छोड़ आए हम जो गलियाँ….

– रुचि भल्ला

लौतिफ़ा का साथ वैसे तो गुड़गाँव में मुझे डेढ़ साल ही मिला फ़िर वह बंगाल चली गई थी पर वह हमेशा के लिए एक रिश्ता जोड़ गई मुझसे। मेहनत कश…. सत्ताईस साल की लौतिफ़ा से मेरी पहली मुलाकात तब हुई थी जब मेरा पानीपत से गुड़गाँव जाना हुआ । अपने आप चली आयी थी वह काम की तलाश में एम ब्लाॅक के उस पाँचवी मंज़िल के फ्लैट नंबर 506 में
 गोल-मटोल….गोल चेहरे वाली…. साँवली – सलोनी… सलवार-कुर्ता पहने हुए …हाथ मेें छोटा सा बटुआ थामे …आँखों में काम की तलाश लिए …बंगाली-मुस्लिम लौतिफ़ा ने फ्लैट की घंटी बजा कर अंदर आते हुए मुझसे कहा – “मैं काम कर सकती हूँ आपके घर में झाड़ू-पोछा, बर्तन ।” सादे से चेहरे वाली वह सादा लड़की फ़िर घर में घुल-मिल गई ।
 लौतिफा काम से छुट्टी कभी नहीं करती थी । बीमार हो तो अलग बात है उन दिनों उसका फ़ोन सुबह सात के पहले आ जाता – ” दीदी, आज मैं नहीं आ रही हूँ ।” हालांकि ऐसा फ़ोन उसका दो-तीन महीने में एक दिन ही मुश्किल से आता था । उसके हाथ में बहुत सफाई नहीं थी काम करने में पर काम करने की स्पीड माशाअल्लाह थी । झाड़ू-पोछा, बर्तन चुटकियों में निपटा जाती ।उसके पास किसी घर में बैठ कर चाय पीने, बात करने, टी.वी. वगैरह देखने का खाली वक्त नहीं होता था ; इतनी देर में तो वह और कितने घरों का काम निपटा लेती थी। धीरे-धीरे वह मुझे अच्छी लगने लग गई थी  ।मैं उसे लौतिफ़ा से लौतिफ़ कहने लग गई जैसे प्यार में नाम को छोटा करके पुकारने लगते हैं सब
दिन बीत रहे थे पर समय हमेशा एक सा नहीं बीतता ।उन्हीं दिनों अचानक मेरा एक आॅपरेशन होना तय हो गया । मुझे तीन महीने तक बैड-रेस्ट की मेरे डाॅक्टर ने सलाह दी थी ।तीन महीने लंबा समय होता है …माँ मेरी 78 साल की और मैं गुड़गाँव में एकदम नयी । झाड़ू-पोछा, बर्तन तो लौतिफ़ा करती थी पर मेरे हिस्से का काम माँ से उस उम्र में नहीं हो सकता था । चाहते न चाहते हुए भी रसोई की सारी जिम्मेदारी लौतिफ़ा के कंधे पर डाल दी गई
उसके पास काम पहले ही बहुत ज्यादा घरों का था पर मेरा चेहरा देख कर वह ना नहीं कर सकी ।इतना तो मैं जानती थी कि वह कई घरों में खाना बनाने का काम करती है पर लौतिफ़ा खाना बनाने में कितनी हुनरमंद है ,यह मैंने अपनी बीमारी के उन दिनों में देख कर जाना । राजेश खन्ना का किरदार जो बावर्ची फिल्म में है शायद ऋषिकेश मुखर्जी ने कहीं बंगाल में इस लड़की जैसा ही कोई दूसरा देखा होगा किसी रसोई में काम करते हुए और उन्हें फिर बावर्ची फिल्म बनाने का ख्याल आ गया होगा
