचाहे विषय चुनने का, निषेधों के दायरे में घुसपैठ का, साफगोई से स्त्रीमन में बंधी उस गांठ को खोलने का जिसमें उनकी पुरखिनें चोरी चोरी अपनी आकांक्षाओं को बांध कर रखती थीं।
मसलन ऑर्गेज़्म पाने की तृप्ति, अनजान आदमी से तारीफ पाने का सुख, एक बेनाम रिश्ते से उम्र जितना लम्बा प्यार पाने की ख्वाहिश और ऐसे ही कुछ और सपने जो अमूमन सामाजिक ढांचे, विवाह संस्था, मान मर्यादा या नैतिकता की चौखट में दम तोड़ देते हैं।
सपना सिंह इन्ही अधूरे सपनों की अस्थियां चुनकर एक भरपूर औरत को रचती हैं जिसका प्यार रिश्ते का मोहताज नहीं। औरत को प्यार जिससे होना होता है हो जाता है। उनका अनन्य प्रकाशन से छपा कहानी संग्रह “उम्र जितना लम्बा प्यार” नए तेवर की पन्द्रह कहानियों का पुलिंदा है। जिसमें स्त्री की मनःस्थितियों के कई शेड्स उभर कर आते हैं।
एक कहानी है – ” प्राप्ति ” जिसमे एक रात का ट्रेन सफर सूने मन की प्राप्ति का सबब बन जाता है।अनजान आदमी अचानक बहुत आत्मीय लगने लगता है। क्योंकि पति से जब तारीफ न मिले तो रिक्त मन को पराए पुरुष की  – आप पर बिंदी बहुत अच्छी लगती है – मामूली सी तारीफ़ भी बांध लेती है। औरत को प्रेमी ही नहीं पति से भी केयर चाहिए, मुखर केयर। औरत का मन गड्ढा है। खाली हुआ कि पानी भर गया। फिर वह बारिश की साफ बूंदें हों या पोखर का गन्दला पानी ।
कहानी “कम्फर्ट ज़ोन के बाहर ”  बेतरह चौंकाती है। औरत अपने इर्द गिर्द कितने सारे भ्रम पाले हुए है, अधूरी इच्छाओं के बावजूद उन भ्रमों के नशे में वह जीती है। सामाजिक भीरुता उसे कम्फर्ट ज़ोन के बाहर नहीं आने देती पर जब साहस जुटा लेती है तो यह अहसास नेमलेस होता है जो बाहर समथिंग अनैतिक है। चौबीस साल में पति से यौन सुख न पाने वाली पत्नी अपनी अधेड़ उम्र में किसी और से ऑर्गेज़्म पाती है। किंतु इसमें सतही दैहिक लिप्सा नहीं गहरा मानसिक सुख भी है। वह कहती है —
“वो मेरा नीलकंठी शिव है। अधेड़ ढीले जिस्म को चूमने वाला…”  कहानी जीवन सन्ध्या में प्रायः स्त्री को रूखी सूखी निचुड़ी समझकर छोड़ देने वाले पुरुषों को आगाह करती है कि सूखी टहनियां भीतर से हरी होती हैं जैसे ख़ुश्क ज़मीं भीतर से तर। औरत को ज़रा भर कुरेदो वह नदी बनकर फूट पड़ेगी।
“समराग” कहानी में लेखिका औरत और शादीशुदा मर्द के रिश्ते की पड़ताल करती हैं। यहां औरत की मूल वृत्ति प्रेम होती है, नैसर्गिक रुप से वह प्रेम के ऊपर देह को नही आने देना चाहती जबकि पुरुष गहरे प्रेम में भी औरत की देह में स्खलित होता है। औरत समराग चाहती है। जो मिलना आसान नहीं, प्रेम के लिए वह देह को साधन बनाती है पर पुरुष का तो साध्य ही देह है।