 कैसा भी खाना हो … चायनीज़, मुगलई, पिज़्ज़ा …कैसा भी स्वाद चाहिए हो किसी को … वह हर घर में उनके हिसाब का खाना बना देती । पंजाबी- मद्रासी- बंगाली -गुजराती- मराठी जो भी घर थे उसके पास ,हर तरह का खाना जिसकी जो फ़रमाइश हो ,अलादीन के जिन सी यह लड़की जी ! मेरे आका कह कर सजी हुई तश्तरी हाज़िर नाज़िर कर देती । उसके हैण्डी टिप्स कमाल के होते थे …रसोई में केक -बिस्किट बनाते हुए मुझे देखती तो कहती- ” केक कभी मार्बल भी बनाइए, दीदी! रंग डाल कर …।” मैं रंग डालने लगती तो मुझे कहती – “पाउडर वाले रंग को पानी में क्यों घोलती हो आप…लिक्विड कलर लाया करिए…टुथ पिक में लगा कर बैटर में डालने से रंग ज्यादा नहीं फैलता है ।” खाना बनाने की कोई विधि उसकी आँखों से गुज़र जाए ,वह तस्वीर लैंस लगी उसके कैमरे वाली आँखों में कैद हो जाती थी । कभी मुझे काबुली चने बनाते हुए देखा होगा उसने रसोई में…मैं जब बीमार थी … हूबहु वही चने बना कर उसने रख दिए थे डाइनिंग टेबल पर। स्वाद- रंगत देख कर कोई नहीं कह सकता था कि किसके हाथ के बने हैं
 उसके हाथ से सब्जियों की कटिंग- चौपिंग की तो मैं मुरीद थी । एक टमाटर से पचास पतले स्लाइस काटने का हुनर था उसके पास ।प्याज के लच्छे इतने बारीक गोल काटती कि मैं उसके हाथों में छिपा कोई स्लाइसर ही ढूँढती रह जाती । उन लच्छों की जंजीर से उसने मेरा दिल अपने साथ बाँध लिया है। चुकन्दर, मूली ,गाजर को बाल जैसा बारीक काट कर धर देती थी मिनटों में । जादू था उसके हाथ में । बिना टी.वी. में मास्टर शैफ़ प्रोग्राम में गए वह कुकिंग की सरताज थी
 घर के लिए सब्जियाँ लाना… राशन लाना ….अपनी जिम्मेदारी समझ कर ला देती किसी काम से कभी इंकार नहीं किया उसने ।घर भर के कपड़े भी धो देती । समय की बहुत कमी होती थी उसके पास फिर भी मेरे कमरे में आकर , मेरे दुखते सिर को दाब जाती । दीदी-दीदी पुकारती लौतिफ़ा मेरी दोस्त बन गई थी …गुड़गाँव में मेरी एकमात्र दोस्त।
 पहले घर को उसके आने का इंतज़ार रहता था फिर घर से ज्यादा मुझे रहने लगा ।थोड़ी ताकत आने पर जब मैं रसोई में जाने लगी …जब वह सिंक में बर्तन धोती होती थी ,मैं उसकी कमर के गिर्द अपनी बाँहों का घेरा डाल देती लौतिफ़ बोलते हुए उसके गालों को चूम लेती जबकि उसके पास काम के अलावा ठहरने का वक्त नहीं होता था ।दिल चाहता था वह मेरे पास ठहर जाए। वह खुद भी मेरे पास ठहर जाना चाहती थी ।उसके चेहरे पर मैंने हमेशा ताज़गी देखी …थकान का नामोनिशां नहीं होता था ।एवर रेडी बैटरी सी हरदम चार्ज्ड लौतिफ़ ब्राॅन्ड
उसका एक उद्देश्य पैसा कमा कर बंगाल भी लौटना था जिसे वह अपने शब्दों में देश लौटना कहती थी ।वह गुड़गाँव में अपने पति के साथ रहती थी ।उसकी छोटी सी बिटिया बंगाल में दादा और नाना के साथ रहा करती थी ।परिवार का भी दबाव था लौतिफा पर कि अब घर लौट आओ …।लौतिफ़ा को बंगाल लौटना था ।तबियत भी मेरी तब तक संभल चुकी थी
 लौतिफ़ा उस घर में आयी तो थी झाड़ू -पोछा, बर्तन के काम के लिए पर उसने सारा घर संभाला ।राशन- सब्जी सब लाना ,कपड़े धोना ,सुखाने डालना, उतार कर तह लगाना ,डस्टिंग ,रसोई ….सारे घर के लिए अलग खाना ,मेरे लिए हल्का खाना बनाना ,जूस -सूप, चाय ,दूध -फल समय पर देना ….बहुत सेवा की लौतिफा ने मुझ बीमार की । बालों में तेल लगाना… चोटी कर देना….दुखते हाथ-पाँव दबा देना …कभी बुखार हो जाए मुझे, मेरे तपते माथे पर आकर अपना नर्म हाथ रख देना …बालों को सहलाते रहना बैठ कर… चाहे उसे देर ही होती रहे
 जब उसने कहा एक दिन कि उसे बंगाल लौट जाना है । मैं रात-दिन सोचती रही कि कैसे भेज सकूँगी मैं लौतिफ़ा को बंगाल जिसके घर में आने से घर की सुबह होती थी ….शाम को काम करके जाती तो रात आती थी । लौतिफ़ा जो चली जाएगी बंगाल …क्या मैं उसे फिर कभी नहीं मिल सकूँगी ….मुझे तो दिन भर आदत है लौतिफ़ -लौतिफ़ पुकारने की ।उसकी पीठ से लग कर उसके गालों को चूमने की ।बिस्किट खाते हुए आधा बिस्किट तोड़ कर उसके मुँह में डालने की ….क्या वह जा सकेगी मुझे छोड़ कर
 और फिर लौतिफ़ा के जाने में एक दिन ही शेष था ।उस दिन मैंने उससे कहा- तुझे देने को क्या न दे दूँ लौतिफ़,बोल ….तूने इतना कुछ किया है मेरे लिए….बहुत किया …क्या दे सकती हूँ मैं तुझे , तेरा किया कभी नहीं चुका सकूँगी …लौतिफा बोली – “एक केक बना दो दीदी , मैं रास्ते भर खाती जाऊँगी तुम्हारे हाथ का बना। ” इतनी सी चाह थी उसकी बस…. केक लेने आयी थी वह आखिरी दिन और मुझसे विदा बोलने….उस दिन लगा जिस दिल में किसी के लिए प्यार होता है ,वह दिल इतना बड़ा होना चाहिए कि उस आदमी को भींच कर उस दिल के अंदर रख लेना चाहिए हमेशा के लिए। घर चुपचाप खड़ा गीली आँखों से हम दोनों को गले मिलते देखता रहा। कुछ नहीं बोल सका । काश! घर की ज़ुबान होती …काश !वह भी आगे बढ़ कर उसे रोकने की कोशिश करता ….करता तो सही…जबकि जाने वाला कभी रुकता नहीं है
 उसे जाना था …गाड़ी पकड़नी थी । वह लिफ़्ट की ओर बढ़ गई ।वह लिफ़्ट के अंदर थी और मैं उसका हाथ थामे उसके साथ लिफ़्ट में । लिफ़्ट पाँचवी मंज़िल पर खड़ी थी । वह जानती थी मैं उसे छोड़ नहीं सकूँगी । छोड़ना उसके लिए भी मुश्किल था। लिफ़्ट को बीच में कब तक रोका जाता । रोकने की सभी कोशिशें नाकाम थीं । मैं लौतिफ़ा को देख रही थी कि आज के बाद इसे नहीं देख सकूँगी कि तभी उस बीच उसने मेरा हाथ जो उसके हाथ में था ,उस हाथ को एक झटके में छुड़ाते हुए, मुझे लिफ्ट से बाहर की ओर ज़रा सा धक्का दे दिया । यही एक तरीका बचता था उसके पास मुझे खुद से जुदा करने के लिए क्योंकि ज़ुबान से वह सैकड़ों बार कह चुकी थी -” दीदी ! घर जाओ ।” वह घर जो लौतिफ़ा का भी हो गया था । बेजुबाँ घर उसे जाते हुए देखता रहा । वह चली गई । मैं बालकनी में दौड़ कर गई ।पाँचवे माले से सारी ताकत लगा कर उसे आवाज़ देती रही लौतिफ़…लौतिफ़। हाथ हिलता रहा मेरा ….उसके ओझल हो जाने के बाद भी
 उसे भूलना आसान नहीं था …और भूलना भी क्यों था। प्यार भी कभी कोई भूलता है कहीं …उसकी बातें रह -रह कर याद आती रहीं । याद आती रही वह एक बात भी ….कभी ऐसा भी हुआ था गुड़गाँव में रहते हुए….आर्थिक तंगी तो कभी नहीं देखी पर थोड़ी परेशानी जरूर हो गई थी एक बार। मुझे लगा लौतिफ़ा की तनख्वाह उसे कुछ दिनों के बाद दे दी जाए …और जहाँ ज्यादा ज़रूरी है …पहले वहाँ पैसे देकर निपटा दिया जाए । यह बात जब मैंने लौतिफ़ा से कही कि तुम्हें इस महीने तनख्वाह रुक कर देती हूँ तो जवाब में वह बोली- “दीदी! मुझे पैसे कभी भी इत्मीनान से दे देना ।” मैं खड़ी होकर उसकी बात सुन ही रही थी कि उसकी अगली बात ने मुझे हैरत में डाल दिया …वह बोली- “दीदी, मेरे पास बैंक में कुछ हजार रुपए जमा हुए पड़े हैं….