संग्रह की दो कहानियां “जाएगी कहाँ ” और  “वो,उसका चेहरा” मध्यमवर्गीय औरत की सनातन पीड़ा को दो भिन्न कोणों से दर्शाती हैं। पितृसत्तात्मक समाज में एक आम पति की मानसिकता है कि औरत को आराम से घुड़का जा सकता है। गाली, फटकार, मार सहकर भी वह जाएगी कहाँ। बड़े बड़े कानून बन जाने पर भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। देह के नीले दाग झांप झूंप कर जीने को अभिशप्त है यह बेचारी औरत जिसका आक्रोश एक दिन चुप्पियों में बदल जाता है और फिर खाई जैसी दूरियाँ या नदी के दो किनारों सा अनबोलापन। इस स्थिति की शिकार पढ़ी लिखी लड़कियां भी होती हैं।
सुंदर, ज़हीन, साहसी अनुसूया विवाह संस्था में पति से कभी ढेर सारा प्यार, कभी नफरत के विरोधाभास को झेलती है। न साथ रह सकती है, न छोड़ सकती है। क्यूँ ? इसका जवाब है उसकी कंडीशनिंग और सामाजिक सोच।
और भी कई मुद्दे हैं -औरत अपने रिश्ते को लेकर प्रायः असुरिक्षत महसूस करती है, जब तब उसका दाम्पत्य जीवन शंका के घेरे में आ जाता है। बाहर आवास से लौटी पत्नी को बिस्तर में नौकरानी की बू आती है ( कहानी ‘बू’ )
“एक दिन” संकलन की सबसे सहज कहानी है। पति के निश्चित समय पर घर न लौटने पर पत्नी कितनी यंत्रणा से गुजरती है। फिक्र, एक्सीडेंट की कल्पना, कुछ हो गया तो गुज़र बसर की चिंता – ऐसे एक दिन जाने कितनी बार हर पत्नी के जीवन मे आते हैं। हर औरत खुद को इस कहानी में महसूस करेगी।
” डर ” संग्रह की एक सशक्त कहानी है जहाँ रेप की घटनाओं के बीच एक माँ सयानी होती बेटी की सुरक्षा को लेकर चिंतित है। अवान्तर कथा की तरह लेखिका ने बारीकी से मां के बचपन की भयावह यादों का ताना बाना बुना है जो इस बात पर मुहर लगाता है कि बच्चियां किशोरियाँ सब दिन आदिम विकृति का शिकार होती रही हैं।
“परी” गरीबी में लिपटी बच्ची की भूख, थकन की मार्मिक कहानी है। भिन्न कथानक के बावजूद जिसमे प्रेमचन्द की बूढ़ी काकी की छाया दिखती है।
“सांच कि झूठ ” कहानी लेखिका की आंचलिक परवरिश का परिचय देती है। मिट्टी से जुड़ाव के बिना इतनी सच्ची गवईं महक सम्भव नहीं है। गज़ब के सम्वाद और कमाल की भाषा कहानी का प्राण है। गांव में चुपचाप बनते अनैतिक सम्बन्ध और औरत की दुर्गति को केंद्र में रखकर इस कथा की सर्जना की गई है। गांवों में सबकी अपनी अपनी कहानी होती है।
स्त्री पुरुष सम्बन्धों में शिकायत रिश्ते के जिंदा होने का सबूत है – यह फलसफा है लेखिका सपना सिंह का।शिकायत नहीं तो कोशिश नहीं, कोशिश नहीं तो आशा नहीं और फिर निराशा जड़ होकर अध्यात्म में बदल जाती है।
नारी क्यों है इतनी विवश, कुंठित सदियों से आज तक, यह सोचकर मातम मनाना लेखिका का अभीष्ट नहीं, बल्कि उसमें समाधान देने का माद्दा भी है। नई सदी में स्त्री की बदलती चिंतनधारा का आईना है यह किताब-
खास तौर पर स्त्रियों के लिए पठनीय। सपना सिंह को बधाई और शुभकामनाएं !!
—– भावना शेखर

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