क्या मैं ला सकती हूँ ….?” ऐसी जरूरत मुझे नहीं थी लेकिन लौतिफ़ा ने उस वक्त मेरी मदद करनी चाही …यह बात मुझे कभी नहीं भूलेगी ।वह ऐसी ही थी घर की सदस्य थी ।घर से घर की बात कहाँ छिपती है
 लौतिफ़ा के जाने के बाद मैंने सोच लिया था …अब जो भी इस घर में आयेगा, वह सिर्फ़ काम करेगा और अपने घर जाएगा…. लौतिफ़ा के फ़्रेम में मैं अब किसी और की नई तस्वीर नहीं जड़ूँगी पर जब फ़ौजिला आयी काम करने, वह लड़की नहीं थी …कठफोड़वा थी । कुरेद- कुरेद कर मेरे दिल में उसने दोस्त की जगह बना ली । फ़ौजिला गुड़गाँव में बनी मेरी दूसरी दोस्त थी …
 लौतिफ़ा बंगाल पहुंच कर हर महीने मुझे फोन करती रही । कुछ महीनों बाद मैं भी गुड़गाँव से फरीदाबाद चली आयी । फ़ोन पर जब भी लौतिफ़ा से बात होती ….लगता मेरे बगल में आकर वह खड़ी हो गई है। मैं उसकी आवाज़ में उसका चेहरा तलाशने लगती…लौतिफ़ -लौतिफ़ की आवाज़ मेरे आस-पास घूमने लगती । फरीदाबाद से जब मैं फलटन में आयी तो लौतिफ़ा का फ़ोन आया -” दीदी! मैं वापस गुड़गाँव जा रही हूँ काम करने के लिए ।”
कुछ दिनों से वह वापस गुड़गाँव की उसी सोसायटी में फिर से काम कर रही है । पुराने सभी घर उसे मिल गए हैं । लौतिफ़ा हर घर की पहली चाॅयस जो है…जो उससे जुड़ा ,वह उसी का हो गया ।हर दिल अज़ीज़। आज उसका फोन आया – तो मैंने पूछा और लौतिफ़ा गुड़गाँव में कैसा लग रहा है …तुम बहुत याद आती हो मुझे और तुम्हारे हाथ का बना खाना भी याद आता है । लौतिफ़ा बोली- “दीदी !कब आओगी गुड़गाँव… बहुत दिन हो गए तुम्हें देखे हुए…आ जाओ यहाँ मुझसे मिलने , मेरे पास …मेरे घर। “
मेरे पूछने पर कि तुम्हें काम मिल गया है ठीक-ठाक से सिसपाल सोसायटी में ? वह बोली – ” काम तो सभी पुराने मिल गए हैं, दीदी ! कुछ नये घर भी मिले हैं और आप जिस घर में रहती थीं 506 नंबर में ,वहाँ उस घर में भी काम मिल गया था मुझे । मैं गई थी वहाँ एम ब्लाॅक में । लिफ़्ट में चढ़ते हुए तुम्हारी बहुत याद आयी थी…।उस घर में तुम्हारी बहुत याद आती रही काम करते हुए । दो दिन ही मैं गई वहाँ और फ़िर उनका काम छोड़ दिया मैंने …बोल आयी उस घर के लोगों से ….इस घर के कोने -कोने में मुझे मेरी रुचि दीदी दिखाई देती है। मैं इस घर में काम कर ही नहीं सकूँगी आकर । सिसपाल की पूरी सोसायटी में कहीं भी काम कर लूँगी पर 506 नंबर फ़्लैट में काम नहीं कर सकूँगी मैं….नहीं चढ़ सकूँगी एम ब्लाॅक की लिफ़्ट में…..।”

– रुचि भल्ला

संपर्क : Ruchi Bhalla ,
Shreemant, Plot no. 51,
Swami Vivekanand Nagar ,
Phaltan Distt Satara
Maharashtra 415523
फोन नंबर 9560180202  email  Ruchibhalla72@gmail.com
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